आधुनिक भारत के मंदिरों की रक्षा कौन करेगा ?

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श्रीराम तिवारी

वर्तमान २१ वीं शताब्दी के इस प्रथम दशक की समाप्ति पर वैश्विक परिदृश्य जिन्ह मूल्यों ,अभिलाषाओं और जन-मानस की सामूहिक हित कारिणी आकांक्षाओं – जनक्रांतियों के लिए मचल रहा है ,वे विगत २० वीं शतब्दी के ७०वें दशक में सम्पन्न तत्कालीन शीत युद्धोत्तर काल के जन -आन्दोलनों की पुनरावृति भर हैं .तब सोवियत व्यवस्था के स्वर्णिम प्रकाशपुंज ने एक तिहाई दुनिया को महान अक्टूबर क्रांति के मानवतावादी मूल्यों से अभिप्रेरित करते हुए सामंतवाद और पूंजीवाद को पस्त करने में आश्चर्यजनक क सफलता हासिल की थी . वियतनाम में महाशक्ति अमेरिका का मानमर्दन हो चुका था.कामरेड हो-चिन्ह-मिन्ह के नेतृत्व में वियेतनाम के नौजवानों, किसानो और मजदूरों ने अमेरिका से चले उस भीषण युद्ध में न केवल विजय हासिल की थी; बल्कि मार्क्सवाद -लेनिनवाद -सर्वहारा अंतर राष्ट्रीयतावाद का परचम फहराकर दुनिया भर के श्रमसंघों ,मेहनतकशों ,मजूरों ,किसानो और साक्षर युवाओं को नयी रौशनी -नई सुबह से रूबरू कराया था. लेकिन अमेरिका ने इस हार को वाटरलू के रूप में लेने से इंकार कर दिया था. सोवियत-क्रांति को विफल करने के दिन तक वो चैन से नहीं बैठा .क्रेमलिन में येल्तसिन रुपी विभीषण ने उसके इस दिवास्वप्न को साकार करने में अवर्णनीय सहयोग किया था .

पूंजीवादी व्यवस्था और साम्यवादी व्यवस्थों में द्वंदात्मक संघर्ष के परिणाम स्वरूप तीसरी दुनिया के जनमानस में सर्वहारा- क्रांती की ललक हिलोर लेने लगी थी.तत्कालीन पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने सोवियत-क्रांति और उसके दुनियावी प्रभाव से आतंकित होकर ;अमेरिका समेत तमाम पूंजीवादी मुल्कों को नई गाइडलाइन दी कि वे अपने-अपने मुल्कों में अपने तई श्रमिक वर्ग को ,किसानो को कुछ लालच दें ,कुछ जन-कल्याण के नाम पर ,देश की स्वतंत्रता-प्रभुता के नाम पर ,मजहब -धरम के नाम पर और दीगर -आग -लूघर के नाम पर सरकारी कोष से जनता के वंचित-वर्गों को देने दिलाने का स्वांग या नाटक करें. भारत समेत तीसरी दुनिया ने भी इन चोंचलों का अनुगमन किया जिससे उन्हें तत्कालीन जन-आंदोलनों को दबाने में महती कामयाबी मिली भी .इस जन-कल्याणकारी राज्य के नाम पर किये गए पारमार्थिक खर्चों के लिए एक ओर तो जनता से विभिन्न टेक्सों के रूप में धन वसूली की जाती रही. फिर उसमें से बकौल स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी के अनुसार- १५ पैसा जनता तक पहुँचता है और ८५ पैसा राजनीति के शिखर से होता हुआ -नौकरशाही ,राजनीतिज्ञों ,ठेकेदारों और पूंजीपतियों में बँट जाता है. सरकारी क्षेत्रों और सार्वजानिक क्षेत्र में यह एक तथ्यात्मक सच्चाई है कि सोवियत-पराभव के उपरान्त एक ध्रुवीय -विश्वव्यवस्था के परिणामस्वरूप रातों-रात यह जन -कल्याणकारी राज्य का कांसेप्ट निरस्त क र दिया गया .क्योंकि पूंजीवाद को अब किसी का डर नहीं था ,कोई चुनौती देने वाला नहीं रहा .हालाँकि नवस्वतंत्र राष्ट्रों ने अमेरिकी झांसे में आने कि कोई जल्दी नहीं दिखाई .इसीलिये पाश्चात्य आर्थिक संकट का अखिल भूमंडलीकरण होने में देर हो रही है .

पूंजीवादी देशों ने खास तौर से भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों ने उन क्षेत्रों में जहाँ पूंजीपति निवेश से बचते थे वहां जनता के पैसे से देश की तरक्की में गतिशीलता के वास्ते सार्वजनिक उपक्रमों का निर्माण कराया .चूँकि रक्षा बैंक बीमा ,दूर संचार ,खनन और सेवा क्षेत्र में तब प्रारंभिक लागतों के लिए पूँजी की विरलता और उस पर मुनाफे की गारंटी के अभाव में निजी क्षेत्र से लेकर हवाई जहाज तक -सब कुछ विदेश से मंगाना और इसे खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा का अभाव होना , इत्यादि कारणों से भारत के तत्कलीन नेत्रत्व ने वैज्ञानिक अनुसंधानों ,श्रम शक्ति प्रयोजनों और आधारभूत संरचना के निमित इन केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा किया था .तब सरकार पर जनता की जन आकांक्षा की पूर्ती का भी दबाव था- कि अब तो देश आजाद है…अब लाओ -रोटी -कपडा और मकान… हमने आपको देश का मालिक बना दिया…आ प हमें कम से कम मजूरी या रोजगार ही प्रदान करने कि कृपा करें ……तब सरकारों कि गरज थी ,इसीलिये केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम- नवरत्न -महारत्न खड़े किये थे .अब इन सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में कौड़ी मोल बेचा जा रहा है भारी कमीशनबाजी हुई .क्योंकि अब पूंजीवादी नव्य उदारवादी आर्थिक नीतियों का प्रोस्पेक्ट्स तीव्रता से लागू किये जाने का आदेश वहीं से आ रहा है ,जहाँ से जन –क्रांतियों‚ को दबाने के निमित्त जन -कल्याणकारी कार्ययोजना जारी की गई थी .इन नीतियों और कार्यक्रमों के नियामक नियंता एम् एन सी या विश्व बैंक के कर्ता-धर्ता ही नहीं बल्कि वे नाटो से लेकर पेंटागन तक और G -20 से लेकर सुरक्षा परिषद् तक काबिज हैं .

भले ही इन सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने अपनी गरज से बनाया था किन्तु अब जनता कि गरज है सो इसे बचाने के लिए आगे आये .मैं किसी क्रांति का आह्वान नहीं कर रहा .मैं सिर्फ ये निवेदन कर रहा हूँ कि जो लोग इस ध्वंसात्मक प्रक्रिया में शामिल थे या हैं उन्हें और उनके नीति निर्धारकों को आइन्दा वोट की ताकत से सत्ताच्युत किया जा सकता है .इतना तो बिना किसी उत्पात ,विप्लव या खून-खराबे के किया ही जा सकता है .यह सर्व विदित है {सिर्फ डॉ मनमोहनसिंह जी ,श्री प्रणव जी ,श्री मोंटेकसिंह जी को नहीं मालूम } कि भारतीय अर्थव्यवस्था यदि अमेरिका प्रणीत आर्थिक महामंदी कि चपेट में नहीं आयी तो इसके लिए देश का सार्वजनिक क्षेत्र .कृषि निर्भरता और बचत कि परंपरागत प्रवृत्ति ही जिम्मेदार है .विगत २० सालों से देश में मनमोहनसिंह जी के मार्फ़त उक्त सार्वजनिक क्षेत्र ध्वंसात्मक नीतियों पर जो र लगाया जाता रहा है .इसमें एन डी ए कि आर्थिक नीतियां भी शामिल हैं ,क्योंकि उनकी कोई नीति नहीं है सो मनमोहनसिंह अर्थात पूंजीवादी नीति को १९९९से२००४ तक उन्ही आर्थिक सुधारों को तवज्जो दी गई जो स्व. नरसिम्हाराव के कार्यकाल में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहनसिंह जी लाये थे .वे अमेरिका से सिर्फ यह एंटी-नेशनल वित्तीय-वायरस ही नहीं अपितु भारत में अमीरों को और अमीर बनाने और गरीवों-किसानो ं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का इंतजाम भी साथ लाये थे .आजादी के फौरन बाद टेलिकाम क्षेत्र में कोई भी पूंजीपति आना नहीं चाहता था क्योंकि तब आधारभूत संरचना कि लागत अधिक और मुनाफा कम था .विगत ५० सालों में जब देश कि जनता और दूरसंचार विभाग के मजदूर कर्मचरियों ने कमाऊ विभाग बना कर तैयार कर दिया तो देशी विदेशी पूंजीपतियों ,दलालों की लार टपकने लगी. बना बनाया नेटवर्क फ्री फ़ोकट में देश के दुश्मनों तक पहुंचा दिया .भारत संचार निगम को कंगाल बना कर रख दिया .एस -बेन्ड स्पेक्ट्रम हो या टु-जी थ्री -जी सभी कुछ दूर संचार विभाग से छीनकर उन कम्पनियों को दे दिया जिनकी न्यूनतम अहर्ताएं भी लाइसेंस के निमित्त अधूरी थी .कुछ के तो पंजीयन भी संदेहास्पद पाए गए हैं .

तथाकथित नई दूरसंचार नीति के नाम पर जितना भ्रष्टाचार हुआ उतना सम्भवत विगत ६० सालों में अन्य शेष विभागों का समेकित भ्रुष्टाचार भी बराबरी पर नहीं आता .पहले तो इस नई टेलीकाम पालिसी के तहत दूर संचार विभाग के तीन टुकड़े किये गए -एक -विदेश संचार निगम जो कि रातों रात टाटा को दे दिया .दो -एम् टी एन एल बना कर अधमरा छोड़ दिया .तीन भारत संचार निगम बनाकर -{यह पवित्र काम एन डी ए कि अटल सरकार के सम�¤ ¯ हुआ था और स्व प्रमोद महाजन जी इस के प्रणेता थे ]राजाओं ,रादियाओं ,कनिमोजिओं ,बिलालों ,स्वानों ,भेड़ियों को चरने के लिए छोड़ दिया .दूर संचार विभाग के १९९९ से ए राजा तक जितने भी मंत्री रहे हैं वे सभी महाभ्रष्ट थे.यह स्वभाविक है कि बोर्ड स्तर का अधिकारी भी भृष्ट ही होगा और चूँकि यह भृष्टाचार कि गंगा उपर से नाचे आनी ही थी, सो आ गई …अब भारत संचार निगम या अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को बीमार घोषित कर इसकी संपदा भी इसी तरह ओने पौने दामों पर देशी विदेशी दलालों को बेचीं जाने बाली है .नई आर्थिक नीति के निहतार्थ यही हैं कि सब कुछ निजी कर दो लेकिन भारत कि जनता है कि सरकारी में ही आस्था लिए डटी हुई है .२८ जुलाई -२००८ को यु पी ए प्रथम की सरकार से जब १-२-३-एटमी करार के विरोध में लेफ्ट ने समर्थन वापिस लिया था तब ,तब नोटों कि ताकत से समर्थन जुटाने वाले हमारे विद्द्वान प्रधान मंत्री जी ने भवातिरेक में कहा था -अब कोई अड़चन नहीं ,वाम का कांटा दूर हो गया …अब सब कुछ बदल डालूँगा ….. अब सब कुछ बेच दूंगा ….देशी विदेशी पूंजीपतियों को सप्रेम भेंट कर दूंगा ….क्यों कि अमिरीकी लाबी ने ठानी है …नेहरु चाचा कि हर एक निशानी मिटानी है .यही कारण है कि जब भूंख से बिलखते गरीबों को मुफ्त अनाज {जो गोदामों में सड़ रहा है }देने कि सुप्रीम कोर्ट ने सलाह दी तो केद्र सरकार ने सलाह को हवा में उड़ा दिया और अब न्याय पालिका को नसीहत दी जा रही है कि हद में रहो …खेर देश कि जनता का भरोसा अभी भी सार्वजनिक उपक्रमों पर बना हुआ है यही एक राहत कि बात है …

आज भी बीमा क्षेत्र में ८० % एल आई सी पर ही भारतीयों को भरोसा है .६० %लोगों को राष्ट्रीयकृत बैंकों के काम काज पर भरोसा है और इसी तरह बेसिक दूरभाष -ब्राडबेंड -लीज्ड सर्किट इत्यादि में ८० %लोगों को भारत संचार निगम लिमिटेड पर भरोसा है .सिर्फ मोबाइल में निजी क्षेत्र इसीलिये आगे बढ़ गया क्योंकि १९९९ में ही मोबाइल क्षेत्र के लाइसेंस सिर्फ निजी क्षेत्र को दिए गए थे ,क्योकि इसी में भारी रिश्‍वत और पार्टी फंड कि गुंजाइश थी बी एस एन एल ई यु ने ,वर्तमान दौर के सूचना और संचार माध्यमों ने ,सुप्रीम कोर्ट ने ,सुब्रमन्यम स्वामी ने ,प्रशांत भूषन ने अलख जगाई थी कि देश कि संचार व्यवस्था को बर्बाद किया जा रहा है ,भारी भ्रष्टाचार कि भी लेफ्ट ने कई बार चेतावनी दी थी .मजेदार बात ये भी है कि जो भाजपा और एन डी ए भी २-g ,स्पेक्ट्रम मामले में और विभाग को तीन टुकड़े करके बेचने के मामले में गुनाहगार है उसी ने देश कि संसद नहीं चलने दी .इसे कहते हैं चोरी और सेना जोरी .कांग्रेस ने तो मानों गठबंधन सरकार चलाने कि एवज में देश को ही खतरे में डाल दिया है और न केवल खतरे में अपितु पवित्र भारत भूमि को भ्रुष्टाचार कि गटर गंगा में ही डुबो दिया है …देश कि जनता को सार्वजानिक क्षेत्र कि चिंता करने कि फुर्सत नहीं क्योंकि उसे-बाबाओं ने, गुरु घंटालों ने , जात -धरम .क्रिकेट,मंदिर -मस्जिद भाषा और भ्रष्टाचार की बीमारियों से अशक्त बना डाला है .अब इससे से पहले कि कोई विराट जन आन्दोलन खडा हो ,पूंजीवादी निजामों द्वारा कुछ नई तिकड़म बिठाये जाने के उपक्रम किये जाने वाले हैं किन्तु ये तय है कि देश के सार्वजानिक उपक्रमों को सरकारी या जनता के नियंत्रण से छीनकर निजी हाथों में दिए जाने से तश्वीर और बदरंग होती चली जायेगी .टेलिकॉम सेक्टर में सेवाएं तभी तक सस्तीं हैं जब तक सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों कि बाजार में उपस्थिति है जिस दिन बी एस एन एल या एम् टी एन एल नहीं रहेगा तब निजी क्षेत्र कि दरें क्या होंगी ?इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब १९९९ से २००५ तक मोबाइल क्षेत्र में सिर्फ निजी आपरेटर थे तो वे ने केवेल आउटगोइंग बल्कि इन कमिंग कालों के प्रति मिनिट १० से १६ रुपया तक वसूल करते थे .यही बात बैंक बीमा एल पी जी स्टील ,सीमेंट ,कोयला या बिजली क्षेत्र में दृष्टव्य है .इसीलिये सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने के लिए उसके कर्मचारियों को भी अपनी कार्य शैली में बदलाव लाना होगा .जनता को भी इन उपक्रमों की हिफाजत इस रूप में करना चाहिए कि ये स्वतंत्र भारत के वास्तविक पूजास्थल हैं .जैसा कि पंडित नेहरु ने १९५६ में संसद में कहा था .

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  1. मैने कुछ भी मनगढंत नही लिखा है. सब कुछ घटनाओ एवम साक्ष्यो पर आधारित है.

    1. “अमेरिका प्रतिक है चर्च नियंत्रित साम्राज्यवाद का.”
    अमेरिकी सरकार एवम उनके राजनयिक खुले रुप से चर्च हितो के लिए काम करते हैं. देखे अंतरजाल पर उपलब्ध उनकी घोषित नीतियां

    2. ” बिलायत, योरुप एवम अष्ट्रेलिया एक महा-राष्ट्र है. सोवियत संघ के पतन के बाद वैश्विक व्यवस्थाओ पर इनका दबदबा है.”
    इराक के विरुद्ध सैनिक गठबंधन एवम वर्तमान विश्व की घट्नाएं प्रयाप्त आधार है इसे प्रमाणित करने के.

    3. “भारत का भी वही हाल है. मोबाईल फोन (टेलेकाम) तथा हवाई यात्रा (उडयन व्यवसाय) हमारी समृद्धि को उस महाराष्ट्र को पहुंचाने क उपक्रम बन कर रह गई है. भारत की सत्ता पर बैठी सरकार निरंतर वह काम कर रही है जिससे भारत गरीबी के दलदल मे धकेला जाता रहे”
    क्या मैने जो कहा है वह सत्य नही है.

    4. “अब उस दुष्ट प्रवृति वाले महाराष्ट्र से टक्कर लेने की क्षमता सिर्फ साम्यवाद के पास शेष है. ”
    भारत मे क्रांती के लिए संघर्षरत अन्य शक्तिया शांतिपुर्ण रुप से काम कर रही हैं. भारत मे हिसा के प्रयोग मे साम्यवाद आगे है. अतः मुझे लगता है एक हिंसक शक्ति से टक्कर लेने के लिए दुसरी हिंसक शक्ति की आवश्यकता रहती है.

    5. ” लेकिन दुखः की बात यह है की साम्यवादी मुखौटो मे ही अमेरिकी भेडिए भी छुपे बैठे है. वह साम्यवाद को अमेरिकी हित मे परिचालित करते रहते है.” भारत की सोनिया की सरकार ने नेपाल मे साम्यवादीयो एवम माओवादीयो को सत्ता पर बैथाने मे सहयोग किया लेकिन सता प्राप्त होने के बाद वह भारत के सबसे बडे विरोधी बन बैठे है. नपाल मे माओवादीयो एवम संयुक्त राष्ट्र संघ के शांती मिसन मे सांठगांठ स्पष्ट हो चुकी है. भारत मे अरुंधती राय जैसे लोग चर्च, माओवाद, अंग्रेजी साहित्य आदि पर एक साथ काम कर रहे है.

  2. तिवारी जी साहिब अब तो हद हो गयी.मार्क्स और आस्तिकता यह मेरे लिए एक नईजानकारी है..ऐसे भगत सिंह ज़िंदा रहते तो मार्क्स पर कितना अटल रहते यह तो नहीं कहा जा सकता ,पर वे जिस युग में जीवित थे उस समय के युवकों को मार्क्स वाद की और आकर्षित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी,क्योंकि रुसी क्रांति और सोवियत संघ की स्थापना हुए अभी कोई ख़ास वक्त नहीं गुजरा था.मार्क्सवाद की कमियां तो बाद में उजागर हुयी अतः शहीदेआजम का उदाहरण यहाँ कोई मानी नहीं रखता.,ऐसे धर्म और चर्च के बारे में मार्क्स का जो ख्याल था वह तो जिसने भी मार्क्स को थोडा भी पढ़ा होगा उसको ज्ञात होगा.ऐसे कुतर्क के लिए तो कुछ भी लिखा और कहा जा सकता है.मार्क्स का यह बहुत प्रसिद्द कथन है की ईश्वर तो है नहीं पर अगर वह होता भी तो चर्च के पुजारी को भी मालूम है की वह चर्च में नहीं आता..मार्क्स ईश्वर और धर्म को अफीम से ज्यादा खतरनाक जहर मानते थे.
    एक बात और.मुझे तिवारीजी से पहले भी बहुत मार्क्सवादियों से पाला पड चूका है अतः उनका तर्क और कुतर्क भी मुझे मालूम है.इसलिए अपनी ओर से मैं इस चर्चा को बंद कर रहा हूँ .रह गयी वह बात जहां से चर्चा आरंभ हुई थी.मैं किसी भी सार्वजनिक प्रतिष्ठान या उद्योग को ऐसा पवित्र नहीं मानता की उसको तथाकथित मंदिर माना जाये.उद्योग को उद्योग के रूप में लेना ही ठीक है.उद्योग है तो उससे लाभ होना भी आवश्यक है.कोई भी व्यापार उसको चलाने वाले पर बोझ नहीं होना चाहिए और सार्वजनिक उद्योगों के बारे में तो यह और ज्यादा आवश्यक है क्योकि यह जनता का उद्योग है ओर इसका बोझ भी गरीब जनता को ही उठाना पड़ता है.अतः इसको लाभकारी बनाने के लिए अगर कुछ किया जा रहा है तो उसमे मीन मेख निकालने के बदले उसको और लाभकारी बनाने के लिए सलाह देनी चाहिए. इसके साथ ही विज्ञ पाठकों से क्षमा याचना के साथ मैं इस प्रसंग से बिदा लेता हूँ.

  3. आदरणीय सिंह साहब .आपको बहुत सारी गलत फहमियां हैं जिनका आपको सत्यान्वेषण करना चाहिए .
    एक -आपने किस लाल किताब में लिखा हुआ पढ़ा है कि मार्क्सवादी धर्म में आस्था नहीं रखते.अब लिख लो कि दुनिया में जो सच्चा मानवतावादी है वही सच्चा
    आस्तिक है ,और एक सच्चा मार्क्सवादी ही सच्चा धार्मिक हो सकता है .
    दो -मेने कब और कहाँ कहा कि मैं मार्क्सवादी हूँ ?दरसल मार्क्सवादी हो जाने कि मेरी हैसियत नहीं ,क्योंकि एक मार्क्सवादी या साम्यवादी शहीदे आजम भगत सिंह कि तरह देश और दुनिया के सर्वहारा के लिए अपने प्राण हथेली पर लेकर घर द्वार सब कुछ छोड़ देता है.mera chasma vaisa नहीं jaisa आपने laga rakha है वास्तव मैं सच यही है कि मैं सच्चाई का समर्थक हूँ;चूँकि कम्युनिस्ट ईमानदार हैं सो मैं उनका प्रशंशक हूँ .अभी तजा खबर है कि भारत के तमाम मुख्यमंत्रियों में सबसे ज्यादा पैसे वाली माया में साब हैं और सबसे कम पैसे वाले कौन मुख्यमंत्री हैं यह मैं नहीं likhta aap swym अपने sootro se या r.t.i के marfat pata karen .

  4. तिवारी जी आप पहले अपना लाल चश्मा उतारिये तब आपको दिखेगा की पूंजी वाद और मार्क्सवाद के परे भी कोई चीज है.ऐसे आपने एक आलेख में मेरी टिपण्णी के सन्दर्भ में पुराणके किसी कथा का जिक्र किया है.फिर आगे आपने गांधीजी का भी उल्लेख किया है.मैं समझता हूँ की दोनों जगहों के श्री राम तिवारी जी एक ही है. इसीलिए वहां के सन्दर्भ में अगर यही मैं कुछ लिख दूं तो आपको बुरा नहीं लगना चाहिए.जहाँ तक पुराण का सम्बन्ध है मेरे लिए उसका महत्व एक उपन्यास का है.अगर आप मार्क्सवादी हैं तो आपके लिए भी उसका महत्व वही होना चाहिए था,क्योंकि मेरे विचार से मार्क्सवाद किसी मजहब या धर्म या इश्वर को नहीं मानता .दूसरा जिक्र महात्मा गाँधी का भी है.यह भी आपके मार्क्सवादी विचार धरा से मेल नहीं खाता. पर मैं आपको यह बतलाना चाहूँगा की गांधीवाद की तरह ही बहुत सी विचार धाराएं हैं जो मार्क्सवाद और पूंजीवाद से हटकर हैं अतः आपका यह कहना की जो मार्क्स वाद और पूंजी वाद से नहीं बंधा है उसकी कोई अपनी विचार धारा ही नहीं या तो आपका अल्पज्ञान दर्शाता है या यह आपके लाल चश्मे का दोष है जिसमे दो रंगों के सिवा और कुछ दीखता ही नहीं.ऐसे तो मैं हिन्दुस्तानी मार्क्सवादियों को रंगा सियार कहता हूँ क्योंकि एक तरफ तो वे अपने को मार्क्सवादी कहते हैं दूसरी और मंदिरों मस्जिदों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में भी बाज नहीं आते.बंगाल के दुर्गा पूजा में तो उनका उत्साह देखते ही बनता है.ऐसे आप जैसे लोग मेरे जैसो को बाध्य कर देते हैं की आपको आपके असली रूप की पहचान करा दी जाये.मैं अब वहां अपनी टिपण्णी दुहराना नहीं चाहता इसलिए यह भी कह दूं की मैं सचमुच में दिशा विहीन हो गया हूँ क्योंकि मार्क्स वाद या पूंजी वाद मेरी दृष्टि में मानवों के समस्या का समाधान करने में असफल रहा है .गांधीवाद से थोड़ी आशा बंधती है तो वह इतनी व्यक्तिगत इमानदारी खोजता है की उस पर चलना ही लोगों को कठिन लगता है.ऐसे इस उम्र में भी मैं अपने को एक विद्यार्थी ही मानता हूँ और आज भी उस पथ की खोज में हूँ जो मानवता को कायम रखते हुए मानवों को विकास की और ले जाये.

  5. आदरणीय सिंह साहब जी जिसे आप स्वछंदता कहते हैं ;हिन्दी में उसका अर्थ होता है कि कोई एक सिद्धांत नहीं ,जहां जी में जो आये मुहं मारते रहो .इस स्वछंदता को स्वतंत्रता का नाम देकर उसकी तौहीन मत करो .यदि पूंजीवाद और साम्यवाद के दो विपरीत ध्रुवों के मध्य तीसरा ध्रुव जबरन स्थापित करोगे तो भी परिणाम तटस्थता ही आएगा.जिसके बारे में श्री रामधारीसिंह
    दिनकर ने कहा है .
    समर शेष है ,निशा शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध .
    जो तटस्थ हैं ,समय लिखेगा उनका भी इतिहास ……

  6. तिवारी जी आप क्यों चाहते हैं की मैं बार बार कुछ लिखू?किसी एक रंग पर टिपण्णी करने के लिए किसी दूसरे रंग में रंगा होना आवश्यक है क्या? तिवारीजी आप जैसे लोग यह शायद ही समझ पायें की स्वतंत्र विचार धारा भी एक चीज होती है.यह कतई आवश्यक नहीं की मार्क्सवाद की बुराई करने वाला पूंजीवादी ही होगा.रह गयी किसी के विचारों के खंडन मंडन की बात तो यह तो प्रवक्ता की खासियत है की यहाँ सब स्वच्छंद रूप से बे रोक टोक अपने विचार प्रकट कर सकते हैं. आप शायद भूल गए जब क्रुद्ध होकर कुछ लोगों ने प्रवक्ता छोड़ने की धमकी दी थी तो प्रवक्ता के संपादक ने क्या लिखा था?यह अलग बात है की सम्पादक का सुझाव उनके गले नहीं उतरा और वे लोग फिलहाल प्रवक्ता से किनारा किये हुयें है.आपसे केवल यही अनुरोध है की मेरे जैसे लोगों को किसी रंग में रंगने की कोशिश मत कीजिये.हम योही अच्छे है.जहां तक पाखण्ड के मुल्लमें का प्रश्न है तो मेरी कोशिश तो यह रहती है की मैं अपने विचार साफ साफ़ व्यक्त करूं पर अगर इसमे आपको पाखंड नजर आता है तो शायद यह आपके लाल चश्मे का दोष है.

  7. आदरणीय सिंह साहब .नमस्कार,
    आपने द्वारा कष्ट उठाया ;शुक्रिया .आपने मुझे किसी खास रंग में देखा उसका आभार किन्तु ये बताने की जरुरत नहीं थी कि आपका तो कोई भी रंग नहीं है ,और जिसका कोई रंग न हो वो किसी और के रंग पर टिप्पणी करे यह न्याय संगत है क्या ? वैसे आप जैसे विद्वानों को किसी विचार या दर्शन का खंडन -मंडन का नैतिक अधिकार नहीं है ,फिर भी आप ऐसा कर रहे हैं इसका आशय है कि आपका भी कोई तो द्रष्टिकोण है याने विचारधारा है फिर आप अपने अनुभवों पर पाखण्ड का मुलम्मा चढाने को इतने अधीर क्यों हो रहे हैं .

  8. तिवारीजी आपने मुझे विवश कर दिया की मैं दुबारा टिपण्णी करू.आपने लिखा है की मैंने आपका आलेख नहीं पढ़ा .आपको मैं बता दूं की मैं बिना आलेख पढ़े टिपण्णी नहीं करता अगर मैं वैसा करता तो मैं ऐसा लिख देता.एक बार ही मैंने ऐसा किया था और अब मैंने लिखा था मैं बिना लेख पढ़े टिपण्णी कर रहा हूँ.ऐसे आप जैसे एक रंग में रंगे तथाकथित विद्वानों के आलेखों पर भी बिना पढ़े टिपण्णी की जा सकती है,पर मैं वैसा करता नहीं हाँ कभी वैसा करने की आवश्यकता पड़ी तो मैं वैसा लिख कर तब टिपण्णी करूँगा..अब मैं अगली पंक्तियों में आपके एक एक पैराग्राफ कोलेता हूँ.
    पहले पैरा में आपने शब्दजाल द्वारा इक्कीसवी सदी के लिए जिस आदर्श पर चलने की सलाह दी है और जिस दसक का आपने हवाला दिया है उस समय सोविअत संघ चरमरा रहा था और टूटने के कगार पर था.मिश्र के कपास आने बंद हो गए थे.बाजार में बेचने के लिएऔर उससे आवश्यकता की वस्तुएं खरीदने के लिए सोने की कमी हो गयी थी.तेल मौजूद था,पर सोवियत संघ के शासको को पता चल गया था की इससे भी ज्यादा दिनों तक बुनियादी चीजों जिनमे खाद्यान भी शामिल था उसकी आपूर्ति नहीं की जा सकती.लोगों को खाने के लाले पड़ने वाले थे,तब जाकर सोवियत संघ को अपनी नीति त्यागनी पड़ी थी.अगर आप ये कहे की यह पूंजी पति देशों की चाल थी और वे सफल हो गए तब भी सोवियत नीति की कमजोरियां ही सामने आती है जो उनको धरासाई कर गयी.विभीषण भी वही पैदा होते हैं जहां अनितियाँ या खामियां होती है.फिर आज कैसे उस युग को आदर्श मान कर आगे बढ़ा जा सकता है?हो ची मिंह अपने देश के लिया लड़ा और उसने कुछ हासिल भी किया पर आज का वियतनाम कहाँ तक उसके बताये रास्ते पर चल रहा है यह आपको भी मालूम है.जर्मनी का उदाहरण भी आपके सामने है.पश्चिम और पूर्वी जर्मनी के आर्थिक स्थिति में कितना फर्क था यह बताने की जरूरत है क्या?
    अब आपके आलेख के दूसरे और तीसरे पैराग्राफ को मैं एक साथ लेता हूँ.क्योकि उन दोनों पैरा ग्राफों में केवल लुभावने शब्दजाल हैं.भारत बनाम इंडिया के भ्रष्टाचार को किसी वाद से कुछ लेना देना नहीं है.अगर भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवश्था की देन होती तो पूंजीवादी देश ज्यादा भ्रष्ट होते पर ऐसा है नहीं .मैंने लिखा है की हमारी मिश्रित अर्थ व्यवस्था केवल अमेरिका और रूस दोनों को एक साथ खुश रखने केलिए थी .उसका अन्य किसी नीति से लेना देना नहीं था.अगर उद्योगों का राष्ट्रीयकरण जनता की भलाई के लिए था तो अशोक होटल और एयर इंडिया के राष्ट्रीयकरण का क्या औचित्य था?टैक्सों से धन वसूली जाती रही और शासक वर्ग के आमोद प्रमोद के लिए इस्तेमाल होते रहे,इसमे भी हमारी दोगली नीतियां ही कारण बनी.सरकार का काम कृषि और उद्योग चलाना नहीं है.उसके लिए निजी व्यवस्था ही सर्वोपरि है.सरकार का काम उनपर अंकुश रखना है.
    रह गयी नेहरू चाचा के निशानी की बात तो उस पर ज्यादा भावुक होने की आवश्यकता नहीं है.नेहरू चाचा की निशानियाँ तो उनके वंशज है.अन्य सब निशानियों में जहां भी उनकी छाप दिखती हैं वहां ज्यादातर खामियां ही नजर आएँगी.सार्वजनिक क्षेत्रों में जनता की भागीदारी पर मैंने पहले लिख दिया है अतः दुहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता .
    अब मैं अंतिम बात पर आता हूँ.आपके मार्क्स भी आज के सन्दर्भ में उदाहरानिये नहीं हैं.उनके सिद्धांत की खामियां भी सामने आ चुकी है.उन्होंने जिस वर्ग संघर्ष के माध्यम से अपने सिद्द्धान्तों का ताना बाना बुना था वह भी यथार्थ की कसौटी पर गलत साबित हो चूका है.पर इस पर फिर कभी.
    मेरे इन्ही विचारों के कारण आपका यह पूरा आलेख मुझे वकवास लगा था और वही मैंने लिखा था.
    अंत मैं एक बात कहना चाहूँगा की मेरे रूसियों के साथ बहुत नजदीकी व्यापारिक सम्बन्ध रहे हैं इसीलिए उनकी कथनी और करनी का फर्क मुझे मालूम है.यह बात और है की मैं अमेरिका से बाहर की अमेरिकन नीति का भी कभी समर्थक नहीं रहा.

  9. हिमवंत जी आपकी अवधारणा किन घटनाओं या साक्ष्यों से निर्धारित है ?द्वंदात्मक स्थिति एक आयामी नहीं होती .जिस तरह से धरती सूर्य का चक्कर लगाने के साथ -साथ ,स्वयम भी अपनी ही काल्पनिक धुरी पर घूमती है .उसी तरह संघर्षशील दोनों पक्ष अर्थात शोषण करने वाले और शोषित होने वाले जहां अपने वर्ग शत्रु से द्वंदरत होते हैं ,वहीं दूसरी तरफ स्वयम इन वर्गों की आंतरिक वुनावट में द्वंदात्मकता के जीवाणु विद्यमान हुआ करते हैं जो देश -काल -परिस्थितियों से खाद पानी पाकर आंतरिक द्वंद में अपनी उर्जा व्यय किया करते हैं .
    इसका एक सरलतम उदाहरण भारत पकिस्तान का द्वन्द है .दोनों लगातार संघर्ष के क्षेत्र में आमने सामने हैं किन्तु दोनों के ही अन्दर भयंकर आंतरिक संघर्ष की ज्वाला धधक रही है . साम्यवादी -जनतांत्रिक क्रांतियों के विफल होने से निराश होने की आवश्यकता नहीं और सर्वहारा की कतारों में गद्दारों की मौजूदगी कोई आकस्मिक अनहोनी नहीं है ,मानवीय स्वभाव और लोभ के प्रभाव में भूलें -चूकें होतीं रहना स्वाभाविक है .हिम्वंत्जी आपने आलेख पढ़ा ,टिप्पणी की आपका शुक्रिया .

  10. अमेरिका प्रतिक है चर्च नियंत्रित साम्राज्यवाद का. बिलायत, योरुप एवम अष्ट्रेलिया एक महा-राष्ट्र है. सोवियत संघ के पतन के बाद वैश्विक व्यवस्थाओ पर इनका दबदबा है. तीसरी दुनियां के देशो पर इनके दलाल सत्ता पर विराजमान है. भारत का भी वही हाल है. मोबाईल फोन (टेलेकाम) तथा हवाई यात्रा (उडयन व्यवसाय) हमारी समृद्धि को उस महाराष्ट्र को पहुंचाने क उपक्रम बन कर रह गई है. भारत की सत्ता पर बैठी सरकार निरंतर वह काम कर रही है जिससे भारत गरीबी के दलदल मे धकेला जाता रहे.

    अब उस दुष्ट प्रवृति वाले महाराष्ट्र से टक्कर लेने की क्षमता सिर्फ साम्यवाद के पास शेष है. लेकिन दुखः की बात यह है की साम्यवादी मुखौटो मे ही अमेरिकी भेडिए भी छुपे बैठे है. वह साम्यवाद को अमेरिकी हित मे परिचालित करते रहते है.

  11. सम्माननीय आर सिंह जी आपने मेरा आलेख पूरा नहीं पढ़ा ,जो आपने लिख मारा वो तो मेरे आलेख का उपसंहार है ,लगता है कि आपको भारतीय राष्ट्रीय उद्द्य्मोंसे बैर भाव है .किन्तु ये बैर भाव -दलालों ,अमेरिकी बगुला भक्तों और पूंजीपति लुटेरों को हीशोभा देता है .आप इनमें से क्या हैं मुझे नहीं मालूम किन्तु इतना दावे से कह सकता हूँ कि आपकि खोपड़ी में भी सिर्फ सोवियत संघ के विरोध का अन्धासुर विराजमान है ,उसे बाहर निकालिए और ईमानदारी से मेरे आलेख को एक बार और पढ़िए …आपको तो सौजन्यता का भी ज्ञान नहीं है वो भी सीखिए ….धन्यवाद ….

  12. तिवारीजी मैंने आपकी बकवास ज़रा देर से पढ़ी इसलिए टिपण्णी करने में भी थोड़ी देर लगी. आप के लेख को देख कर तो ऐसा भान होता है की सब अच्छाइयां सोविएत संघ में सिमट कर रह गयी और सब बुराईयाँ दूसरों में आ गयी.सोविएत का साम्यवाद हो या अमेरिका का पूंजीवाद ,दोनों वादों का एक ही उद्देश्य है,इत्तर लोगों को लूटना.मैं तो सोविएत के लूट का साक्षी रहा हूँ और उन सोवियत भाइयों को बहुत नजदीक से देखा है जो भिलाई में भारतीयों को मालिक ,एच.ई.सी. रांची में दोस्त और बोकारो में गुलाम समझने लगे थे.यह नेहरू और उन जैसे अंगरेजी रंग में रंगे और सोवियत के प्रचार से प्रभावित लोगों के ही अदुर्दर्शिता का परिणाम था,जिसके चलते भारत का वह संविधान बना जिससे भारतीयता ही गायबहो गयी .जहां गाँधी का नारा था की ग्राम विकास करो.गाँव से शहर की और बढ़ो वहाँ हम आजादी मिलते ही गाँव को भूल गए.सोविएत संघ और अमेरिका दोनों को एक साथ खुश रखने के लिए हमने मिश्रित विकास योजना बनाई .आपलोगों में जो भी इन कालमों में लिख रहे हैं उनमे शायद ही किसी ने उन दिनों के सार्वजनिक संस्थाओं के प्रवंधन या दुस्प्रवंधन को देखा हो.क्या नजारा था.उद्योग घाटे में चल रहे हैं .प्रवन्धक , अन्य बाबू,नेता और मंत्री गण गुलछर्रे उड़ा रहे हैं.घाटे की आपूर्ति कौन कर रहा है? सरकार यानि जनता. जो पैसा अन्य जन कल्याण कार्यों में जाना चाहिए था वह इन सफ़ेद हाथियों के पोषण में खर्च हो रहा था.आज हालात कुछ बदल गएँ क्यों की उन्हें प्रतिस्प्रधा का सामना करना पड़ रहा है और सरकारे भी ऐसी आगई हैं जो इन्हें सफ़ेद हाथी के रूप में उन्हें पालने को तैयार नहीं हैं.आज आप सब हल्ला मचा रहे हैं की इन कंपनियों को बेचा जा रहा है.कभी आप लोगों ने इसके तह में जाकर देखा है इसका मतलब क्या है?यहाँ कुछ नहीं हो रहा है.केवल इन कम्पनियों का आधार बड़ा किया जा रहा है,जिससे जो भागीदार बने उनके प्रति ये प्रवन्धक अपनी जिम्मेवारी समझे और सरकार के पास भी कुछ पैसे आजायें जिन्हें वह जन कल्याण के लिए खर्च कर सके.हम लोगों में से बहुत तो सर्वप्रथम इन पहलुओं को समझते नहीं ,जो समझते हैं उनमेसे भी बहुत लोग इसके बारे या तो चुप रहना पसंद करते हैं या मौका देख अपनी राय देते हैं.इस दूसरे श्रेणी में भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों को रखता हूँ,क्योंकि इनकी पार्टी शुरू से ही उस औद्योगिक निति की समर्थक रही है जो अब कांग्रेस ने अपना ली है,फिर भी वे लोग बहुधा इन कालमों में इसके बारे में चुप ही नजर आते हैं.मुखर केवल वे लोग हैं जो १९९० के पहले के सोवियत नीतियों के पुजारी हैं और जिन नीतियों का आज के सन्दर्भ में कोई महत्व ही नहीं है क्योंकि उन नीतियों पर न आज रूस चल रहा है न चीन.अगर सच्च पूछा जाये तो भारत के निर्माण के लिए अभी भी जरूरत है की गाँव की और लौटा जाये और विकास की दिशा बदल कर उसे ग्रामोन्मुख किया जाये.

  13. भाई हरपाल जी का शुक्रिया .की आलेख पढ़ा और उत्साह वर्धन किया ,प्रवक्ता .कॉम का अनन्य शुक्रिया कि आलेख प्रकाशित किया …

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