जब मौत ”मजहबी” होने लगे तो क्या होता है ?

डा. नारंग
डा. नारंग
डा. नारंग
डा. नारंग

बदलते भारत का मतलब

 

कभी कोई आजादी की खातिर अचानक ही सक्रिय हो जाता है तो कोई हत्याओं को मजहबी चश्मे से देखने लगता है। मौत में इंसानियत की हत्या नहीं बल्कि दलित की हत्या के तौर पर सुराग जुटाए जाते हैं। आंदोलन होता है, तख्तियां बनती हैं, मरने वाले व्यक्ति के चित्र के साथ प्रिंटेड टी शर्ट्स तैयार की जाती हैं। दरअसल दिखाने की कोशिश होती है कि हम फलां फलां के समर्थन मेें हैं।

फिलहाल एक और नया ट्रेड जोर पकड़ने लगा है। सोशल मीडिया पर डीपी के जरिए समर्थन दर्शाने का। अलग विचारधाराओं वाले लोग आपस में टकराते हैं। गाली-गलौज करते हैं। सियासत से बयानबाजी होती है। टीवी को टीआरपी के लिए मुद्दा मिलता है। अखबारों को फ्रंट पेज के लिए बैनर हेडलाइन मिलती है। फिर उसे अपनी अपनी समझ, अपने अपने हिमायती के अनुसार सजाया जाता है।

मीडिया में खबर आने के साथ ही सियासत के महारथी वोट बैंक के अनुरूप अपने बयानों का विश्लेषण करते हैं। कुल मिलाकर कितने सारे अवसर तलाश लिये जाते हैं सियासी फायदे के लिए, फेम के लिए फिर नाम तो खुद ब खुद लोगों के बीच पहुंच जाता है। हालांकि इस पूरे प्रकृम में कुछ नया नहींं होना। सारी आग वक्त के साथ धुएं में तब्दील होकर ठंडी हो जानी है ये तो एक दम तय है। लेकिन इस आग से असल में प्रभावित कौन होता है, कभी सोचा आपने। शायद नहीं। दरअसल गौर से सोचिएगा क्योंकि पूरा मुद्दा कहीं न कहीं हम सब से जुड़ा हुआ है।

जी हां भीड़ में ही छिपकर कुछ लोग भारत तेरे टुकड़े होंगे सरीखे नारे लगा जाते हैं, पाक की खातिर कश्मीर की आजादी के लिए भी जुगाली करने लगते हैं। आईएसआईएस के झंडों को दबे छिपे तौर पर लहराने में कामयाब हो जाते हैं। फिर जो भारतीयों के दिलों में पसरता है शायद उसे डर कहते हैं। डर अपनों को खो देने का, डर उम्मीदों से हाथ धो बैठने का, डर ख्वाबों के किसी स्याह सी रात में खो जाने का। पर कट्टरता के कारण ये डर सही वक्त पर दिखाई नहीं देता। सारी तस्वीर तब साफ होती है जब चारों तरफ मातम ही मातम पसरा होता है।

कभी इस सच से पर्दा उठाकर देखने की जहमत उठाई है कि कल का भारत और आज का इंडिया किस तरह से एक दूसरे से अलग है। शायद क्या बिलकुल भी नहीं। मरते- घिसटते हुए विकास हो रहा है, विकास के नाम पर अमीर और अमीर बनते जा रहे हैं। कभी कभी लगता है कि अमीरों को और अमीर बनाने का विकास है। ये बात राज्य सरकारों पर भी लागू होती है। उदाहरण के तौर पर यादव सिंह मामला देख लीजिए। हरीश रावत पर लगे उस आरोप से भी समझ लीजिए जिसमें जिक्र है पांच करोड़ का लालच देकर अपने खेमे में घसीटने का। बिहार में कत्लेआम की श्रंखला पर भी गौर कीजिएगा। कुल मिलाकर तमाम उदाहरण हैं जो सरकारों की कलई खोलते हैं।

हालांकि समझ में ये नहीं आता कि जब बजट है, योजनाएं हैं, जनता की खातिर खुद को जिम्मेदार बताने वाले तमाम सफेद पोशी हैं फिर भी विकास किसकी जेब से किसकी जेब में अटक जाता है। अगर केंद्र ईमानदार है तो राज्य की सरकारों के खेमें सवाल आ टिकता है और यदि राज्य ईमानदारी का दावा कर रहा है तो केंद्र ढ़ीलाहवाली कर रहा है। पर क्या करना इस बात से लोगों को। इन सारी बातों पर महज इंट्रेस्ट बजट के दौरान ही दिखाई देता है। फिर महंगाई…महंगाई के नारों के साथ सारी कारगुजारी जिंदा लाश बनकर रह जाती है।

ढ़कोसलों की वो आजादी न जाने क्यों भूख से मरते लोगों के बारें में नहीं सोच पाती, किसानों के हक के लिए न्याय की लंबी योजना उसके हलक में क्यों ही दफन हो जाती है, महंगाई से त्रस्त जनता के लिए उपाय की बजाए राजनीति में सक्रियता के लिए प्रयास किए जाते हैं। आज भी आधुनिकता से कई लोग रूबरू नहीं है उनके लिए कोई सार्थक पहल ये कथित आजादी के हिमायती क्यों नहीं करते। पिछड़े लोगों के लिए प्रयासों की फेहरिस्त में इनका योगदान क्यों नहीं नजर आता। तमाम सवाल हैं। लेकिन इन सवालों को भूलकर इन कॉन्सेप्ट कुमारों को, अंधेरेबाजों को, आजादी के कुमारों को हम और आप हीरो बना देते हैं।

कितना कुछ होकर हमारे सामने से ही गुजर जाता है पर हम मूक और बधिर अवस्था में कोने में पड़े रहते हैं। बयानबाजी हो या आंदोलन जो पूर्णतया उद्देश्यविहीन हैं वो भविष्य में सांप्रदायिक घटनाओं के लिए चिंगारी तैयार कर देते हैं। विवादों को बड़ा रूप देने के लिए जाति, धर्म सारे पहलुुओं की निगहबानी की जाती है। फिर वो परिभाषा जिसमें भारत को कुछ इस तरह से पेश किया जाता रहा है कि सभी मजहबों के लोग जहां सुख शांति के साथ मिलकर एक साथ रहते हैं उसे भारत कहते हैं…वो कहीं न कहीं बदली हुई लगती है। भारत का मतलब बदलने लगा है। जी हां ये मैं नहीं बल्कि समाज का एक बड़ा तबका कह रहा है। प्रयास कीजिएगा कि हम वो गीत गुनगुना सकें….ताकि जीता रहे अपना हिंदुस्तां।

हिमांशु तिवारी आत्मीय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here