समाज

क्या हम परिवार को बचा पाएंगे ?

घर में शिशु संगोपन और शिशु संस्कार अत्यन्त उपेक्षित विषय बन गए हैं , जो आने वाली पीढी के लिए प्रतिकूल परिणामदायक होगी । आज की आधुनिक शिक्षा ने उपभोगवादी मानसिकता को इतना बढावा दिया है कि युवक-युवतियां अपने परम्परा और समाज से संवाद करना भूलते जा रहे हैं । अधिकाधिक सुख पाने की लालसा में संयुक्त परिवार टूटा जब यह नारे दिए गए ” छोटा परिवार सुखी परिवार ” और अब धीरे-धीरे परिवार भी टूट रहा है । आज का युवा वर्ग अधिकारों , सुविधाओं की मांग तो करता है पर कर्तव्य की बात उनके लिए बेमानी है । गृह कार्यों , व्यवस्था और वातावरण से कटे रहते हुए उनमें परिवार जैसी संस्था के प्रति आस्था नही रह जाती । व्यक्तिवादी सोच का जो बीज संयुक्त परिवार व्यवस्था को तोड़ने के समय एकल परिवार के रूप में (मियां , बीबी और बच्चा) उगाया गया था आज वटवृक्ष की शाखाओंकी भांति बढ़ता जा रहा है । बढती भौतिकतावादी प्रवृति और बाह्यसंसार की चमक-दमक में युवा परिवार- समाज -देश आदि की बातों को पिछडापन मानने लगा है । हर क्षेत्र में अर्थ की प्रधानता हावी है इस कारण परिवार के सदस्य भी संवेदनाशून्य हो गए हैं । फैलते बाजारवाद और वैश्वीकरण की वजह से नवयुवतियों की सोच भी बदल रही है । वे परिवार तथा सामाजिक दबाव में वैवाहिक बंधन स्वीकार तो कर लेती है किंतु करियर की चिंता उन्हें कुशल और समर्पित गृहणी बनने में बाधा पहुंचाती है । वास्तव में बचपन में उचित संस्कार पोषित न किए जाते , माता -पिता बच्चों को अपेक्षित समय नही दे पाते जो उन्हें प्यार दुलार देने और भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करने का होता है उसमे वे अपने करियर बनने में जुटे रहते हैं । जिस कारण बच्चों में विलगाव की भावना आती है , उनके मन में परिवार के प्रति वह ममत्व नही रह जाता जो स्वाभाविक होता है । इसी प्रकार कहते हैं बच्चे जो देखते हैं हुबहू सीख जाते हैं । अपने माँ-बाप को दादा-दादी की उपेक्षा करते देखते हैं तो वो भी अपने समय में अपना कर्तव्य बोध भूल कर उदासीन हो जाते हैं । आज परिवार में बढ़ता एकाकीपन ही परिवार के नाश का भविष्य लिख रहा है । संस्करोंं के अभाव में भौतिक भोगलिप्सा के कारण लोग स्वार्थी और स्वकेंद्रित होते जा रहा हैं । बहरहाल , चिंता के इस विषय पर कई लोग, कई संस्थाएं और सरकार भी काम कर रही है । अभी हाल में ही गुजरात सरकार ने बुजुर्गों की अनदेखी करने वालों के विरुद्ध कड़े प्रस्ताव पारित किए हैं । इससे पूर्व केन्द्र सरकार भी ऐसे विधेयक लाती रही है । सामाजिक संस्थाओं और कई आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा परिवार को बचाने की पहल भी जारी है लेकिन क्या कारण है कि अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहा है ?