बुंदेलों की सरज़मी की बदकिस्मती के लिए जिम्मेदार कौन?

– अखिलेश आर्येन्दु

”बुंदेलों हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।” जिन बुंदेलों की वीरगाथाओं की कहानियां, दंत कथाएं और गाथाएं देश में ही नही विदेशों में भी बड़े चाव से सुनी जाती हैं, उन बुंदेलों के इलाके में आज चारों तरफ हाहाकार मचा है। महज मजदूर किसानों की हालात ही नाजुक नहीं है, कल कारखाने, व्यापार और दूसरे आय के साधनों का भी अकाल पड़ा है। लोग घर-बार छोड़कर देश के बड़े-मझोले शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसी त्रासदी कुछ सालों में नहीं आई बल्कि पिछले 15 सालों से लाखों की तादाद में लोग अपने पुस्तैनी घर-बार छोड़कर रोजगार की तलाश में दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, भोपाल, इंदौर और देश के तमाम दूसरे शहरों की तरफ आए हैं। ‘मरता क्या न करता’ वाली बात बुंदेलखंड के लोगों के साथ हू-ब-हू चरितार्थ होती देखी जा सकती है।

बुंदेलखंड में 90 प्रतिशत से ज्यादा लोगों की जीविका का साधन कृषि है। कल कारखानों की तादाद न के बराबर है। पिछले छह सालों से लगातार सूखे की स्थिति होने की वजह से जिंदगी बसर का जरिया खेती-किसानी की हालत बदहाल हो चुकी है। जिन किसानों के पास पानी के साधन के रूप में पंपिंग सेट और ट्यूबवेल हैं उनकी हालात भी बहुत अच्छी नहीं है क्योंकि पाताल के पानी का लेबल नीचे चला गया है। इसलिए पानी की किल्लत को लेकर हर कोई परेशान है। इस बड़े इलाके के ज्यादातर मजदूर किसानों की हालत इतनी गईबीती हो चुकी है कि लोगों को तीनों वक्त का खाना भी ठीक से मयस्सर नहीं हो पाता है। सैकड़ों की तादाद में मवेशी चारे-पानी के बगैर दम तोड़ चुके हैं। बहुत से बच्चे कुपोषण का शिकार हो अपनी जीवन लीला खत्म कर चुके हैं। बहुत से घरों की स्त्रियों के तन पर पूरे कपड़े तक नहीं नसीब होते। हालत यह हो गई है कि कोई किसी को कर्ज देन- लेने की हालत में भी नहीं रह गया है। लंबे अर्से से बरसात न होने से बारह महीने खेतों में धूल उड़ती है और जगह-जगह दरारें दिखाई पड़ती हैं।

इस इलाके की त्रासदी को लेकर पिछले पच्चीस-तीस सालों से राजनीतिक पार्टियां राजनीति करती आ रही हैं। इसकी खास वजह यह भी है कि इस बड़े इलाके में कोई एक भी ऐसा नेता नहीं हुआ कि इसकी भलाई के लिए सच्चे मन से कोशिश करता। अर्से से इस बड़े इलाके को, जिनमें मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, टिकमगढ़, सागर, दमोह और पन्ना तथा उत्तर प्रदेश के हमीरपुर, झांसी, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा और ललितपुर जिले शामिल हैं, को मिलाकर एक अलग प्रांत बनाने की मांग भी उठती रही है। एक या दो बार उत्तर प्रदेश सरकार चुनाव के मौके पर वोट हथियाने के लिए अलग राज्य बनाने जैसा दिखावटी प्रस्ताव भी राज्य की विधानसभा से पास करके केंद्र सरकार के पास भेजा, लेकिन यह सब महज एक ओछी राजनीति का एक हिस्सा भर साबित हुआ। वैसे भी इस इलाके का विकास अलग राज्य बन जाने से भी नहीं होगा, क्योंकि जो समस्याएं हैं वे अलग तरह की हैं, जिसे यदि राज्य और केंद्र सरकार सच्चे मन से दूर करना चाहे तभी हो सकती है।

बुंदेलखंड इलाके की एक समृद्ध संस्कृति और पहचान है। कृषि संस्कृति की जो अलग और सबसे बेहतर अदा हो सकती है, यहां देखी जा सकती है। इस कृषि यानी लोक संस्कृति की खास अदा यह है कि जिंदगी यहां बहुत मासूमियत और चुलबुलाती हुई आगे बढ़ती है। लोगों को उनके योगक्षेम के लिए अन्न पैदा हो जाए, और फिर उनकी मौज-मस्ती देखते ही बनती है। ‘आल्हाखंड’ की रचना यहीं पर जगनिक ने शताब्दियों पहले की थी जिसे लोग बड़े चाव से गाते, गुनगुनाते और नृत्य में ढालते चले आ रहे हैं। पर नाच गाना तभी अच्छा लगता है जब पेट में अन्न हो। ‘भूखे भजन न होय गोपाला, ले लो अपनी कंठी माला।’ पेट में भूख की आग जलती हो, दुधमुंहें भूख के मारे छटपटा कर दम तोड़ रहे हों, महिलाएं कई दिनों तक भूखों रहने के लिए मजबूर हों, ऐसे में भला कैसे धैर्य जबाब नहीं दे जाएगा? और धैर्य का सब्र पिछले पांच सालों से लगातार टूटता आ रहा है जिसकी वजह से इस इलाके के 60 लाख से ज्यादा किसान और लाखों मजदूर अपने घर-बार छोड़ कर देश के अनेक शहरों में पलायन कर चुके हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल की आंतरिक समिति की रपट की बात मानें तो टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश ) से अब तक 5 लाख 89 हजार 371, झांसी जिले से 5 लाख 58 हजार 377, ललितपुर से 3 लाख 81 हजार 316, हमीरपुर से 4 लाख 17 हजार 489, चित्रकूट से 3 लाख 44 हजार 801, जालौन से 5 लाख 38 हजार 147, बांदा से 7 लाख 37 हजार 920, छतरपुर से 7 लाख 66 हजार 809, सागर से 8 लाख 49 हजार 148, महोबा से 2 लाख 97 हजार 547, दतिया से 2 लाख 901, पन्ना से 2 लाख 56 हजार 270, दमोह से 2 लाख 70 हजार 477 किसानों का पलायन अब तक हो चुका है। बुंदेलखंड की बदहाली का हाल जानने के लिए जिस केंद्रीय समिति का गठन पिछले साल हुआ था उसकी रपट प्रधानमंत्री तक पहुंच चुकी है। रपट में अलग से बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के गठन की बात कही गई है। रपट में यह भी अनुशंसा की गई है कि इस इलाके के लिए 8 हजार करोड़ के पैकेज दिए जाएं। इनमें उत्तर प्रदेश के सात जिलों के लिए 3866 करोड़ और मध्य प्रदेश के छह जिलों के लिए 4310 करोड़ के पैकेज दिए जाने की सिफ़ारिश की गई है। जिस समिति ने इस इलाके के लिए इतनी बड़ी रकम की सिफ़ारिश की है उस समिति में केंद्र के जल संसाधन विभाग, नेशनल रैन पेड एरिया ऍथारिटी के सीईओ, केंद्रीय ग्रामीण विकास विभाग, पशुपालन विभाग और कृषि एवं सहकारिता विभाग के प्रतिनिधि शामिल थे। इस इलाके का संतुलित विकास कैसे हो इसके लिए केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, बेतवा नदी पर बांध का निर्माण, उद्योगों की स्थापना के लिए सेंट्रल एक्साइज, आयकर एक्साइज एवं कस्टम तथा सर्विसेज टैक्स में शत प्रतिशत छूट देने की बात भी रपट में कही गई है। बुंदेलखंड का यह विरान इलाका कभी हरा-भरा और खुशहाल था। लेकिन उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश की सरकारों ने इसके साथ जो सौतेला व्यवहार किया तथा कुदरत ने भी अपनी नज़र जब से इधर से हटाई जिससे इसके दुर्दिन आने लगे, और अब तो इसकी हालत उड़ीसा के कालाहांडी इलाके की तरहहोती जा रही है। मध्य प्रदेश के जो इलाके बुंदेलखंड में आते हैं वे उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके से कहीं ज्यादा खस्ताहाल हैं। इन इलाकों में पानी की ऐसी भयावहता है कि मवेशी क्या इंसान को भी साफ पानी पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। पिछले सात सालों से यहां बीजेपी की सरकार है। सरकार यह दावा करते नहीं थकती कि उसके शासन काल में मध्य प्रदेश का हर इलाका खुश हाली की तरफ बढ़ा है और हर स्तर पर विकास भी हुआ है। लेकिन देखा जाए तो यह महज फाइलों की गणित के अलावा और कुछ नहीं है। दरअसल बुंदेलखंड की इस त्रासदी की एक नहीं तमाम वजहें हैं। बिना इन सभी को गहराई से समझे इस इलाके की त्रासदी के लिए कोई भी बड़ा सा बड़ा पैकेज इसके दुर्दिन से निजात नहीं दिला सकता। इस इलाके की त्रासदी देखकर लगता है जैसे यह महज भगवान के भरोसे है, और वह ऐसा ही चाहता है। लेकिन क्या भगवान भरोसे या नियति मानकर इस इलाके की त्रासदी से नजर हटा लेनी चाहिए। राज्य सरकार के बर्ताव से तो ऐसा ही लगता है। इस इलाके से छूता पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हर जिला आर्थिक रूप से संपन्न है। लेकिन बरेली जैसे जिलों को छोड़ दें तो बुंदेलखंड के दूसरे सभी जिले इतने विपन्न हैं कि लगता ही नहीं ये जिले उत्तर प्रदेश के ही हैं। बुंदेलखंड अपनी त्रासदी पर चार-चार आंसू बहा रहा है और इन आंसुओं को पाेंछने वाला एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं दिखाई पड़ता जो वोटों की राजनीति से ऊपर उठकर इसकी बदहाली को दूर करने के लिए सिद्दत से कोशिश कर रहा हो। मौजूदा राज्य सरकार इसकी बदहाली के लिए केंद्र के सौतेले व्यवहार की बात कर रही है, तो केंद्र सरकार का यह आरोप कि केंद्र से आवंटित धन जो राज्य के विकास के लिए खर्च होना चाहिए वह मायावती की सरकार पूरे राज्य में मूर्तिकरण में खर्च कर रही है। बात काफी हद तक सही भी दिखाई पड़ रही है। राज्य सरकार की एक बड़ी रकम जो राज्य की खुशहाली लाने वाली योजनाओं के लागू करने और विकास में खर्च होना चाहिए था वह मायावती की महिमामंडन और ऐतिहासिक बनने की अदम्य चाह में खर्च हो रहा है। वैसे तो पूरे राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन बुंदेलखंड के ज्यादातर इलाकों में राहजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या और आतंक पिछले कई सालों से कहीं ज्यादा ही बढ़ गया है। यह राज्य के खस्ताहाल प्रशासन की देन नही ंतो क्या कहा जाएगा? अब एक बड़ा सवाल यह है बुंदेलों की सरज़मी की किस्मत कब तक अंधेरे में गुप्प रहेगी ? और लोगों को भूखों मरने और अपने घर-बार छोड़कर मजबूरी में रोजगार के लिए बाहर जाने से कभी छुटकारा मिलेगा भी या नहीं, इसे कौन बताएगा ? क्या इनके अच्छे दिन भी आएंगे कि नहीं? मौजूदा सरकारी कोशिशों से तो जल्द हालात सुधरने के आसार बहुत कम दिखार्द दे रहे हैं।

* लेखक, अनुसंधानक, साहित्यकार और समाजसेवी है।

1 COMMENT

  1. बुंदेलखंड की स्तिथि वाकई चिंताजनक है. अखिलेश जी बिलकुल सही कह रहे है.
    अँधा बांटे रेवाड़ी …….. …….. …….. दे.

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