जब मैं तुम्हारे संग हूँ !

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जब मैं तुम्हारे संग हूँ,
तब भी मैं कहाँ तुम्हारे साथ हूँ;
तुम्हारी संस्थागत सत्ता में रहते हुए भी,
मैं विश्व व्यापी व्यवस्था का परिद्रष्टा हूँ !

मेरे प्राण की फुहार केवल तुम तक नहीं रहती,
वह हर पल शून्य के गह्वर में विचर कर आती है;
तुम्हारे ढिंग सोया भी, मैं उसकी गोद में रमता हूँ,
तुम्हारी याद में खोया भी, जागरण के आलोक के स्वप्न संजोता हूँ !

तुम मुझे किन क्षुद्र नियमों विधानों में बाँधोगे,
मैं मोहन-विज्ञान के पँख निकाल निराकार से मिल आऊँगा;
बैठे बैठे उसके मर्म की कोई सगुण रचना लिख जाऊँगा,
और तुम्हारे जग में अलिप्त रहे लिप्त औ संयुक्त नज़र आऊँगा !

अनन्त आयामों की व्यवस्था मैं देख पाता हूँ,
स्थिर शिथिल देश काल पात्र की सीमाओं में कहाँ रह पाता हूँ;
सब सत्ताओं की सतर्कता से परे उसके शासन तंत्र में रमता हूँ,
बिना किसी इच्छा अनिच्छा उसके उर में दिए इशारों पर चलता हूँ !

मैं भैरव की भाँति शिव की ताल पर नृत्य करता हूँ,
श्याम की वाँशुरी सुन मुस्कराता हूँ;
ज्ञान विज्ञान की दुँदुभी सुनता हूँ,
नन्दन- विज्ञान के ‘मधु’ आनन्द की अनुभूति करता हूँ !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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