कहां गई डोली और कहां गए कहार

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-अनिल अनूप

दो कहार आगे और दो ही कहार पीछे अपने कंधो पर रखकर डोली में बैठने वाले को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते थे. थक जाने की स्थिति में सहयोगी कहार उनकी मदद भी करते थे.  इसके लिए मिलने वाले मेहनताने और इनाम इकराम से कहारों की जिंदगी की गाड़ी चलती थी. यह डोली आम तौर पर दो और नामों से जानी जाती रही है.

आम लोग इसे ‘डोली’ और खास लोग इसे ‘पालकी’ कहते थे, जबकि विद्वतजनों में इसे ‘शिविका’ नाम प्राप्त था. राजतंत्र में राजे रजवाड़े व जमींदार इसी पालकी से अपने इलाके के भ्रमण पर निकला करते थे. आगे आगे राजा की डोली और पीछे-पीछे उनके सैनिक व अन्य कर्मी पैदल चला करते थे.

कालांतर में इसी ‘डोली’ का प्रयोग शादी विवाद के अवसर पर दूल्हा-दूल्हन को ढोने की प्रमुख सवारी के रूप में होने लगा. उस समय आज की भांति न तो अच्छी सड़कें थीं और न ही यातायात के संसाधन. शादी विवाह में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी और दूल्हा-दूल्हन के लिए ‘डोली’ का चलन था. शेष बाराती पैदल चला करते थे.

जुदाई की इसी पीड़ा और मिलन की खुशी के बीच की कभी अहम कड़ी रही ‘डोली’ आज आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त सी हो गई है जो अब ढूढ़ने पर भी नहीं मिलती.

डोली प्रथा का इतिहास काफी पुराना है इतिहासकार इसे मुगलकाल की प्रथा बताते हैं. लेकिन सीतामढ़ी में डोली प्रथा का इतिहास धार्मिक व ऐतिहासिक है.  सीतामढ़ी में त्रेतायुग से डोली प्रथा की शुरूआत हुई थी. जनकपुर (नेपाल) में स्वयंवर में धनुष तोड़कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने मां सीता से शादी रचायी. शादी के बाद डोली से ही मां जानकी अपने ससुराल अयोध्या गई थी. मां का डोला पंथपाकर (बथनाहा) में रूका था.

एक समय था, जब यह डोली बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी. तब जब आज की भांति न चिकनी सड़कें थीं और न ही आधुनिक साधन. तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों में शुमार थी. इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था.

कई-कई गांवों में किसी एक व्यक्ति के पास डोली हुआ करती थी, जो शान की प्रतीक भी थी. शादी विवाह के मौकों पर लोगों को पहले से बुकिंग के आधार पर डोली बगैर किसी शुल्क के मुहैया होती थी. बस ढोने वाले कहारों को ही उनका मेहनताना देना पड़ता था.

यह ‘डोली’ कम वजनी लकड़ी के पटरों, पायों और लोहे के कीले के सहारे एक छोटे से कमरे के रूप में बनाई जाती थी. इसके दोनों तरफ के हिस्से खिड़की की तरह खुले होते थे. अंदर आराम के लिए गद्दे बिछाए जाते थे. ऊपर खोखले मजबूत बांस के हत्थे लगाए जाते थे, जिसे कंधों पर रखकर कहार ढोते थे.

प्रचलित परंपरा और रश्म के अनुसार शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी संबंधी महिलाएं डोल चढ़ाई रश्म के तहत बारी-बारी दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी. इसके बदले कहारों को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी. दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे.

इस बीच कई जगह रुक-रुक थकान मिटाते और जलपान करते कराते थे. इसी डोली से दूल्हे की परछन रस्म के साथ अन्य रस्में निभाई जाती थी. अगले दिन बरहार के रूप में रुकी बारात जब तीसरे दिन वापस लौटती थी, तब इस डोली में मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन बैठती थी और रोते हुए काफी दूर तक चली जाती थी. उसे हंसाने और अपनी थकान मिटाने के लिए कहार तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे.

विदा हुई दुल्हन की डोली जब गांवों से होकर गुजरती थी, तो महिलाएं और बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे.  घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे, जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे. समाज में एक-दूसरे के लिए अपार प्रेम झलकता था जो अब उसी डोली के साथ समाज से विदा हो चुका है.

डोली ढोते समय मजाक करते कहारों को राह चलती ग्रामीण महिलाएं जबाव भी खूब देती थीं, जिसे सुनकर रोती दुल्हन हंस देती थी.  दुल्हन की डोली जब उसके पीहर पहुंच जाती थी, तब एक रस्म निभाने के लिए कुछ दूर पहले डोली में दुल्हन के साथ दूल्हे को भी बैठा दिया जाता था. फिर उन्हें उतारने की भी रस्म निभाई जाती थी. इस अवसर पर कहारों को फिर पुरस्कार मिलता था.

यह भी उल्लेखनीय है कि ससुराल से जब यही दूल्हन मायके के लिए विदा होती थी, तब बड़ी डोली के बजाय खटोली (छोटी डोली) का प्रयोग होता था. खटोली के रूप में छोटी चारपाई को रस्सी के सहारे बांस में लटकाकर परदे से ढंक दिया जाता था. दुल्हन उसी में बैठाई जाती थी.  इसी से दुल्हन मायके जाती थी. ऐसा करके लोग अपनी शान बढ़ाते थे. जिस शादी में डोली नहीं होती थी, उसे बहुत ही हल्के में लिया जाता था.

तेजी से बदलकर आधुनिक हुए मौजूदा परिवेश में तमाम रीति-रिवाजों के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया. करीब तीन दशक से कहीं भी डोली देखने को नहीं मिली है. अत्याधुनिक लक्जरी गाड़ियों के आगे अब जहां एक ओर दूल्हा और दूल्हन डोली में बैठना नहीं चाहते, वहीं अब उसे ढोने वाले कहार भी नहीं मिलते.

ऐसा शायद इसलिए, क्योंकि अब मानसिक ताकत के आगे शारीरिक तकत हार सी गई है. दिनभर के रास्ते को विज्ञान ने कुछ ही मिनटों में सुलभ कर दिया है. वह भी अत्यधिक आरामदायक ढंग से.  ऐसे में डोली से कौन हिचकोले खाना चाहेगा. ..और कौन चंद इनाम व इकराम के लिए दिनभर बोझ से दबकर पसीना बहाते हुए हाफना चाहेगा.

कभी डोली ढोने का काम करते रहे 70 साल के सोहन, 60 साल के राम आसरे, 62 साल के मुन्नर और 60 साल के बरखू का कहना है कि अच्छा हुआ जो डोली बंद हो गई, वरना आज ढोने वाले ही नहीं मिलते. अब के लोगों को जितनी सुख सुविधाएं मिली हैं, उतने ही वे नाजुक भी हो गए हैं. ऐसे में डोली ही नहीं, तमाम अन्य साधनों व परंपराओं का अस्तित्व इतिहास बनना ही है.

कहार भारतवर्ष में हिन्दू धर्म को मानने वाली एक जाति है. यह जाति यहाँ हिन्दुओं के अतिरिक्त मुस्लिम व सिक्ख सम्प्रदाय में भी होती है. हिन्दू कहार जाति का इतिहास बहुत पुराना है जबकि मुस्लिम सिक्ख कहार बाद में बने. इस समुदाय के लोग बिहार, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही पाये जाते हैं.  कहार स्वयं को कश्यप नाम के एक अति प्राचीन हिन्दू ऋषि के गोत्र से उत्पन्न हुआ बतलाते हैं. इस कारण वे अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द कश्यप लगाने में गर्व अनुभव करते हैं. वैसे महाभारत के भिष्म पितामह की दुसरी माता सत्यवती एक धीवर(निषाद)पुत्री थी,मगध साम्राट बहुबली जरासंध महराज भी चंद्रवंशी क्षत्रिय ही थे! बिहार,झारखंड,पं.बंगाल,आसाम में इस समाज को चंद्रवंशी क्षत्रिय समाज कहते है. रवानी या रमानी चंद्रवंसी समाज या कहार जाति की उपजाति या शाखा है. यह भारत के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न नामों से पायी जाती है. श्रेणी:जाति”कहर” शब्द को खंडित कर कहार शब्द बना है. कहार का एक इतिहास रहा है. महाभारत काल मे जब भारत का क्षेत्र फल अखण्ड आर्यावर्त में हुआ करता था,उस समय डाकूओ का प्रचलन जोरो पर था,आज भी हमलोग देख सकते है,पर नाम बदलकर डाकू के जगह फ्रोड, जालसाज, घोटाले,छिनतई ने ले रखी है. खैर उस समय डाकुओ द्वरा दुल्हन की डोली के साथ जेवरात लूटना एक आम बात थी,लोग भयभीत थे,अइसे में कहर टीम का गठन किया गया था,डोली लुटेरों के रक्षा हेतुं, दुल्हन की डोली के साथ कहर टीम जाती थी और उनकी रक्षा करते हुवे मंजिल तक पहुँचते थे, आप सब ध्यान दे तो शादी की कार्ड पर डोली के आगे और पीछे तलवार लिए कुछ लोग की चित्रांकन देखने को मिलेगा, समय बीतता गया और शब्दों में परिवर्तन होता गया,कहर से कहार बन गया, कहर टीम को जब डोली के साथ जाना ही था,रोजगार और आर्थिक जरुरतो के पूर्ण के लिए कुछ लोग डोली भी खुद ही उठाने का निर्णय लिए थे यही इतिहास रहा है.  कहार को संस्कृत में ‘स्कंधहार ‘ कहते हैं….जिसका तात्पर्य होता है,जो अपने कंधे पर भार ढोता है…अब आप ‘डोली’ (पालकी) उठाना भी कह सकते हो…जोकि ज्यातर हमारे पुर्वज राजघराने की बहु-बेटी को डोली पे बिठाकर एक स्थान से दुसरे स्थान सुरक्षा के साथ वीहर-जंगलो व डाकुओ व राजाघरानें के दुश्मनों से बचाकर ले जाते थे…कर्म संबोधन कहार जाति कमजोर नहीं है…ये लोग अपनी बाहु-बल पे नाज करता है…और खुद को बिहार, झारखंड, प.बंगाल,आसाम में चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाना पसंद करते है…ये समाज जरासंध के वंसज़ है .

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  1. बिहार के मिथिलांचल में कहार को खतवे और चौपाल बोला जाता हैं ।

  2. छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में धमधा एक नगर है जहॉं आज भी कहार जाति के लागों को शादी ब्याह में डोली उठाने के लिए बुलाया जाता है जिसके लिए पहले से बुकिंग की जाती है। डोली को उठाने अन्य नगरों से कहारों को बुलाया जाता है। फिर शादी की रश्में निभायी जाती है। आज भी इस तरह छत्तीसगढ़ के कहार अपनी पहचान को जिंदा रखे हुए है।

  3. डोली का इतिहास सदियों पहले समाप्त हो गया जब राजा महाराजा हुआ करते थे उन्हीं की औकात थी डोली में बैठने की फिर तीन दशक से डोली दिखनी बंद हो गई बात हजम नही हूई। 60% आपकी बात सही है। बाकी तो फिल्मी काॅपी लगती है आपकी कहानी। जिसे फिल्मों ने अपने तरीके से ब्लेकवाईट के जमाने में जिंदा रखा। और जाति पर बात करूं तो कहार अछूत नही थे इसी बात से साबित होता है कि वो कश्यपऋषि के वंशज हैं। इसीलिए मुस्लिम होने का तो सवाल ही पैदा नही होता जिनका खान-पान जानवर हैं इसीलिए उनकी यात्रा का साधन भी जानवर हुआ करते थे उनके और मुस्लिम बना हुआ धर्म है इसमें कहार जाति होने को मै नही मानती और हिन्दू आस्था पर आधारित जिसने उसे माना उसने उसके नक्शे कदम पर चलना शुरू कर दिया मतलब जब इंसान प्राचीन काल में था।

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