समाज

मृत्य पर इतना पाखँड क्यों?

मृत्य एक शाश्वत सत्य है, जीवन की तरह, कोई नहीं जानता कब कैसे और कंहाँ किसकी मृत्यु होगी।यदि व्यक्ति अपनी गृहस्थी के संपूर्ण दायित्वों को निबटा कर जाता है तो यह सत्य स्वीकारना और सहना प्रियजनो के लियें सरल होता है पर जब कोई बचपन की अठखेलयाँ करता या यौवन की खिलती धूप मे असमय चला जाता है तो दुख सहना बेहद कठिन होता है।

हमारे समाज मे धर्म और परम्पराओं के नाम पर मृत्यु जैसे दुखद अवसर पर भी इतनी रूढ़ियाँ और पाखँड जोड़ दिये हैं जो पढ़े लिखे संभ्रांत सुसंस्कृत लोग भी बिना सोचे समझे भावुकतावश अपनाते चले आ रहे हैं, इन्हे छोड़ना तो दूर इनमे भी दिखावा और बनावट के समान जोड़ दिये हैं। इनसब बातों को देखकर विचार आता है कि परम्पराओं के नाम पर रूढ़ियों को छोड़ पाना किसी पढ़े लिखे समाज मे ही इतना कठिन होता है तो अशिक्षित और कम पढ़े लिखे लोगों की बदलाव लाने की आशा कैसे की जा सकती है।

जिस प्रियजन के घर मृत्यु दस्तक देती है वहाँ न किसी का खाना बनाने का मन होता है न खाने का, यह तो बहुत स्वाभाविक हैं, ऐसे मे पडौसी मित्र व रिश्तेदार घर के लोगों के खानेपीने ध्यान रखे तो बहुत अच्छी बात है पर कई जगह अंतिम संस्कार के बाद भी कई दिनों तक खाने पीने मे कई प्रतिबन्ध लगा दिये जाते हैं, जैसे खाना एक ही समय बनेगा या दाल मे तड़का नहीं लगेगा या फिर खाने मे हल्दी नहीं डलेगी वगैरह,ऐसे मे रीति रिवाज क्या मतलब है पता नहीं! जीना है तो खाना भी होगा ही, जो सुविधा से बन सके, जैसा बन सके खाया जा सकता है।कुछ घरों मे बहुओं के मायके वाले या रिश्तेदार 13 दिन तक खाना भेजते हैं, यह सब बडा अनुचित सा लगा है। वो दूसरे शहर मे हों तो कुछ लोगों के यहाँ बेटी की ससुराल मे ग़मी होने पर कुछ रुपये भेजने तक की प्रथा है। साड़ी पगड़ी भी वही भेजते हैं,मैने ऐसा सुना है।परम्परा के नाम पर सड़ी गली प्रथाओं के साथ जुड़ा रहना संसकृति को विकसित नहीं करता। तेरह दिन काशोक मनाना भी ज़रूरी नहीं है,3-4 दिन मे एक शोक सभा करके औपचारिक शोक का समापन हो सकता है। जिस परिवार का कोई गया है उसको सामान्य होने मे तो जो समय लगना है वह लगेगा ही, पर औपचारिक शोक समाप्त करने के बाद ही परिवार की दिनचर्या धीरे धीरे वापिस आयेगी। भविष्य को दिशा देने की कोशिश की जायेगी।

सभी लोगों को अपने जीवन काल मे अपने अंग दान करने का निर्णय लेकर आवश्यक कार्यवाही कर लेनी चाहिय घर के लोगों को मृतक के अंग दान करने की सूचना संबधित अस्पताल को देनी चाहिये।

आजकल विद्युत और गैस के द्वारा शवदाह की व्यवस्था है परन्तु उसका प्रयोग कम किया जाता है, इससे प्रदूषन कम होगा ,लकड़ी नहीं कटेंगी, पेड़ बचे रहेंगे। अस्थियों को भी नदियों मे बहाने की प्रथा को बन्द करना चाहिये क्योंकि पहले ही नदियों मे पानी कम है बहाव सुस्त है गंदगी अधिक है।अस्थियों को कंही अपने ही प्रागण मे दबाकर वहाँ कोई पेड़ लगादें जो उस व्यक्ति की यादों को ज़िन्दा रख सकता है। यह व्यवस्था अधिकारिक रूप से सार्वजनिक स्थानो पर भी होनी चाहियें, क्योंकि सबके पास पेड़ लगाने के लियें ज़मीन नहीं होती।

तेरहवीं पर बड़ा सा ब्राहम्ण भोज होता है, मरने वाले की आत्मा कितनी शाँत होती है यह तो पता नहीं पर कुछ लोग मुफ्त का खाकर अकर्मण्य अवश्य हो जाते हैं।हरिद्वार और इलाहाबाद मे मृतक के रिश्तेदारों की पंन्डो द्वारा जेबें ख़ाली करवाने की मैने कई कहानियाँ सुनी हुई हैं। मृतक के परिवार वाले मानसिक रूप से इतने टूटे हुए होते हैं कि वे उनकी ही शर्तों पर दान दक्षिणा देने पर विवश हो जाते हैं।

आमतौर पर घर मे कोई ग़मी हो जाये तो एक साल तक शादी ब्याह या और कोई शुभ कार्य नहीं कराया जा सकता, पर लोग परम्परा तो छोड़ेंगें नही पर तरकीब निकाल लेते हैं।तेरहवीं के साथ बरसी भी करदी, एक पल मे एक साल बिता दिया दोगुने ब्राह्मणों को खिलादिया, दोगुना दान दक्षिणा देदी। अब आराम से कीजिये शादी। एक साल शोक नहीं मनाना मत मनाइये,पर एक साल बाद होने वाली बरसी निबटाकर सिद्ध क्या करना है,किसे करना है, कुछ नहीं बस लकीर की फ़कीर पीटनी है।

मृतक के नाम पर कुछ करना है तो किसी होनहार छात्र की मदद कर सकते हैं, किसी ग़रीब रोगी की मदद कर सकते हैं या किसी ऐसे कामो मे लगी संस्था को कुछ धनराशि दे सकते हैं, परम्परा के नाम पर ये सब पाखंड करके किसी का भला नहीं होगा।