उस कठोर कठिन श्राप-सी शाम के बाद भी
मेरे ख़यालों में स्वर-लहरी बनी
कितनी सरलता से चली आती हो, पर
जब भी आती हो तुम…
तुम इतना दर्द बन कर क्यूँ आती हो ?
हर प्रात व्यथित, हर शाम उदास,
साँसों के तारों को मानो
घुन लग गया हो,
दर्द ठंडी मोम की तरह
ह्रद्य में जम कर, जमा रह जाता है,
और जब बहता है तो अविरत
बहता चला आता है,
मेरी रगों में बसा
अनिवारित अपशकुन-सा समा जाता है ।
दर्द –
जो तुम्हारी यादों के स्पंदन से उत्तेजित
अचानक थरथरा उठता है
और अगले ही क्षण निष्पंद खड़ा
सूखी मिट्टी के बुत-सा
तनिक ठेस लगते ही निढाल गिर जाता है ।
सारे संकल्प चूर हो जाते हैं
कोई अंधियाली हवा
कुचली हुई आकांक्षाओं को बटोरती
कण-कण को उड़ा ले जाती है,
और उतावली-सी, अगले ही क्षण
दर्द का सघन बवन्डर बनी
लौट आती है पास मेरे ।
लगता है मैं इस दर्द से घिरा
अगली बारिश के आते ही
उसमे घुले
सारे बवन्डर को पी लेता हूँ
और तुम स्वयं अर्थाकांक्षी-सी
मेरे प्राणों में पीड़ा बनी
छटपटाती
मेरी जाती साँस बन जाती हो ।
मेरे स्वयं से मेरी पहचान बनी
तुम …
तुम इतना दर्द बन कर क्यूँ आती हो ?
— विजय निकोर