कौन पढ़े, कौन पढ़ाए?

 

DEO PRAKASH
देव प्रकाश चौधरी

मध्याह्न्न भोजन में फंसे शिक्षक ! उधार के भवन में चलते स्कूल! कहीं-कहीं बिना किसी शिक्षक के लगती कक्षाएं। नई-नई सरकारी योजनाओं को ढोते फाइल! और दीवारों पर सब पढ़े -सब बढ़ें जैसे नारे!

झारखंड पढ़ रहा है। आगे बढ़ रहा है। सरकारी रिपोर्ट कहती है, पिछले 12 सालों में प्राथमिक विद्यालयों और उच्च विद्यालयों में छात्रों की संख्या दोगुनी हुई है। पढ़ने वाले बच्चे और बच्चियां कितना आगे बढ़े हैं? सवाल किसी सरकारी अफसर से करें तो आंकड़ों के पैंतरे से वह आपको निरूत्तर कर देंगे। यही सवाल अगर किसी शिक्षक से करें तो उसके चेहरे की विस्मयाधिबोधक मुस्कान आपको फिर एक नया सवाल पूछने के लिए बाध्य कर देगा। यही सवाल अगर झारखंड के किसी सुदुर देहात के किसी घर में आप किसी बड़े से करें तो फिर आपको पता चलेगा कि कौन आगे बढ़ रहा है। कौन पढ़ रहा है और किसका स्कूल छूट जा रहा है।

करोड़ों की खर्च के बाद भी जिस राज्य में बच्चों को समय पर किताबें नहीं मिल पा रहीं हों, वहां शायद यह पूछना बेमानी सा लगता है कि आखिर कुछ क्लास पढ़कर आदिवासी और संताल लड़कियां अपना स्कूल क्यों छौड़ देती हैं। संताल परगना के दुमका जिले में शिक्षा विभाग में नौकरी कर रहे अनुग्रह नारायण झा मुझे कुछ इस तरह समझाते हैं-” शिक्षकों पर गैर शैक्षणिक कार्यों का काफी बोझ है. मध्याह्न् भोजन से शिक्षकों को अलग नहीं किया जा सका है. अपनी मांगों को लेकर राज्य के 80 हजार पारा शिक्षक कई बार हड़ताल कर चुके हैं। राज्य के मध्य विद्यालयों में प्रधानाध्यापक के 90 फीसदी पद खाली हैं। ”

a school from deoghar districtआंकड़ों के इस रस्मी उदाहरण पर मैं कुछ सोच पाता, उससे पहले झा एक दूसरा दर्द सुनाते हैं-” शिक्षक पढ़ाएंगे तो बच्चे पढ़ेगे। लेकिन एक जान और बहत्तर काम।” बात समझ से उपर जा रही थी तो झा ने विस्तार से कुछ-कुछ सरकारी भाषा में बताना शुरु किया-” राज्य के प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ने के प्रमुख कारण निम्न हैं मध्याह्न्न भोजन में फंसे शिक्षक। अदालत के आदेश के बावजूद राज्य में शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यो में लगाया जा रहा है। राज्य के 40 हजार स्कूलों के 45 लाख बच्चों को मध्याह्न् भोजन दिया जाता है। कागज पर इसकी जिम्मेदारी सरस्वती वाहिनी को दी गयी है, पर इसका पूरा लेखा-जोखा शिक्षक को रखना होता है। किसी तरह की गड़बड़ी होने पर शिक्षक ही जिम्मेदार होते हैं। ”

झा के पास आंकड़ों की कमी नहीं। लेकिन मेरे पास वक्त कम था और मुझे एनएफआई के इस फैलोशिप के दौरान देवघर जिले के बारे में भी कुछ जानकारियां जुटानी थीं।

वहां से लगभग साढ़े तीन घंटे के सफर के बाद में देवघर पहुंचा। वहां मेरी मुलाकात हुई रिटायर्ड स्कूल इंस्पेक्टर डी. के. यादव से। सरकारी व्यवस्था और आंकड़ों के चलते-फिरते बैंक।

बात राज्य में शिक्षा के स्तर को लेकर शुरु हुई तो वे लगभग उबल पड़े-” झारखंड को बने लगभग 12 साल हो गए। इन 12 सालों में 12 सालों में इंटरमीडिएट की पढ़ाई को डिग्री कॉलेजों से अलग नहीं किया जा सका है। जबकि यूजीसी के निर्देशानुसार अन्य राज्यों ने यह काम कर लिया है।इंटर की पढ़ाई अलग नहीं होने के कारण विद्यार्थियों का पाठ्यक्रम पूरा नहीं हो पता है। डिग्री कॉलेजों में वर्ष में 180 दिन पढ़ाई होती है, जबकि इंटर का पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए कम से कम 220 दिनों की पढ़ाई अनिवार्य है। नतीजा यह है कि छह सालों में इंटर के नतीजे 50 फीसदी या इससे नीचे रहे हैं। ”

ये तो नतीजे की बात हुई, लेकिन उनके पास और भी चौंकाने वाले आंकड़े हैं-“राज्य के 230 प्लस टू स्कूलों में से 171 में प्रयोगशाला नहीं है। पुस्तकालय तो कहीं नहीं है। जहां प्रयोगशाला है, वहां उपकरण और रसायन नहीं हैं। प्रयोगशाला सहायक नहीं हैं। प्रयोगशाला के लिए किसी तरह के बजट का प्रावधान नहीं है। राज्य के 59 प्लस टू स्कूलों का न तो अपना भवन है, न ही संसाधन. यहां के उच्च विद्यालय के भवन में ही प्लस टू की पढ़ाई होती है। ”

झारखंड में शिक्षा का ये वह चेहरा था, जिसके बारे में मैं पढ़ता तो रहा था, पहली बार सुना और महसूस किया। देवघर के रोहिणी इलाके में रहने वाले डी. के. यादव के पड़ोस में पिछली बार 17 लड़कों ने इंटर की परीक्षा दी थी, मात्र 4 पास हुए थे। दर्द पड़ोस से उठा था,राज्य के आंकड़े जुटते देर नहीं लगी।

वहीं राजकपूर महतो मिले। शिक्षक बनना चाहते थे। अब एक दल के नेता हैं। एक एनजीओ भी चलाते हैं। शिक्षा की दुर्दशा को लेकर बताते के लिए उनके पास भी कुछ कम नहीं था। उनका मानना था कि शिक्षक हैं कहां, जो पढ़ाएंगे. जब शहर और कस्बों में ये हाल है तो गांव की खुद सोच लीजिए। बातों का असर नहीं होते देख, वह कागजी प्रमाण के साथ उतर आए। एक अखबार का टुकड़ा उनके पास था-“प्राथमिक से लेकर प्लस टू उच्च विद्यालय तक शिक्षकों के 60 हजार से अधिक पद खाली हैं। राजकीय व प्रोजेक्ट उच्च विद्यालयों में 25 वर्ष से नियुक्ति नहीं हुई. 7,900 राजकीयकृत उच्च विद्यालयों में 12 वर्ष में केवल एक बार शिक्षक नियुक्ति हुई। 1223 अपग्रेड उच्च विद्यालयों में एक भी शिक्षक नहीं हैं। प्लस टू उच्च विद्यालयों में मात्र आठ विषयों के शिक्षकों के पद सृजित हैं।”

बात स्कूलों पर चली तो मुझे मॉडल स्कूल के बारे में ख्याल आया। वर्ष 2011 में राज्य में 40 मॉडल स्कूल खोले गये थे। विद्यालय को केंद्रीय विद्यालय की तर्ज पर खोला गया था। इसमें अंगरेजी माध्यम से पढ़ाई होती है। विद्यालय में अनुबंध के आधार पर गणित, विज्ञान व सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षक नियुक्त किये थे। अब क्या हाल है। जवाब के लिए राजकपूर महतो और डी.के. यादव दोनों तैयार थे। जवाब दिया यादव जी ने-” वर्ष 2011 में 40 मॉडल स्कूल खोले गये थे। स्कूलों का अपना भवन नहीं है। तीन विषय के ही शिक्षक हैं। और अब फिर से 49 स्कूलों में पढ़ाई शुरू करने की योजना है सरकार की। शिक्षकों की नियुक्ति वर्ष 2011 में जून-जुलाई में की गयी थी। एक वर्ष से शिक्षकों को मानदेय नहीं मिला है। प्रति कक्षा 120 रुपये के हिसाब से शिक्षकों को मानदेय देना है. उवि के शिक्षक ही मॉडल स्कूल में कक्षा लेते हैं।”

मॉ़डल स्कूल की इस दशा से शिक्षा की जो तस्वीर उभरी, उससे कहीं किसी किस्म की खुशी तो नहीं झलकती दिखाई देती। मैं देवघर से आगे मधुपुर की तरफ बढ़ रहा था। रास्ते में सर्व शिक्षा अभियान के तहत बने कई स्कूल दिखाई दिए। शाम हो चली थी। किसी भी स्कूल में रोशनी नहीं। हां, सौर उर्जा से जलने वाले बल्व के यंत्र जरूर कहीं-कहीं नजर आए। उन्हीं स्कूलों में से एक में टिमटिमाती हुई रोशनी में दीवाल पर पेंसिल के दोनों छोर पर झूलते हुए दो बच्चे नजर आए। यह सर्व शिक्षा अभियान का लोगो है। नीचे लिखा हुआ था-“सब पढ़ें, सब बढ़ें।”

(एनएफआई फैलोशिप के तहत रिसर्च रिपोर्ट)

1 COMMENT

  1. केवल झारखण्ड की ही यह हालत नहीं है,सभी राज्यों में कमोबेश यही हाल है.यह तो पुरे कुंए में ही भंग पड़ी हुए है.इन हालात में हम शिक्षा के स्तर गिरने की बात और करते हैं.जब इस तरह पढाई होगी तो कहाँ अछे स्तर के बच्चे आयेंगे?

Leave a Reply to MAHENDRA GUPTA Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here