ये कैसी स्वतंत्रता ?

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कीर्ति दीक्षित

 

अनुशासनहीन स्वतंत्रता कभी स्वतंत्रता का पर्याय हो ही नहीं सकती । एक ओर लांस नायक हनुमथप्पा इसी दिल्ली की धरती पर जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, दूसरी ओर देश की प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में उसी पाकिस्तान की शान में नारे लग रहे थे जिससे देश की रक्षा के लिए आए दिन भारतीय सेना के जवान अपने जीवन की आहुति देते हैं, भारत की धरती यदि बोल सकती तो बिलख बिलख कर रो पड़ती, लेकिन विडम्बना देखिए उसी भारत की राजनीति उन्ही लोगों के साथ खड़ी है जो आतंकियों को अपना आदर्श मानते हैं । जब देश में शहीद जवानों के शवों को सम्मान देना चाहिए तब इस देश का नेता देशद्रोही नारों के लिए खड़ा नजर आ रहा है । इस तरह के क्रियाकलाप सस्ती लोकप्रियता के सहज साध्य हैं, हमारे माननीय सांसद उनके पक्ष में खड़े हैं जिसने उसी संसद की अस्मिता पर गोले बरसाए थे जिसकी अस्मिता की रक्षा हेतु वे शपथबद्ध हैं, ऐसे में उन नियन्ताओं को स्वयं में झांक कर देखना चाहिए कि वे किस पक्ष में खड़े है । विश्वविद्यालय में देश विरोधी कार्यक्रम पर विपक्ष की प्रतिक्रियाएं हैरान करने वाली हैं, क्या देश में राजनीति इस हद तक गिर चुकी है ।

आज सम्पूर्ण विश्व आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन की दाह से दग्ध हो रहा है, भारत से भी इसके सम्पर्क सूत्र सामने आए ऐसे में क्या किसी भी देशविरोधी गतिविधि को नजरअंदाज करना सुरक्षित है ?  रही बात विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की तो किसी भी संस्थान की स्वायत्तता को इस प्रकार की छूट नहीं दी जा सकती कि राष्ट्रविरोधी नारों से आकाश गूँजता रहे और सरकार देखती सुनती रहे । लोगों का तर्क है जेएनयू में ये कुछ नया नहीं है यहां मतभिन्नता को स्वतंत्रता से रखने की पूर्ण आजादी है तब तो ये कतई आवश्यक नहीं जो गलतियां इतिहास करता चला आ रहा है वर्तमान भी उसी पर कायम रहे । यदि वास्तविकता में आजादी का ये स्वरूप है तो ऐसी आजादी की सीमाएं निर्धारित करना देश की एकता अखण्डता के लिए अनिवार्य है, विशेषतः विद्यालयों विश्वविद्यालयों के स्तर पर क्योंकि ये ही भारत के अग्रिम भविष्य हैं, यदि इनमें ही राष्ट्र के प्रति समर्पण के भाव नहीं होंगे तो क्या होगा भारत का भविष्य ये आप स्वयं तय करिए ।

दूसरा तर्क है कि विश्वविद्यालय की छवि नष्ट हो रही है, क्योंकि यहां पढ़ने आने वाला प्रत्येक छात्र ऐसी गतिविधियों का हिस्सा नहीं, बेशक ये सत्य है किन्तु एक मछली सारे तालाब को गन्दा करती है तो ऐसे में आवश्यक है इन मछलियों को निकाल फेका जाए न कि उन्हें संरक्षण दिया जाए । यदि जेएनयू में इस तरह की शक्तियां पोषित हो रहीं हैं तो निश्चित ही जेएनयू को स्वअन्वेषण करना चाहिए कि आखिर किस प्रकार की शिक्षा युवाओं को दी जा  रही है ।

कुछ लोगों का ये भी मानना है कि हम स्वतंत्र समाज में रह रहे हैं, ऐसे में ऐसी कार्रवाइयां स्वतंत्रता का हनन हैं। स्वतंत्रता के अधिकार के विषय में प्रचलित है कि अहस्तक्षेप का क्षेत्र जितना विस्तृत होगा उतनी ही मेरी स्वतंत्रता होगी किन्तु जब स्वतंत्रत उदण्डता से लेकर द्रोह तक के मानकों छूने लगे तब उस पर नकेल आवश्यक है । मनुष्य भी पाशविक प्रवृत्ति लेकर जन्म लेता है किन्तु अनुशासन के माध्यम से उसे सामाजिक दायित्वों एवं कर्त्तव्यों का वहन करना सीखाया जाता है। अक्सर हम संवैधानिक अधिकारों की बात तो करते हैं किन्तु कर्त्तव्यों को हाशिए पर छोड़ देते हैं जबकि हम अधिकारों का भोग तभी करने योग्य हैं जब हम अपने कर्त्तव्यों का  सम्मान के साथ निर्वहन करें चाहे वे कर्त्तव्य देश के प्रति हों समाज के प्रति हों या फिर परिवार के प्रति । हम तो कर्तव्यों एवं मर्यादाओं वाले देश की माटी से बने लोग हैं अधिकारों के नाम पर राष्ट्र का निरादर करना कबसे सीख गये । और यदि उन छात्रों की आजादी मानक यही हैं तो जाइये एक बार पाकिस्तान सीमा पर और देखिए आपकी आजादी की कीमत कौन चुका रहा है । सुरक्षित परिसरों में बैठकर देश को गालियां देना सहज है।

2 COMMENTS

  1. जरुरत इस बात की है कि पश्चिमी देशों की तरह सैनिक सेवा अनिवार्य की जाये व सभी विधार्थियों व नागरिकों के लिए यह बाध्य हो तब मोर्चे पर जा कर इन्हे पता चलेगा कि स्वतंत्रता क्या होती है यदि वे लोग इतने असंतुष्ट हैं और उन्हें पाक अच्छा लगता है तो वे वहां क्यों नहीं चले जाते ,

    • mahendra ji paschimi deshon ki trah kyon, hmare desh ki shiksha vyawastha baki deshon se adhik shashkt rahi hai, paschimi deshon ko padh padhkar hi ye haal hai..but ye kehna aaj ke kaal me bhagwakaran, dalit virodhi mana jata hai.. ab upaj dekhiye jis desh me rastra par mar mitane ki parampara ki shikshha di jati thi aaj us desh ka shikshhak varg hi aajdi ke naam par droh ke paksh me khade najar aa rhe hain.

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