चीन का आक्रामक प्रचार और भारत क्यों निरुत्तर?

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डॉ. मधुसूदन उवाच

प्रवेश:

चीन की चुनौती के सामने भारत क्यों उदासीन, और निष्क्रिय? चीन विश्व में सदभावना बढाने का प्रयास कैसे कर रहा है? उसे कैसी सफलता मिल रही है? भारत क्या कर सकता है? शासन क्यों कुछ कर नहीं करता? साम्यवादी चीन भी संस्कृति की बात करता है, पर भारत ने अपने मुंह पर सेक्य़ुलर पट्टी बांध रखी है।

और सेक्य़ुलर संस्कृति तो होती नहीं है। इस लिए भारत निरुत्तर है।

जानने के लिए आगे पढें।

(१)

चीनी शिक्षा मन्त्रालय से समाचार|

“लगभग १०० (१० करोड) मिलियन, परदेशी चीनी भाषा, सीख रहे हैं; ऐसा चीनी शिक्षा मन्त्रालय का अनुमान समाचारो में है। इस से अधिक अधिकृत क्या हो सकता है? Around 100 million foreigners are learning Chinese, the Chinese education ministry estimates. चीन अपनी छवि सुंदर बनाकर, कुशलता से, प्रस्तुत करने के लिए अपने प्राचीन संत कन्फ़्युशियस का पूरा पूरा उपयोग कर रहा है।”यह कथन है, जर्मन भाषा में छपी पुस्तक का। नाम है, (“A declaration of love for India”) “भारत के प्रति प्रेम घोषणा”, और लेखिका है, जर्मन मूल की एक महिला- “मारिया वर्थ”। मारिया ने अपने, २५ वर्षों के भारत के, वास्तव्य में, आए वैयक्तिक अनुभवों का वृत्तांत इस पुस्तक में लिखा है। एक जगह मारिया कहती है, “जर्मनी में, न्यूरेम्बर्ग के निकट के छोटे देहात में, शाला के १२ छात्रों ने, चीनी भाषा सीखने के लिए आवेदन पत्र भरे हुए हैं। स्थानीय वृत्त-पत्र में समाचार है कि चीनी भाषा की शिक्षा के लिए “कन्फ़्य़ुशियस इन्स्टिट्युट” पूँजी लगा रहा है। एक युवा चीनी शिक्षक भी वहां नियुक्त हुआ है।”

(२)

चीन विषयक प्रचार|

आगे मारिया लिखती है; कि उसने, हवाई अड्डेपर जब, इन्टरनॅशनल हॅरॉल्ड ट्रिब्युन, खरिदा तो बिना चौंके उस ने समाचार पत्र के बीचो बीच एक ८ पन्नों वाला, चीन विषयक प्रचार से भरा, (विज्ञापन) देखा, जो चीनी डैली (China Daily) समाचार पत्र ने तैय्यार किया था। कन्फ़्युशियस की जीवनी, उसी का उपदेश, कुछ जीवन प्रसंग इत्यादि, सारा प्रचारात्मक सामग्री से भरा हुआ था, सारे पृष्ठों पर ऐसी ही बाते भरी पडी थी। {अकेला कन्फ़्युशियस इतना फैला हुआ था, तो हमारे १०८ उपनिषद कर्ताओं का योगदान ही १०८ गुना हो जाता। –लेखक}

कन्फ़्युशियस इन्स्टिट्यूट के पूर्वाध्यक्ष, प्रोफ़ेसर झांग क्वून, लिखते हैं ” पश्चिमी संस्कृति बहुत वर्षों पहले चीन में फैली थी, पर अब समय आ गया है कि चीनी संस्कृति पश्चिम में भी प्रोत्साहित की जाए।”

{देखा “कम्युनिस्ट चीन भी संस्कृति” की बात करता है। ले.}

चीन जानता है, कि, संसार आंतर-सांस्कृतिक आदान प्रदान ,धर्म (रिलीजन), चीनी नाट्यकला, ताइ-ची, पत्र कटाई-कला, इत्यादि, विषयों में रूचि रखता हैं। इस लिए इन्हीं बातों पर बल दिया जाता है।

यह कन्फ़्युशियस इन्स्टिट्यूट २००४ में ही प्रारम्भ हुआ था, पर अब ३५० युनीवर्सीटियों से सम्बद्ध इन्स्टीट्यूट हो गए हैं. और माध्यमिक शाला की ४३० कक्षाएं, १०३ देशों में कार्यरत है।

(३)

भारत के लिए स्वर्ण-अवसर|

मारिया वर्थ का, इस लेख में उद्धरित अंश भी, भारत ने क्या करना चाहिए, इस बिन्दु पर सुझाव देता है। मारिया कहती है। भारत के लिए यहां एक स्वर्ण -अवसर है, इस अवसर का उपयोग कर, भारत अपनी जनतांत्रिक शासन प्रणाली चीन की सर्वसत्तात्मक एक दलीय शासन पद्धति के सामने विश्वमें प्रस्तुत कर, जन मत को अपने पक्ष में कर ले सकता है।

वह भी जानती है और लिखती है कि; भारत की आर्थिक क्षमता ऐसी पूँजी लगातार दीर्घकाल तक लगाने में सीमित है। पर भारत की एक अलग विशेष पूँजी है। वह अपने परदेश बसे हुए, प्रवासी भारतीयों का एवं उनके निवेश क्षेत्र का भरपूर उपयोग कर, और अपनी बेजोड संस्कृति को प्रस्तुत कर समूचे विश्व की सदभावना जीतने में, सफल हो सकता है।

(४)

मारिया लिखती है।

अभी अभी मैं जर्मनी के एक छोटे ६००० बस्ती वाले गाँव, न्युरेम्बर्ग में माँ के साथ रहकर वापस आयी हूं। मुझे वहां भारत की याद निरन्तर सताया करती थी। समाचार और दूरदर्शक पर भारत मानों था ही नहीं, पर जब लोगों से मिलती और भारत की बात होती, तो लोग बडी उत्सुकता और सहृदयता से भारत के बारे में, जानने के लिए उत्सुक रहा करते थे। मैं भी बताए बिना न रह सकती कि “भारत कैसा विशिष्ट देश है, क्यों कि मैं जानती हूं, भारत और भारतीयों के लिए उनकी संस्कृति और सभ्यता कैसी ऊर्ध्वगामी है। कहती है भारत की कई परम्पराओं को पश्चिम ने कृतघ्नता पूर्वक, बिना ऋण-स्वीकार किए, बिना मूल-स्रोत जताए, हथिया लिया है। जैसे कि, योगासन, ध्यान-योग, अनेक वैज्ञानिक शोध, व्यक्ति व्यक्ति बीचका मानस शास्त्र, इत्यादि।” भारत की अंक गणना भी “अरबी न्युमरल” मानी जाती थी, भारत से ही पाकर ऐसी कृतघ्नता?

“संस्कृत व्याकरण के तार्किक उपयोग से कंप्युटर में तीव्र सुधार”, एक सबेरे समाचार होगा। और भारत चौंक जाएगा। सच? यह बैलगाडी युगकी भाषा में ऐसा क्या है, जो अंग्रेज़ी में नहीं?

{ भारत तो उसे मृत भाषा घोषित करने की सोच रहा है। ले.}

(५)

शासकीय कार्यवाही|

आगे कहती है, फिर विशेष अनोखी बात यह है, कि, भारत की ओर से भी कोई शासकीय कार्यवाही भी हाथ धरी नहीं गयी; न कोई प्रयास, उन परम्पराओं के, स्वामित्व जताने का हुआ। भारत की सांस्कृतिक विशेषताओं को प्रदर्शित करने का प्रयास भी नहीं किया जा रहा है।

(६)

हार्वर्ड प्रो. जोसेफ़ नाय|

भारत की संस्कृति और उसकी छवि सौम्य और मिलनसार है। उसे भी फैलाने की आवश्यकता है।

चीन की ऐसी सौम्य और मिलनसार छवि नहीं है। यह हार्वर्ड के प्रो. जोसेफ़ नाय के लेख में भी उभर कर आया है। कहते हैं: “भारत यदि अपनी सौम्य और मिलनसार छवि को प्रस्तुत करता है, तो चीन से कई गुना स्वच्छ और प्रभावी छवि प्रस्तुत कर सकता है। इससे भारत को अल्पकालिक और दीर्घ कालिक लाभ होने की भी सम्भावना है।”

चीन की ऐसी छवि नहीं है। क्यों नहीं ? जोसेफ नाय कहते हैं “चीन में वाणी स्वातंत्र्य पर प्रतिबंध के कारण चीन पर विश्वास नहीं किया जा सकता।”

(७)

भारत के लिए सद्भावना क्यों?|

विश्व में, हमारा भी भारतीय के नाते सम्मान सामान्यतः क्यों होता है? सदाचरणी बच्चे, स्वस्थ परिवार, सुसंवादी व्यवहार, सुशिक्षितता इत्यादि से भी कुछ अधिक और विशेष, विवेकानन्द, योगानन्द, अरविंद, प्रभुपाद, महर्षि महेश, बाबा रामदेव, {इन नामों से पन्ना भर जाए} इत्यादि असंख्य साधु सन्तों ने अर्जित की हुयी सदभावना पूँजी के कारण। मेरा अपना वयक्तिक अनुभव तो इसी की पुष्टि करता है। सद्भावना का अनुभव मुझे जो हुआ है, वह वेदान्त के कारण, देव भाषा संस्कृत के कारण भी है।

वेदान्त केसरी विवेकानन्द जो सिंह गर्जना १८९३ में शिकागो में, कर के आये उसकी प्रतिध्वन्यात्मक गूँज और झंकार आज तक, हां सवा सौ वर्ष के पश्चात भी, आज सुनाई देती है।

हमारी चराचर सृष्टि सहित सारे विश्वको आलिंगन दे, अपनाने वाली सनातन धर्माधिष्ठित समन्वयकारी विचार धारा ही उसका कारण मानता हूँ। नहीं, तो, आप सोच कर बताइए, कि और कौनसा कारण है कि विश्व हमारी ओर बडी आस्था से देखता है?

ऐसा कहना मारिया और प्रो. जोसेफ नाय का भी है, पर अलग शब्दों में।

उसका लाभ गौरव-हीन, भौतिकता से चकाचौंध भारतीयों को भी, होता हुआ देखा है। कुछ पढत-मूर्ख तो चकित ही हैं। कि “यार” अपने पास ऐसा सम्मान मिलने जैसा क्या है? उनके लिए सारा सिनेमा के “डायलॉग” है। भाषण में “युज़” कर के करतल ध्वनि प्राप्त करने के लिए।

बिना किसी सांस्कृतिक संस्कार, या शिक्षा, भारत ने, कैसे कैसे “नमुने” भेज दिए हैं?

(८)

संस्कृति का कोर्स|

परदेश भेजने के पहले कम से कम सर्व समन्वयी संस्कृति का कोर्स करवाया जाना चाहिए।

मुझे यदि कहीं व्याख्यान के लिए बुलाया गया है, तो विषय होते हैं, Yoga of Success i e Yoga of Action, Universal aspects of Hinduism, Four Pursuits of life–इत्यादि इत्यादि। कोई मुझे सेक्युलरिज़्म के किसी अंश पर बोलने नहीं बुलाता। सेक्युलरिज़्म में अस्मिता जगाने की प्रेरणा ही नहीं है। राष्ट्रीय गर्व, गौरव, गरिमा, देश-भक्ति, त्याग, बलिदान, वीरता, कुछ भी आप जगाकर दिखाइए सेक्युलरिज़्म के आधार पर।

दूतावासों की भी समस्या यही मानता हूं। जब भी उन्हें बुलाया जाता है, बोलते तो संस्कृति पर ही है, पर सेक्युलरिज़्म की सीमा में ऐसे टेढा-मेढा बोलना पडता है। जो एक वाक्यसे ही दूसरे वाक्य को काटता है। आप यदि ध्यानसे सुनेंगे, तो तुरन्त पता चलता है।पूछो तो हां है, सुनो तो ना है। चुनाव समय के जैसे भाषण होते हैं, कौन सुन रहा है? यह जान कर किया हुआ भाषण। बिन पेंदे का लोटा जैसा।

अकेला दूतावास सक्षमता से अपना दायित्व निर्वाह वहीं कर सकता है, जहां भारत के लिए सद्भावना पहले से अर्जित की हुयी है।

(९)

सद्भावना सेक्य़ुलरों की अर्जित नहीं।

यह सद्भावना सेक्य़ुलर भारत ने अर्जित नहीं की है। सेक्य़ुलर भारत का शासन तो बेइमान है। वह सभी सांस्कृतिक परिव्राजकों का, और कालजयी भारतीय संस्कृति का ऋणी है, जिनके कंधे पर चढ कर भारत ऊंचाई प्राप्त करता है, उस सदभावना के अधार पर, भ्रष्ट शासन जेब भरू शासन करता है। और कृतघ्नता से उसी संस्कृति को समाप्त करने सारी चाले चलता है, व्यवहार करता है, जिसके कंधे पर ऊंचाई प्राप्त करता है।

यह राष्ट्रद्रोह नहीं? तो और क्या है?

मानव संसाधन मंत्री, कपिल सिब्बल और विदेश मंत्री सो. म. कृष्णा ने यह पुस्तक पढनी चाहिए। उनके अपने क्षेत्र में न्यूनतम पूँजी लगाकर, उत्तम सफलता पाने की कुंजी है यह पुस्तक।

पर, पानी में तैरती मछलियाँ “वृंदावन गार्डन” के शुद्ध पवन का अनुभव कैसे करें?

संदर्भ: US-India Friend Ship के रामनारयणन, मारिया वर्थ, जोसेफ नाय इत्यादि।

4 COMMENTS

  1. जीत जी, बिपिन जी, और धर्मेन्द्र जी।
    –विदेश नीति की “मॉरगन थाउ” लिखित पुस्तक –“पॉलिटिक्स अमंग नेशन्स” कहती है।
    विश्व साम्राज्यवादी सत्ताएं अनेक प्रकारसे दूसरे देशों पर उनके अपने हित में प्रभाव उत्पन्न करती है। (१) सैन्यबल बढा बढा कर। (बिना युद्ध भी इसके भयसे, व्यापार बढाने में, अपनी बात मनवाने में, इ. सहायक सिद्ध होता है। उदा. जो चीन कर रहा है।
    दूसरे देशों की भूमि अपनी घोषित कर के, कुछ ना भी मिले तो सीमा पर दबाव डाला जाता है।….इसके अन्य बहुत बिन्दू है।
    (२) आर्थिक सहायता के बलपर परदेशी नीतिपर अपने हित के लक्ष्य से नियंत्रण। (उदा. अमरिका का पाकीस्तान पर प्रभाव।
    (३) सांस्कृतिक धार्मिक, वैचारिक, अतिक्रमण
    (४) दूसरे देशों के शासन पर भ्रष्ट और लोभी शासकों को बैठाकर (चुनवाकर) –अपने हितमें निर्णय करवाना, सरल होता है।
    (५) संचार माध्यमों पर, भ्रष्ट स्तम्भ लेखक पर, -चल चित्र दिग्दर्शक, इत्यादियों पर दबाव लाना। (६) वृत्त पत्रों को(छद्म नामों से) खरिदना और जनतन्त्र वादी देशों में जनमत पर प्रभाव डालना। (७) अंतर राष्ट्रीय सम्मान दिलवाना। अवॉर्डस,
    ऐसी बहुत सी युक्तियां धन बल पर सम्पन्न हो रही है।
    विशेष:
    चीन सारे संसार में जब १०० मिलियन लोगों को चीनी भाषा सीखा रहा है, तो यह साथ साथ चीन के लिए, (गुड विल) सद्भावना बना के रहेगा। कम्युनिस्ट(?) चीन कन्फ्युशियस दार्शनिक की, और संस्कृति(?) की बात करता है।
    ४ वर्ष पूर्व मैं ने चीन प्रवास में वहां बुद्ध मंदिरों का सुधार और रंग रंगाई होते देखी। पूछा तो गाइड कुछ गूढता से ही बोला, मेरा अनुमानित अर्थ था कि, इससे चीन का प्रवासन बढेगा। उतना ही चीन समृद्ध होगा।
    चीन ३० अमरिकन इन्जिनियरिंग प्रोफ़ेसरों को प्रति वर्ष उसके सारे प्रोजेक्ट्स(विशेष) उसका सबसे बडा ३ गॉर्ज डॅम प्रोजेक्ट दिखाने के लिए सामने से ASCE के अधिकृत पत्र से बुलावा भेजता है। यह सारा अनुमानतः सद्भावना फैलाने के लिए चल रहा है।
    मैं मानता हूँ, कि भारत इसमें पीछड रहा है।
    लम्बा हो गया, पर चीन हमको वंचिका दे सकता है। यह सम्भावना नकारी नहीं जा सकती।
    हमारे शासक अंत तक विश्वास दिलाते रहेंगे।

    १९६२ के समय श्री गोलवलकर गुरुजी ने नेहरू जी को चीन के सेनाकी भीड सीमापर जमा होने का समाचार दिया था।
    शासन तब भी सो रहा था।
    आप सभी को धन्यवाद। मुक्त टिप्पणी निःसंकोच लिखते रहें। आप सभीके विचार मनन योग्य ही है।

  2. प्रो. मधुसूदन जिस तथ्य को वयां करते हें वह एक प्रवासी भारतीय की पीड़ा है. वर्तमान भारत सरकार एक ऐसा उन्मत्त घोड़ा है, जो आर्थिक सुधार के अलावा अन्य किसी धरातल पर दौड़ना नहीं जानता. उस की आँखों पर पट्टी भी बंधी हुई है . धर्म-संस्कृति,प्राचीन परम्परा इसे फिलहाल छूत के रोग के समान लग रहे हें.सरकार मात्र आर्थिक उत्थान व भौतिक सुख के मृगजाल में fans है. जिस स्वामी विवेकानंद की आपने चर्चा की है उस पर भी वर्त्तमान सरकार धर्मनिरपेक्ष चर्चा करने तक ही इच्छुक है. उसे डर है कि कंही उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि को सेंध न लग जाए.फिलहाल सत्ता की भूख राष्ट्र धर्म पर भारी है मधुसूदंजी. चीन,राष्ट्र धर्म, संस्कृति,अपनी भाषा, ये सरकार के एजेंडे में शामिल नहीं है.फिलहाल तुष्टीकरण ही मूल मंत्र है. संस्कृत भाषा ये विदेश में जाने वाले नागरिकों को क्या सिखाएंगे, अभी तो देश के औसत नागरिक को अनिवार्य हिन्दी भी नहीं सिखा सके.मधुसूदंनजी क्या आप इस कड़वे सच को पचा पाएँगे.

  3. भारत की अधिकांश समस्याओं का मूल है, अपनी गौरवशाली संस्कृति से आंख चुराना। चरित्र निर्माण के लिए अपनी समृद्ध संस्कृति और श्रेष्ठ परंपराओं का ज्ञान और उनपर अभिमान उतना ही आवश्यक है, जितना जीवन धारण करने के लिए सांस लेना। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमने अपने इतिहास, सभ्यता, संस्कृति और अपने महापुरुषों के श्रेष्ठ आचरण का ज्ञान नई पीढ़ी को देने से किनारा कर लिया है। सरकार दो दोषी है ही, हम भारतीय भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। मुझे उत्तर भारत की वर्तमान अवस्था का अनुभव है। यहां का आदमी जब ज़रा सा आगे बढ़ने पर शहर में आता है, तो अपनी मातृभाषा का प्रयोग करना बंद कर देता है। वह अपने बच्चों से भी हिन्दी में ही बात करता है। उसका बच्चा कानवेन्ट में शिक्षा पाकर इंजीनियर, डाक्टर, प्रशासक या प्रबंधक बनता है, तो वह अपने बच्चों से सिर्फ अंग्रेजी में बात करता है। बच्चे अपने दादा-दादी या नाना-नानी से बात करने से कतराते हैं। मां-बाप को तो फुर्सत रहती नहीं, बच्चों को राम, कृष्ण, शंकर, प्रह्लाद, अर्जुन, अभिमन्यु की कहानियां सुनाए कौन? मेरा अपना अनुभव है कि अगर बच्चे को दस वर्ष की उम्र में उसकी मां द्वारा संपूर्ण रामायण कहानी के रूप में सुना दिया जाय, तो बच्चा जीवन भर सुसंस्कृत रहता है। अगर उसे महाभारत की कहानियां सुना दी जांय, तो यह सोने में सुहागे का काम करता है। वीर शिवाजी को माता जीजाबाई ने रामायण और महाभारत अपने श्रीमुख से सुनाकर ही उन्हें छत्रपति और हिन्दू पदपादशाही का संस्थापक बनाया था। लेकिन आज की तारीख में जिन्स-टाप धारिणी और सिन्दूर को मांग में लगाने के बदले एक छोटे टीका के रूप में धारण करने वाली माताओं से क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने बच्चे-बच्चियों को रामायण-महाभारत सुनाएंगी? हमें अपने घर से सुधार की आवश्यकता है।

  4. चीन ही नहीं हमारी सम्पूर्ण विदेश नीति फिसड्डी साबित हुई है. और यह महान फिसड्डी परम्परा चाचा नेहरू के समय से चली आ रही है. और दूर-दराज के देशो की बात छोड़ दे तो, पड़ोसी नेपाल को ही हम अपने पक्ष में नहीं संभाल पाए.
    एक विचारणीय लेख के लिए साधुवाद.

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