रामकथा में उर्मिला का चरित्र उपेक्षित क्यों है?

उर्मिला रामकथा की एक ऐसी पात्र हैं, जिनके चरित्र को उसकी संभावनाओं के अनुरूप आवश्यक विस्तार किसी प्रमुख रामायण में नहीं मिला. न तो आदिकवि ने ही उर्मिला की पीड़ा को समझा न गोस्वामी जी ही उनके ह्रदय को टटोलने की चेष्टा कर सके. यहाँ तक कि इन रामायणों में उर्मिला का नाम भी इतनी ही बार आया है कि उंगली पर गिना जा सके. प्रश्न यह है कि रामकथा के इस अत्यंत संभावनाशील चरित्र की इस उपेक्षा का कारण क्या है?

वाल्मीकि रामायण की बात करें तो वाल्मीकि जी सांसारिक मोहमाया से निर्लिप्त संत थे. एक पक्षी की हत्या से उपजे शोक में उन्होंने श्लोक की रचना कर डाली और फिर ब्रह्मा जी के आदेश से उस श्लोक विधा में राम के चरित्र का वर्णन किया. उनका वर्णन एक इतिहासकार का वर्णन है.

इस इतिहास वर्णन का प्रबंध उन्होंने महाकाव्य के रूप में किया है, जिसमें नायक-नायिका प्रधान होते हैं. इस महाकाव्य के नायक राम, नायिका सीता और खलनायक रावण है. इनके अलावा शेष सब सहयोगी पात्र हैं. सहयोगी पात्रों में जो राम के सर्वाधिक निकट रहा है अथवा जिसके बिना राम के चरित्र का कथात्मक विकास संभव नहीं रहा, उन्हें अधिक प्रमुखता से वर्णित किया गया है जैसे कि लक्ष्मण, हनुमान आदि. हालांकि बारीकी से देखने पर इस नियम के अपवाद मिल सकते हैं, मगर महाकाव्य में चरित्रों के वर्णन के विस्तार का विधान यही है.

इस विधान से देखें तो उर्मिला का इस पूरी कथा में किसी भी रूप में राम से उनकी भाई की पत्नी होने के अतिरिक्त और कोई जुड़ाव नहीं रहा है. अर्थात् उनके होने या न होने से वाल्मीकि की रामकथा की गति में कोई अंतर नहीं आता. ऐसे में वाल्मीकि जी जैसे मोहमाया से निर्लिप्त इतिहासकार उर्मिला के विरह और त्याग के लिए उनपर अपनी कलम चलाते, ये अपेक्षा ही अनुचित है.

अब गोस्वामी जी पर आएं तो निश्चित ही श्रीरामचरितमानस की रचना में बाबा ने लोगों को झकझोर देने वाले भावुक व कोमल क्षणों को लक्ष्य कर उनपर परिस्थितिनुसार मोहक काव्य रचना की है जैसे कि लक्ष्मण शक्ति, भरत विलाप आदि. परन्तु उर्मिला के मन की थाह लेने में वे भी चूक गए हैं. इस चूक का कारण भी बड़ा सरल है. बाबा भी वाल्मीकि जी की तरह ही महाकाव्य रच रहे थे और उनके इस महाकाव्य में राम नायक से भी बढ़कर उनके इष्ट हैं. अतः उन्होंने तो जिस भी अच्छे चरित्र का वर्णन किया उसे राम का भक्त बनाकर ही दिखाया.

उनकी कथा में मानव से लेकर पशु-पक्षी और पर्वत तक जो भी सद्चरित्र है, सब राम के भक्त हैं. यदि उर्मिला का किसी भी रूप में राम से कोई साक्षात्कार हुआ होता तो बाबा अवश्य उनके चरित्र की गहराई में उतर जाते परन्तु ऐसे किसी प्रसंग की कोई संभावना ही नहीं थी, अतः उर्मिला पर बात करने की यदि उनकी इच्छा भी रही होगी तो भी अनुकूल प्रसंग न मिलने के कारण नहीं कर पाए होंगे.

वाल्मीकि से तुलसी तक के इस विश्लेषण का निष्कर्ष यही है कि इनकी रचनाओं में उर्मिला की उपेक्षा होने में कुछ विचित्र नहीं है, क्योंकि किसी भी महाकाव्य में नायक से असम्पृक्त चरित्रों की नियति ही यही होती है. हाँ, ये अवश्य होता है कि अगर अमुक चरित्र में इतना बल है कि वो अपनी सीमित उपस्थिति में ही चिरप्रभाव छोड़ जाए तो फिर लोक का आग्रह उसे देर-सबेर उसकी उचित प्रतिष्ठा अवश्य प्रदान करता है. उर्मिला के चरित्र में यह बल था जिस कारण महाकाव्यों में भले उनका नाम उंगली पर गिरने लायक आया हो, परन्तु लोकगीतों से लेकर आधुनिक साहित्य तक में उनपर जितना कुछ कहा-सुना गया है, वो रामायण के कई प्रमुख चरित्रों से अधिक है.

और अंत में, महाकाव्यों ने उर्मिला को महत्व नहीं दिया ये उनका अन्याय नहीं, मर्यादा थी. परन्तु उर्मिला के चरित्र की शक्ति ही है कि उसने लोक के मन को झकझोर अपनी प्रतिष्ठा को अर्जित किया. अतः कभी भी उर्मिला की बात करते हुए सहानुभूति से अधिक सम्मान की दृष्टि रखने का अभ्यास हमें करना चाहिए.

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