क्यूँ करें गोरक्षा ?

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हृदय में प्रभु की भक्ति की जल रही ज्योति से प्राप्त हुई प्रेरणा से गत वर्षों में गोरक्षा के विषय में मेरे मन में जो विचार उत्पन्न हुए हैं, उन्हें इस लेख के द्वारा मैं सङ्ग्रहीत कर रह हूँ । मेरा मानना है कि ये विचार ज्ञानी पुरुषों व इस विषय में अनुभवी व कार्यरत भाइयों और बहनों के पास पहुँचेंगे और इन सभी के विचारों के साथ मिलकर एक ऐसा प्रयोगात्मक पथ निर्देशित करेंगे जिससे गोरक्षा के विषय में चल रहे प्रयासों को तीव्र गति प्राप्त होगी जिससे भारतवर्ष का व विश्व का कल्याण होगा । द्वितीय, सभी के विचारों को सम्मिलित कर के एक लघु पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी किया जा सकता है, जो इस विषय में किये जा रहे प्रचार में उपयोगी हो सकती है ।

यहाँ यह जानना भी आवश्यक है कि यद्यपि हमारा प्राथमिक प्रयास गोरक्षा, और उस में भी देसी मूल की गाय की रक्षा करना है, हमारा अन्तिम लक्ष्य इससे बढ कर है । “जीव हत्या पाप है” इति सूक्ति को हम पुनः जनसामान्य के हृदय का भाव बनाना चाहते हैं क्यूँकि उसके बिना विश्व शान्ति की अपेक्षा नहीं की जा सकती । विश्व शान्ति ही हमारा ध्येय है, वही हमारा अन्तिम लक्ष्य है । कृष्णलीला में जो प्रेम कृष्ण का गाय के प्रति और गाय का कृष्ण के प्रति हमने सुना व पढा है, वैसा ही प्रेम प्रत्येक जन और गाय के बीच हो, ऐसी हमारी कामना है । जब ऐसा होगा, तब विश्व में आदिभौतिक, आदिदैविक व आध्यात्मिक शान्ति होगी ही ।

 

क्यूँ करें गोरक्षा ?

 

यहाँ पर मुख्यतया तीन प्रकार के तर्क मन मे आते हैं ।

 

१. भौतिकविज्ञानसम्बन्धी : देसी गाय का दूध दवाई है, अमृततुल्य है आदि हमें बहुत सुनने को मिलता है । आयुर्वेद में देसी गाय के दूध, मल व मूत्र का उपयोग सर्वज्ञात है । केवल गाय पर आधारित खेती के लाभ और कृत्रिम खाद से होने वाली हानि के विषय में भी बाबा रामदेव आदि सन्तों के मुख से सुप्रचार हो रहा है । ऐसा भी सुनने में आया है कि कृत्रिम खाद के अधिक प्रयोग से पञ्जाब राज्य में कुछ गाँवों का पानी इतना विशैला हो गया है कि पूरे के पूरे गाँव ही बिकाऊ हो गये हैं । गाय के गोबर से बने उपलों का ही प्रयोग इन्धन के रूप में उत्तम है, व लकडी और कोयले के विकल्प के रूप में यह वनों को और उससे पर्यावरण को हो रही क्षति को थामने में सहायक है । उत्तरप्रदेश में मेरठ नगर में, जहाँ मेरा निवासस्थान भी है, मैं ऐसे दो महानुभावों के सम्पर्क में आया हूँ, जो देसी नस्ल की ही गाय के दूध का विक्रय करते हैं । वे हैं “ग‍ऊधाम” नामक गोशाला चलाने वाले श्री अमित जिन्दल जी, और दूसरे अकेले ही इस नेक कार्य में लगे हुए जागृति विहार निवासी श्री समीर जी । देसी गाय के दूध में दूसरी गाय के दूध की अपेक्षा ऐसे क्या तत्त्व हैं जिनसे यह दूध अमृततुल्य बनता है, इस प्रश्न का भी उत्तर वे देते हैं । वे ये भी बताते हैं कि अन्य देशों के वैज्ञानिकों को भी अब समझ में यह आ गया है कि भारतीय गाय का दूध उत्तम है और वे क्रौस-ब्रीड प्रक्रिया से अपने देश की गाय के दूध का गुणवर्धन करने में लगे हैं । भारत में देसी गाय की गिरती हुई सङ्ख्या एक अत्यन्त चिन्ताजनक विषय है, क्यूँकि न केवल हमारे बच्चे गाय के अमृततुल्य दूध से वञ्चित हो रहे हैं, अपितु एक ऐसे समय की कल्पना की जा सकती है जब भारतीय नस्ल की गाय के दूध से निर्मित दवाओं का विक्रय अन्य देश उच्च मूल्य पर भारत में ही करेंगे, और यह कल्पना भी अत्यन्त पीडादायी है ।

 

इस प्रारम्भिक लेख में मैं विस्तारपूर्वक भारतीय गाय के दूध के गुण व अन्य गाय से तुलना के विषय में नहीं लिख रहा हूँ, क्यूँकि एक तो इस विषय में मैंने अध्ययन नहीं किया है और द्वितीय मेरा मानना है कि जो लोग इस लेख को पढेंगे वे तर्कों के बिना ही हृदय के भाव से ही मेरे उपर्युक्त कथन को अङ्गीकृत करेंगे । परन्तु सामान्य प्रेक्षकवर्ग को ध्यान में रख कर प्रकाशित लघु पुस्तक में इस जानकारी का देना अनिवार्य होगा ।

 

२. आध्यात्मिकविज्ञानसम्बन्धी : मेरे मित्र श्री निशान्त गोयल जी एक बार ग‍ऊ धाम का परिसर देखने गये । कुछ डेढ सौ गायों को स्वतन्त्र घूमता हुआ व चरता हुआ देख कर वे मन्त्र-मुग्ध हो गये । उनहोंने बताया कि गाय की आँख में आँख डालकर वहाँ ध्यान (मेडिटेशन) लगाया जा सकता है । आध्यात्मिक विकास व प्रगति प्राप्त की जा सकती है । कहा गया है कि गाय की पूजा से पुण्य मिलता है व सुख शान्ति बनी रहती है । गोदान को अति पुण्य कर्म बताया गया है । कृत्रिम दवाओं और इन्जेक्शन का प्रयोग करे बिना प्राकृतिक आहार खाने वाली व स्वतन्त्र घूमने व चरने वाली गाय के मन में तनाव नहीं होगा, और उत्तम दूध का उत्पादन होगा ।

 

इसके विपरीत, आज कल चल रही कुप्रथा, जिसमें गाय को इन्जेक्शन देकर व उसके बछडे को दूध पिलाये बिना ही उसे दोहा जाता है, उसे खाने के लिये पौष्टिक घाँस व चारा न देकर अन्य आहार दिया जाता है, व उसे एक ही स्थान पर बान्धा जाता है, उससे गाय के मन में तनाव पैदा होता है । तनाव शरीर में बहुत सी बीमारियों का कारण है, न केवल पशुओं में, अपितु मनुष्यों में भी । इससे शरीर में हानिकारक पदार्थ पैदा होते हैं जो शरीर के अङ्गों को कमजोर बनाते हैं । यही हानिकारक पदार्थ गाय के दूध में प्रविष्ट कर मनुष्यों के द्वारा पीये जाते हैं, जिससे मनुष्यों के शरीराङ्ग कमजोर होते हैं और मनुष्यों में भी बीमारियाँ बढती हैं । बीमार पशु को जब दवाई दी जाती है, वह दवाई भी दूध के माध्यम से मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होती है और हानि पहुँचाती है । बार बार बीमार पडने पर मनुष्य बार बार डाक्टर के चक्कर लगाता है और अनेकों बार उसे दवाइयाँ खानी पडती हैं । इससे वह मनुष्य सदा भयभीत रहता है और मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है । कमजोर शरीर व मन वाले व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तो क्या, मानो अध्यात्म से सम्बन्ध ही टूट जाता है । बार बार डाक्टर और दवाई के चक्कर में फँसे व्यक्ति को महँगाई की मार और तीव्र गति से लगती है और ऐसे भयभीत हुआ व्यक्ति यह समझने लगता है कि उसके जीवन का लक्ष्य कुछ है तो केवल अधिक से अधिक धन कमाना और पूञ्जी जमा करना, जो कि आने वाले बुरे समय में काम आयेगी । धन कमाने के लिए जब वह अपना तन और मन दाँव पर लगा देता है, तब उसके जीवन में तनाव की वृद्धि होती है और पुनः और बीमारियों को निमन्त्रण मिलता है । इस कुचक्र में फँसा हुआ व्यक्ति समाज सेवा परोपकार आदि, ध्यान मेडिटेशन, शास्त्राध्ययन या भगवान् भक्ति, भजन आदि के बारे में सोच भी नहीं पाता और उसका तीव्र गति से आध्यात्मिक पतन होता है । देसी गाय का शुद्ध दूध इस कुचक्र को तोड सकता है, ऐसी हमारी मान्यता है । आखिर भगवान् श्री रामचन्द्र जी के पडपडदादा महाराज दिलीप जी को इक्कीस दिन पर्यन्त कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय की सेवा करने के बाद उसका दूध पी कर ही महान् राजा रघु के रूप में सन्तान की प्राप्ति हुई थी ।

 

३. मानसिकविज्ञानसम्बन्धी : यहाँ हम बात केवल गोहत्या की नहीं, जीव हत्या की करेंगे । पाँच प्रकार के उत्पाद मन में आते हैं, जिनकी चर्चा करके हम मनुष्यों में जीवहत्या के प्रति संवेदनशीलता के अभाव पर दृष्टि डालेंगे । सबसे पहले है माँसाहार सम्बन्धी । हर वर्ष भारत में माँस का प्रयोजन करने वालों की सङ्ख्या बढ रही है । क्या कारण है कि ये लोग यह नहीं सोचते कि यह माँस किसी की हत्या उपरान्त आया है? खाने वालों में बहुत से लोग स्वयं माँस पकाते भी हैं, उसे काटते भी हैं । इन लोगों की जीव हत्या के प्रति सम्वेदनशीलता को क्या हो गया है? और कुछ लोग हुए वो, जो हत्या करते हैं, और ऐसा करते हुए उन्हें लहुलुहान व तडपते हुए पशु की दशा पर तरस नहीं आता । द्वितीय श्रेणी के उत्पाद हुए चमडे से बने हुए, जैसे जूते चप्पल, कटिबन्ध (बेल्ट), स्यूत (बैग) आदि । बहुत से शाकाहारी लोग भी इन उत्पादों के प्रयोजन से नहीं कतराते । तीसरी श्रेणी में है वस्त्र, आभूषण आदि हेतु सिल्क, पर्ल, हाथी के दन्त आदि का प्रयोग । चौथी श्रेणी में हैं  वे दवाइयाँ जो किसी जीव की हत्या करके बनाई गई हैं, जैसे कि मछली का तेल, चिकन का सूप आदि । पाँचवी श्रेणी में हम वो उत्पाद रखते हैं जो पशुओं की हत्या से प्राप्त तो होते हैं, परन्तु क्रय करने वाले (खरीदने वाले) को इसका ज्ञान नहीं होता । जैसे, “बोन चैना” से बने पात्र गाय आदि की हड्डियों से बनते हैं, पोलियो आदि की वेक्सीन (इन्जेक्शन) बन्दर में वैरस डाल कर उसे मारकर उसके गुर्दे से बनाये जाते हैं, आदि । यहाँ प्रथम श्रेणी से पञ्चम श्रेणी तक जाएँ, तो इन उत्पदों के बहिष्कार के लिए अधिकाधिक सम्वेदनशीलता की आवश्यकता है । कोई जीवहत्या के प्रति थोडा संवेदनशील होगा तो वह माँस का प्रजोजन नहीं करेगा, परन्तु द्वितीय से पञ्चम श्रेणी के उत्पादों का प्रयोजन करेगा । परन्तु पञ्चम श्रेणी के उत्पादों का त्याग वो करेगा जो कोई वस्तु खरीदने से पहले ये जाँच कर लेगा कि वह कहाँ से आयी है, यानी कि वह बहुत अधिक संवेदनशील होगा ।

 

अब इतिहास से कुछ अन्य उदाहरणों पर दृष्टि डालते हैं । जर्मनी में द्वितीय विश्व युद्ध से पहले हिटलर व उसकी सेना ने यहूदियों पर घोर अत्याचार किया । आखिर यहूदी भी तो मनुष्य ही थे, फिर क्यूँ एक मनुष्य की दुसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशीलता का अभाव हुआ? पूर्व काल में अमेरिका में श्वेत वर्ण के लोगों ने अफ़्रीका से लाए गए लोगों को गुलाम बना कर रखा और उन पर घोर अत्याचार किया । हमारे देश में धर्म के आधार पर दंगे होते हैं और लोग एक दूसरे के प्रति अतीव हिंसक हो जाते हैं । इन उदाहरणों में और ऊपर दिये गए पशु-सम्बन्धी उदाहरणों में क्या समानता है? एक तो है आक्रामक की शिकार के प्रति संवेदनशीलता का अभाव । कभी शिकार पशु है तो कभी मनुष्य ही । परन्तु संवेदनशीलता-अभाव के भी मूल पर है “अयं निजः परो वेति” भाव, यानि कि “यह मेरा है या पराया है”, ऐसा भेद । हम सब ये जानते हैं कि यह भाव कुछ और नहीं, घोर अज्ञान ही है । क्यूँकि एक ज्ञानी पुरुष यह समझता है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” इति । सारा विश्व ही एक परिवार है । अगर हम पशु के प्रति संवेदनशीलता खो देंगे, तो वो दिन दूर नहीं जब दूसरे सम्प्रदाय के लोगों के प्रति भी हमारी संवेदनशीलता का अभाव होगा । यदि ऐसा हो गया, तो शीघ्र ही एक दिन यही अभाव हमारे अपने परिवारजनों के प्रति भी होगा । इसलिए समझदारी इसी में है कि हम एक मच्छर या चींटी में भी उसी प्रभु को देखें, जिसकी इस सृष्टि की रचना के कारण ही हमारा भी कुछ अस्तित्व है । आज विकल्प हमारे पास है कि हम अपने मन को कैसा सोचने की आदत डालते हैं, “मेरा-तेरा” करने की, या सबको समान भाव से देखने की । यह जानना पर्याप्त नहीं है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्”, जब तक कि हम इसे अपना व्यवहार न बना लें । “ज्ञाने धर्मः उत प्रयोगे” – धर्म ज्ञान में है या प्रयोग में ?

 

कैसे करें गोरक्षा ?

 

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि गो-उत्पादों के प्रयोजन के बिना गोरक्षा सम्भव नहीं है । “गाय हमारी माता है”, केवल यह कह कर आज के समय में हम (देसी) गाय नहीं बचा पायेंगे । और आने वाले समय में तो यह और भी कठिन होगा । क्यूँकि यह काल विज्ञान का है और आज बच्चा बच्चा भी कुछ मानने से पहले प्रश्न पूछता है, “ऐसा क्यूँ” इति । और लोकतन्त्र में, जो हमारे देश में विद्यमान है, हम अधिकार जताकर भी यह प्राप्त नहीं कर सकते, चाहे सरकार हमारे मत से सहमत हो तब भी । गाय की रक्षा के लिये अनिवार्य है कि हम पहले ये समझें कि गाय हमारी माता क्यूँ है, कैसे है । इसके प्रति प्रमाण सिद्ध करने के लिए देश में विद्यमान कुछ संस्थायें और विश्वविद्यालय प्रयास कर रहे हैं, जैसे कि नागपुर स्थित “गोविज्ञान अनुसन्धान केन्द्र”, चित्रकूट स्थित “चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय” आदि । उसके बाद हम प्रयत्न करें कि बाकी लोग भी गाय के दूध के अनोखे गुणों को समझें और गाय के ही दूध को अपनायें । इसके लिये एक तो हमें देसी गाय की उपयोगिता को प्रामाणिक रूप से लोगों को दर्शाना होगा और दूसरा हमें सही तरह से इसका प्रचार करना होगा । अब मैं विस्तार से अपने विचार इस विषय पर प्रस्तुत करता हूँ, कि हम कैसे देसी गाय के दूध के स्वीकरण को शीघ्रातिशीघ्र सिद्ध कर सकते हैं ।

 

१. जागृति विक्रेता से अधिक क्रेता में आवश्यक : केवल दूध विक्रेता को यह समझाने का प्रयास व्यर्थ है कि वह देसी गाय का ही दूध बेचे न कि विदेशी गाय का, वह बछडे को पहले दूध पीने दे, वह दूध वर्धन के लिये कृत्रिम दवाई या इन्जेक्शन का प्रयोग न करे इत्यादि । देसी गाय की रक्षा के लिए हमें उसके दूध व अन्य उत्पादों की माँग बढानी होगी, और उसके लिए हमें उपभोक्ता पर ध्यान केन्द्रित करना होगा । इस विषय में जन-जागृति को क्रान्ति का स्वरूप देना होगा, यद्यपि इसे नियन्त्रित रूप से ही बढाना भी आवश्यक है । यदि उपभोक्ता उचित मूल्य देकर देसी गाय का दूध क्रय करने का इच्छुक हो जाए, और वह मूल्य विक्रेता के लिए भी उचित हो, तो विक्रेता को इसमें क्या परेशानी होगी ?

 

यद्यपि हमारा लक्ष्य है कि देसी गाय का शुद्ध दूध जन जन तक पहुँचे, इस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग निर्दिष्ट करना आवश्यक है । ध्यान देने योग्य यह है कि आज गाय के दूध की माँग (डिमाण्ड) और आपूर्ति (सप्लाई), दोनों ही न्यून हैं । इन दोनों को हमें नियन्त्रित और सन्तुलित रूप से बढाना होगा । यदि माङ्ग कम रहेगी और आपूर्ति अधिक, तो मूल्य इतना गिर जायेगा कि विक्रेता उसे सहन नहीं कर पायेगा । अतः माँग बढाना आवश्यक है । माँग बढाने के लिये आवश्यक है प्रचार, और वो भी सीधे उपभोक्ता के समक्ष । कैसे प्रचार किया जाये, कैसे माँग बढाई जाये, इस विषय पर कुछ विचार आगे लिखे हैं । लेकिन पहले ये समझें कि यदि माँग असन्तुलित रूप से बढ गई, तो दूध का मूल्य भी असन्तुलित रूप से बढ जयेगा, और दूध में मिलावट आदि का प्रचलन बढ जयेगा, जो हमारे लक्ष्य में महती बाधा उत्पन्न करेगा ।

 

कोई उपयोगी उत्पाद जन जन तक कैसे पहुँचे, इसके लिये जङ्गम-दूरवाणी (मोबाइल्-फोन) का उदाहरण उत्तम है । आरम्भ में ये इतना महँगा था कि आय के आधार पर जो उच्च-मध्यम वर्ग के लोग थे, उनकी भी पहुँच से ये बाहर था । लेकिन केवल १०-१५  वर्षों में ये भारत के न्यून आय वर्ग के लोगों की जेबों में भी पाया जाने लगा । ऐसा कैसे सम्भव हुआ, आइये इसका कुछ विश्लेषण करके, देसी गाय के दूध विक्रय हेतु अपना मार्ग निर्धारित करते हैं ।

 

१.अ. उत्पाद की उपयोगिता और विक्रेता का प्रयास : जङ्गम-दूरवाणी की उपयोगिता आरम्भ में अत्यन्त महँगी होने के कारण केवल धनिकों के सुख-विलास के साधन और शान तक ही सीमित थी । शीघ्र ही वो इन धनिकों की आवश्यकता बन गयी । इसके विक्रेताओं ने सूझबूझ से फिर इसका मूल्य कम कर दिया, जिससे इन धनिकों से कम आय के लोगों कि पहुँच में ये सुख-विलास के साधन के रूप में आ गयी । जो पुराने उपभोक्ता थे, वो तो रहे ही, कुछ नए और जुड गए । फिर मूल्य और कम हुआ, और अधिक लोगों की आवश्यकता बनी और ये प्रक्रिया चलती रही । जो आयलाभ हुआ, उसे विक्रेता ने और अधिक उपयोगी, पहले से उत्तम जङ्गम-दूरवाणी के विकास व निर्माण में लगा दिया । इस प्रकार अत्यन्त उपयोगी वस्तु होने के कारण और विक्रेता के सूझबूझ युक्त प्रयास से जङ्गम-दूरवाणी आज जन जन तक पहुँच गयी ।

 

१.आ. सम्यक् विपणन (बढिया मार्केटिङ्ग) : आधुनिक काल में उत्पाद के विक्रय के लिए सम्यक् विपणन अनिवार्य हो गया है । जङ्गम-दूरवाणी के विषय में यह मुख्यतया अनेक प्रकार से विज्ञापन के माध्यम से सिद्ध किया गया, जैसे मुख्य मार्गों पर रङ्गीन पोस्टर / बोर्ड आदि लगा कर, या फिर दूरदर्शन (टेलिविजन) और आकाशवाणी के माध्यम से ।

 

देसी गाय के दूध विक्रय हेतु भी हम कुछ ऐसे ही बढ सकते हैं । गाय के दूध की उपयोगिता, उत्तमता को सिद्ध करने के लिए हम अपने सारे बिन्दु तैयार करें । लोग जो भी प्रश्न पूछते हैं या पूछ सकते हैं, उसके उत्तर हम प्रत्यक्ष रूप से तैयार करें । लोगों को ये विश्वास दिलाना आरम्भ करें कि गाय का दूध उत्तम है । उन्हें बताएँ, कि गाय का बछडा दूध पी कर छलाङ्ग लगाता है, और भैंस का बच्चा दूध पी कर सोता है । दूध निकालने के लिए लगाए गए इन्जेक्शन जहर हैं, इसका हम बहुत प्रचार करें । इससे होने वाली हानि का ज्ञान सार्वजनिक कर दें, और इसके लिए हम अनेक प्रकार से प्रयास करें । बाबा रामदेव, श्री श्री रविशङ्कर आदि सन्तों से हम इस प्रचार-कार्य को करने में सहायता माँग सकते हैं ।

 

आरम्भ में हम धनिकों को ही क्रेता के रूप में देख कर उन पर ही ध्यान केन्द्रित करें । ऐसा करना आवश्यक है, जिससे कि अपने लक्ष्य की ओर बढने के लिए जो आर्थिक भार अनिवार्य होगा, वह दूध विक्रेता पर न पडे जो कि अधिक धनी नहीं है । धनिकों को “टार्गेट” करते हुए हम दूध का मूल्य आरम्भ में अधिक रख सकते हैं । इससे गोपालकों को प्रोत्साहन मिलेगा और हम अपने लक्ष्य में आगे बढ पाएँगे । मान लीजिए कि हम देसी गाय के दूध का मूल्य वर्तमान दूध (जो कि विदेशी गाय या भैंस का है, और हानिकारक विषतुल्य इन्जेक्शन युक्त है) के मूल्य से २५% अधिक रखते हैं । यदि किसी धनिक का परिवार प्रतिमास ₹४००० के दूध का क्रय कर रहा है, तो उसे हम समझायें, कि केवल ₹१००० अतिरिक्त व्यय करके उसे न केवल विष (इन्जेक्शन) मुक्त, अपितु अमृत युक्त दूध मिलेगा । उसे समझाएँ कि ये राशि केवल एक बार रेस्टोरेन्ट में चार लोगों के परिवार के भोजन करने के मूल्य से भी कम है ! और इससे उसके बच्चे का शरीर व दिमाग स्वस्थ व शक्तिशाली बनेंगे । क्रेता को ये सब समझाने के साथ साथ ही हम विक्रेता से भी बात करते रहें । जब माँग बढे, तब उसकी आपूर्ति भी उतनी हो, ये हमें निश्चित करना होगा । यद्यपि आरम्भ में हम धनिकों पर ध्यान केन्द्रित करके प्रचार कर रहे हैं, तथापि उनसे कम आय वाले लोगों के कानों में हमारी ध्वनि गूञ्जेगी ही । और जब वे यह देखेंगे कि धनिकों ने देसी गाय का ही दूध लेना आरम्भ कर दिया है, तब उनमें भी वही पीने का उत्साह बढेगा । एक तरह से हम कहें तो हमें आरम्भ में देसी गाय के दूध को “स्टेटस सिम्बल” बनाना है । मेरा मानना है कि इस कलियुग में एक महान् कार्य करने के लिए भी हमें चतुराई से ही आगे बढना होगा । त्रेता युग में भी महाभारत के काल में भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा बहुत बार किया था । एक बार गाय का दूध स्टेटस सिम्बल बन जाए, तो उसके बाद हमारा आगे बढने का मार्ग सरल हो जायेगा । साथ में ही यदि हम ये निश्चित कर दें कि बढती हुई माँग के अनुरूप आपूर्ति भी सम्यक् बढती रहे और मूल्य नियन्त्रित रहे, तो अतिशीघ्र ही विषतुल्य इन्जेक्शन का परित्याग और अमृततुल्य देसी गाय के दूध का पुनः स्वीकरण हो जाएगा ।

 

इसके साथ ही एक और बात ध्यान देने योग्य है । जैसे कि जङ्गमदूरवाणी के अलग अलग मूल्य पर अलग अलग विकल्प उपलब्ध हैं, उसी प्रकार हम गाय का दूध भी अलग अलग विकल्पों में उपलब्ध करा सकते हैं । जैसे की, एक तो हुआ केवल देसी गाय का दूध, और दूसरा हुआ उस देसी गाय का दूध जो खुले क्षेत्र में अथवा वन में स्वतन्त्र भ्रमण कर अपना आहार प्राप्त करती है । विकसित देशों में इसे “पास्ट्चर-रेज्ड काऊ” कहा जाता है । भविष्य में हम एक देसी गाय के प्राकृतिक दूध की “मदर डेरी” जैसी विशाल डेरी खोल सकते हैं, और “पास्ट्चराइजेशन” प्रक्रिया से दूध सही रखने की अवधि बढा सकते हैं, जिससे कि एक स्थान से दूर दूसरे स्थान तक ले जाकर दूध का क्रय किया जा सके और अतिरिक्त दूध नष्ट न हो । यह विकल्प उपलब्ध जब हो जाये, तब हम गाय के ताजे (कच्चे) दूध को सम्यक् विपणन (मार्केटिङ्ग) करके कुछ अधिक मूल्य पर उच्च विकल्प के रूप में उपलब्ध करा सकते हैं । आखिर कम आय वाले का भी यह सपना बने कि वो परिश्रम करके कल जब अपनी आय बढाये, तब वो सर्वोत्तम दूध पी कर अपने और अपने परिवार वालों के स्वास्थ्य को लाभ दे सके ! परन्तु सर्वदा उसे कम से कम गाय का दूध तो पीने को मिले ही ।

 

२. गोमूत्र और गोबर की माँग का वर्धन किया जाये : गोमूत्र और गोबर का प्रयोग प्राकृतिक खेती हेतु करना उत्तम है, ऐसा बाबा रामदेव आदि महापुरुष बताते हैं । हमें प्राकृतिक खेती से होने वाले तत्कालीन व दूरकालीन लाभ की सूचि बना कर लोगों को, और न केवल किसान को अपितु उपभोक्ताओं को भी, अनेक प्रकार से प्रचार करके यह ज्ञान देना चाहिए जिससे प्राकृतिक फल, सब्जी, अनाज आदि की भी माँग बढ सके ।

 

इसके अलावा आयुर्वेद, जिसका सेवन विश्व में पुनः बढ रहा है, में गोमूत्र और गोबर का प्रयोग पञ्चगव्य आदि औषधियों में होता है । इन औषधियों से होने वाले लाभ से प्रामाण सहित लोगों को अवगत कराना आवश्यक है । इसके अलवा, जो औषधियाँ घर में ही बनायी जा सकें, उनकी जानकारी, बनाने की विधि, लेने की विधि मात्रा आदि सम्बन्धी जानकारी लोगों को निःशुल्क दी जाए । गोबर के उपले को जलाने से मच्छर नहीं आते, इस प्रकार की जानकारी भी सरलता से उपलब्ध हो । जगह जगह इसके पोस्टर लगाए जा सकते हैं । जगह जगह पर इस कर्म में लगे कार्यकर्ता इन विषयों पर सहजता से चर्चा करें तो लाभ होगा ।

 

इन्धन के रूप में गोबर के प्रयोग से होने वाले लाभ के ज्ञान से भी सभी अवगत हों, और यह इन्धन सरलता से उपलब्ध हो ।

 

३. चिकित्सकों को शिक्षित करें : केवल आयुर्वेद के ही नहीं, अपितु एलोपैथी व होम्योपैथी के चिकित्सकों को भी गाय के प्राकृतिक दूध से होने वाले लाभ से व इन्जेक्शन युक्त दूध से होने वाली हानि से अवगत कराना आवश्यक है, जिससे कि वे रोगियों को गाय के दूध के प्रति प्रोत्साहित कर सकें । इससे जन-मानसिकता पर महान् प्रभाव पडेगा, क्यूँकि चिकित्सक की बात को रोगी मानता ही है । चिकित्सक रोगियों को सहजता से समझा सकते हैं कि गाय का दूध कुछ अधिक महँगा होने के बावजूद भी दवाइयों की अपेक्षा सस्ता ही है ।

 

गाय-भैंस के चिकित्सकों को भी उन्हें लगाए जा रहे इन्जेक्शन से होने वाली हानि से अवगत कराते हुए उन्हें जन-सामान्य को इससे सचेत करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा ।

 

४. गो-उत्पाद केन्द्रों की स्थापना : हर नगर में गो-उत्पाद केन्द्रों की स्थापना हो, जो कि गाय के क्रय में इच्छुक की सहायता करें और मूल्य नियन्त्रित करें, गो-उत्पादों के विक्रय में सहायता करें, गो-स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी उपलब्ध कराएँ और गो-वैद्य भी उपलब्ध कराएँ । गो-उत्पादों के विक्रय-वितरण में भी ये केन्द्र महती भूमिका निभा सकते हैं । एक विचार यह भी है कि सर्वत्र विद्यमान गोशालाओं से ही बात करके इन्हें ही गो-उत्पाद केन्द्र मान लिया जाए । भेद यह है कि सभी गो-उत्पाद केन्द्र एक क्षेत्रीय मुख्य केन्द्र से सञ्चालित होंगे, और सारे क्षेत्रीय केन्द्र एक अखिल भारतीय मुख्य केन्द्र से सञ्चालित होंगे । इससे एक केन्द्र के उत्पाद आवश्यकतानुसार दूसरे स्थान पर विक्रय किए जा सकते हैं । मुख्य केन्द्र का सञ्चालन प्रायः बाबा रामदेव की संस्था पतन्जली योगपीठ द्वारा किया जा सकता है ।

 

५. एक गो-स्वामी, एक गो-पालक : आज लोगों के जीवन में गति इतनी अधिक हो गयी है कि गाय रखने और उसके पालन पोषण का लोगों के पास समय नहीं है । शहरों में रह रहे लोगों के पास तो घर में गाय रखने की जगह भी नहीं है, और जिनके पास जगह है भी, वे गाय के गोबर आदि को गन्दगी समझ कर गाय नहीं रखना चाहते । लेकिन क्यूँ न लोगों को विकल्प दिया जाये, कि आप की गाय का पालन पोषण कोई और करेगा, और वह भी अन्य स्थान पर ? और आप को मिलेगा आपकी अपनी देसी गाय का शुद्ध व प्राकृतिक अमृततुल्य दूध ! ऐसे बहुत से विकल्प हम लोगों को दे सकते हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं ।

 

५.अ. अपनी गाय का दूध पीने का इच्छुक, गो-स्वामी, गाय का क्रय करे । गाय का पालन अपने घर में करने का एक इच्छुक, गो-पालक, ढूँढा जाये, जिसे उचित वेतन मिले । गाय का बछडे के पीने के बाद का सारा दूध गो-स्वामी को मिले, अथवा यदि उसे अधिक आवश्यकता नहीं है तो बचा हुआ दूध गो-पालक क्रय कर ले, या फिर किसी अन्य इच्छुक को विक्रय किया जाये जिससे होने वाली आय से गो-पालक का वेतन निकल जाये । अथवा गाय की देख रेख के लिए अनिवार्य धन के रूप में इस आय का प्रयोग हो, जो कि अन्यथा गो-स्वमी को व्यय करना होगा । गोमूत्र व गोबर का विक्रय गो-उत्पाद केन्द्र को अथवा अन्यत्र किया जाये और उससे होने वाली आय का उपयोग गो-पालक के वेतन प्रति अथवा गाय की देख रेख प्रति किया जाए ।

 

५.आ. शुद्ध व गुणयुक्त दूध पीने का इच्छुक धनिक गाय का क्रय कर के उसे एक निर्धन गोपालक को दे दे, और पूर्वनिर्धारित मूल्य पर गोपालक धनिक की आवश्यकतानुसार उसे दूध, घी, छाछ आदि का क्रय करे । गाय की देख रेख व उसके लिये अनिवार्य धन की आपूर्ति का दायित्व पूर्णतः गो-पालक का ही हो । बचे हुए दूध और बाकी उत्पादों के विक्रय से होने वाली आय पर अधिकार गो-पालक का ही हो । इस विकल्प में धनिक को केवल एक बार भारी व्यय करना पडेगा, उसके बाद उसका कोई दायित्व नहीं होगा और उसे शुद्ध दूध की प्रत्याभूति (गारण्टी) होगी । उसे गो-पालक को वेतन नहीं देना होगा ।

 

५.इ. ऊपर के दोनों बिन्दुओं में एक विकल्प यह हो सकता है कि गो-पालक गाय का पालन पोषण अपने स्थान पर न करके गो-उत्पाद केन्द्र की भूमि पर (या गोशाला में) करे । यह कुछ गोपालकों के लिए अधिक सुविधाजनक हो सकता है और इससे देख रेख के लिये अनिवार्य राशि प्रति गाय कम की जा सकती है ।

 

यहाँ कुछ शोध आवश्यक है, जैसे कि अलग अलग (भारतीय) नस्ल की गाय के क्रय करने के लिए कितना धन आवश्यक है? गाय की देख रेख के लिए कितना धन आवश्यक है? गाय कितना दूध देगी? गो-पालक को कितना वेतन दिया जाए? इन सभी की सूचि बना कर गो-स्वामी को सरलता से उपलब्ध कराई जाए । इस कार्य में भी गो-उत्पाद केन्द्र सहायता कर सकते हैं ।

 

६. गोदान की परम्परा प्रचलित हो : हमारी संस्कृति में गोदान को उत्तम दान माना गया है । हमें प्रयत्न करना होगा कि यह परम्परा भारत के सभी भागों में पुनः प्रचलित हो । दान वो है जहाँ किसी भी रूप में प्रतिदान की आशा न हो । इसलिए यह ४.आ में कहे गए विकल्प से कुछ भिन्न है ।

 

इसको सिद्ध करने के लिए एक विचार मन में आता है । गो-दान एक महापुण्यदायी धार्मिक कार्य है । परन्तु केवल धनिक ही गो-दान करने में समर्थ हो सकता है, न कि एक निर्धन व्यक्ति । तो हमें धनिकों के निवास क्षेत्रों के समीप स्थापित प्रत्येक मन्दिर के पुजारी को अपने साथ गो-संरक्षण के इस पुण्य कार्य में जोडना होगा । और उन्हें प्रेरित करना होगा कि वे जिस भी परिवार में सामर्थ्य देखें, वहाँ लोगों को गो-दान के लिए प्रेरित करें । गो-दान से होने वाले लाभ जिनका विवरण शास्त्रों में है, उनकी जानकारी पुजारियों के माध्यम से धनिक परिवारों तक पहुँचाई जाए । इस पर बहुत जोर दिया जाए । जब एक बार कुछ परिवार गो-दान कर दें, तब अन्य परिवारों को उनका उदाहरण दिया जाए । इस कार्य को सम्यक् सिद्ध करने के लिए हमें सर्वप्रथम एक नीति बनानी होगी ।

 

७. निर्धनों के बच्चों के लिए निःशुल्क शुद्ध दूध : हम सभी गो-स्वामियों को प्रेरित करें कि वे प्रतिदिन थोडा सा गाय का दूध निर्धनों के बच्चों के लिए दान करें । गो-उत्पाद केन्द्र इस दान दिए दूध को एकत्र कर प्रतिदिन कुछ निर्धनों के बालकों और कन्याओं को निःशुल्क ये दूध पीने के लिए दें । इससे अनेक लाभ होंगे । गाय का दूध जो भी पीयेगा, उसका तन और मन तो सशक्त होंगे ही । मन तमस् और रजस् से सत्त्व की ओर भी आयेगा । कहते हैं “जैसा खाओ अन्न, वैसा हो मन” इति । इन निर्धनों के बच्चों में गाय के प्रति श्रद्धा बढेगी, जिससे बडे होकर ये भी गो-संरक्षण के कार्य में योगदान देंगे । यह श्रद्धा जन जन में और विशेषतः बच्चों में विकसित करनी अत्यन्त आवश्यक है । दान का महत्त्व भी इन बच्चों को समझ में आयेगा और ये भी बडे होकर निर्धन के प्रति संवेदनशील बनेंगे ।

 

समापन :

 

उपर्युक्त सभी विचारों को सिद्ध करने से गो-संरक्षण के कार्य को तीव्र गति मिल सकती है । इस महाकर्म को करने हेतु हमें एक सङ्गठन की आवश्यकता होगी । एक नया सङ्गठन रचने का न तो हमारे पास समय है, और प्रायः न ही आवश्यकता । क्यूँकि यह एक महान् और धार्मिक कार्य है और धर्म के कार्यों में देश में अनेक सङ्गठन लगे हुए हैं । आवश्यकता है इन्हें इस कार्य के लिए एक साथ जोडने की । इसलिए मेरा मत यह है कि इन विचारों पर हम समाज सेवा में पूर्वकाल से ही कार्यरत सङ्गठनों से चर्चा करें । पतन्जली योगपीठ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक सङ्घ, शान्तिकुञ्ज, आर्य समाज आदि कुछ ऐसे सङ्गठन मन में आते हैं, जो इस कार्य की कमान सम्भाल सकते हैं । ये सङ्गठन या इनके गो-संरक्षण हेतु कार्यरत अङ्ग मिल कर भी इस कार्य को कर सकते हैं, जिससे कि तीव्र गति से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचा जा सके । सभी सेवकों को साथ में बैठ कर सहमति बना कर आगे बढना उत्तम होगा । आखिर सुनने में आता है कि १८५७ के स्वतन्त्रता सङ्ग्राम में यदि सभी स्वतन्त्रता-सेनानी दल मिल कर युद्ध करते, तो भारत की स्वतन्त्रता ९० वर्ष पूर्व ही सिद्ध हो जाती । अतः हमें सबसे पहले इस विषय में जन जागृति को एक शान्तिपूर्ण आन्दोलन का रूप देना ही होगा, जिसके लिए एक मुख्य केन्द्र से सञ्चालन आवश्यक है । यह शीघ्र ही नहीं किया गया तो भरतीय मूल की गाय माता व उसके अमृततुल्य दूध का अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं दिख रहा है ।

मानव गर्ग

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मानव गर्ग
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नवदेहली से विद्युत् अभियन्त्रणा विषय में सन् २००४ में स्नातक हुआ । २००८ में इसी विषय में अमेरिकादेसथ कोलोराडो विश्वविद्यालय, बोल्डर से master's प्रशस्तिपत्र प्राप्त किया । पश्चात् ५ वर्षपर्यन्त Broadcom Corporation नामक संस्था के लिए, digital communications and signal processing क्षेत्र में कार्य किया । वेशेषतः ethernet के लिए chip design and development क्षेत्र में कार्य किया । गत २ वर्षों से संस्कृत भारती संस्था के साथ भी काम किया । संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन के साथ साथ क्षेत्रीय सञ्चालक के रूप में संस्कृत के लिए प्रचार, कार्यविस्तार व कार्यकर्ता निर्माण में भी योगदान देने का सौभाग्य प्राप्त किया । अक्टूबर २०१४ में पुनः भारत लौट आया । दश में चल रही भिन्न भिन्न समस्याओं व उनके परिहार के विषय में अपने कुछ विचारों को लेख-बद्ध करने के प्रयोजन से ६ मास का अवकाश स्वीकार किया है । प्रथम लेख गो-संरक्षण के विषय में लिखा है ।

7 COMMENTS

  1. लेखक की लेखन क्षमता बहुत उत्तम है. विषय की क्रमबद्धता व सुचारू तारतम्य से लेखक की मानसिक क्षमता और बुद्धीमत्ता का परिचय मिलता है. समय क् साथ विषय और परिमार्जित होगा.

  2. satyarth Prakash : जीव हत्या और मांसाहार

    ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने न केवल मांसाहार का निशेध किया है बल्कि यह भी कहा है कि मांसाहारी मनष्‍यों का संग करने व उनके हाथ का खाने से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगता है। यह भी लिखा है कि पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्‍यों की हत्या करने वाला जानिए। (10-25) एक आर्य समाज के विद्वान से कुछ खास विषयों पर चर्चा हुई, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी अन्य सारी बातें मानने को तैयार हूँ मगर जीव हत्या कर मांस खाने को मैं धर्मशास्त्र व मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं मानता। निरीह, मूक पशु-पक्षियों को काट कर खाना न केवल निंदित व निषिद्ध है, बल्कि जघन्य अपराध भी है।

    उन्होंने यहां तक भी कहा कि जो कौमे पशुओं को ज़िब्ह करती हैं, वो कट्टर, बेदर्द और बेरहम हो जाती हैं और उन कौमों को फिर मनुष्‍यों को मारने व काटने में कोई दया व हिचक महसूस नहीं होती। मैंने उनसे पूछा कि जो लोग भ्रूण हत्या कर रहे हैं, अपनी ही निरीह, मूक व निपराध संतान की पेट में ही टुकड़े-टुकड़े कराकर निर्दयता के साथ हत्या करा रहे हैं क्या उनकी यह कट्टरता पशुओं को ज़िब्ह करने व मांस खाने का परिणाम हैं ? क्या इससे अधिक कट्टरता व बेरहमी कोई और हो सकती है ? क्या यह मनुष्‍्य की बेदर्दी की पराकाष्‍ठा नहीं है ?

    मैंने उनसे पूछा कि आप बताइए “शेर मांस क्यों खाता है ? उन्होंने कहा कि जानवरों में बुद्धि नहीं होती, उनको अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। अगर मनुष्‍य भी ऐसा ही करता है तो फिर उसमें व जानवरों में अंतर ही क्या रहा ? मैंने उनसे कहा कि हाथी मांस नहीं खाता तो क्या वह बुद्धिमान होता है ? उन्होंने दोबारा अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि मांस तामसी भोजन है, इसको खाने से बुद्धि भी तामसी हो जाती है, ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा हो जाए मन’’ मांस मानव बुद्धि व शरीर दोनों के लिए हानिकारक है।

    मैंने उनसे कहा कि वैज्ञानिकों का बौद्धिक स्तर सबसे ऊंचा होता है, शायद ही विश्‍व में कोई वैज्ञानिक ऐसा हो जो मांस न खाता हो। क्या उनकी बुद्धि को तामसी कहा जा सकता है ? बाद में उन्होंने इस विषय को पूर्वकृत कर्मों के परिणामों से जोड़कर चर्चा समाप्त कर दी। एक अन्य आर्य समाज के विद्वान ने ‘‘आतंकवाद, समस्या व समाधान’’ विषय पर बोलते हुए कहा कि आतंकवाद का प्रमुख कारण मांसाहार है। तामसी भोजन खाने से बुद्धि तामसी हो जाती है फिर मनुष्‍य को आतंक ही सूझता है। अगर विश्‍व में मांसाहार पर पाबंदी लगा दी जाए तो आतंकवाद की समस्या का समाधान हो सकता है। उनका इशारा तो एक विशेष क़ौम की तरफ़ था, मगर मांस तो विश्‍व की सभी क़ौमे खाती हैं।
    वनस्पति वैज्ञानिक अनेक शोधों द्वारा इस अंतिम निश्‍कर्ष पर पहुंच गए हैं कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है कि मनुष्‍य, पशु व पेड़-पौधों आदि में जीव एक जैसा है जो कर्मानुसार एक योनि से दूसरी योनि में आता जाता रहता है। (9-75) इसलिए न तो केवल पशु-पक्षियों आदि को खाना महा पाप हुआ बल्कि पेड़-पौधों को खाना भी जघन्य अपराध हुआ।
    पशु-पक्षियों को अगर ज़िब्ह किया जाए तो वे अपना विरोध प्रकट कर सकते हैं, मगर पैड़-पौधों से अधिक लाचार व बेबस और कौन होगा जो अपना विरोध तक प्रकट नहीं कर सकते ? उनको काटना व खाना तो और भी अधिक पाप होगा। तो क्या शाक सब्जियों व फलों आदि को भी नहीं खाना चाहिए। अब अगर हम विज्ञान के सत्य को झुठला भी दें कि पेड़- पौधों में जीवन नहीं है तो क्या हम यह भी झुठला सकते हैं कि जिन शाक-सब्जियों व फलों को हम खाते हैं उनको उत्पन्न करने में कितनी बड़ी संख्या में जीवों की हत्या होती है ?

    एक आम के पेड़ पर लगने वाला कड़ी कीड़ा लाखों-करोड़ों की तादाद में होता है। ईख व ज्वार की फ़सल पर लगने वाला पाइरिल्ला एक हेक्टेयर खेत में अरबों-खरबों की तादाद में होता है। चने आदि की फ़सल को लगने वाली सूंडियां व गिडारें कुछ ही दिनों में पूरी फ़सल नष्‍ट कर देती हैं। असंख्य जीवों की हत्या कर किसान गोभी, बैगन, शाक-सब्ज़ी उत्पन्न करता है। अनेक बीमारियों से बचने के लिए हम कीटनाशकक दवाएं प्रयोग करते हैं। घरों में महिलाएं मक्खी, मच्छर, जूं व रसोई घर में रखे दाल, चावल, गेहूं आदि में पैदा होने वाले कीड़ों को मारने में कोई झिझक अथवा ग्लानि महसूस नहीं करती। क्या इन सब जीवों को मारना जीव हत्या के दायरे में नहआता ? क्या इन सबसे बचा जा सकता है ? क्या भैंस, गाय, बकरी आदि को मारने ही को जीव हत्या कहते हैं?

    यह भी विचारणीय है कि हिंदू संगठन केवल गो-हत्या का विरोध करते हैं, जबकि ऊंट, भैंस, बकरा, मछली आदि भी गाय जैसे ही जीव हैं। यह भी विचार यह भी विचारणीय है कि एक तरफ़ तो कर्मानुसार फल भोग की बात करते हैं दूसरी तरफ जीव हत्या को पाप व जघन्य अपराध की संज्ञा देते हैं। अफ़सोस इस बात का है कि धर्मशास्त्र व विज्ञान दोनों की अनुमति के बावजूद भी इस विषय को विवाद का विषय बनाया गया व बनाया जा रहा है और कुछ मांस खाने वाले हिंदू भाई भी रुग्ण मानसिकता का शिकार होकर मांसाहार का विरोध कर रहे हैं।

    हमारे एक साथी जो मांसाहार का पुरजोर विरोध करते हैं, बारह ज्योति-लिंगों के दर्शन हेतु भारत भ्रमण पर निकले। वापसी होने पर यात्रा के सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चा हुई। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि दक्षिण भारत के लोग उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। मैंने उनसे पूछा कि दक्षिण भारत के लोग मांसाहारी होते हैं और आपके अनुसार मांस खाना पाप व अधार्मिक कृत्य है तो फिर वे लोग धार्मिक कहाँ, पापी हैं। उन्होंने अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि दक्षिणी भारत की भौगोलिक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि वहां मांस खाने को पाप नहीं कहा जा सकता। ये विचार किसी आम व्यक्ति के नहीं बल्कि वर्ग विशेष में अपनी एक खास पहचान रखने वाले व्यक्ति के हैं।
    अनेक बीमारियों की दवाएं ऐसी हैं जिनको अनेक पशु-पक्षियों के अंशों से बनाया जाता है। कुछ खास बीमारियां जैसे – सांस, क्षयरोग आदि में चिकित्सक बकरा, मछली व पक्षियों आदि का मांस खाने की सलाह देते हैं। किसानों की अत्याधिक मांग पर उत्तर प्रदेश सरकार ने नील गाय को नील घोड़ा नाम देकर मारने के शसनादेश जारी किए हैं, ताकि वे किसानों की खड़ी व पकी फ़सल को बरबाद न करें। चूहों से फसल को बचाने के लिए सरकार गीदड़ों की व्यवस्था करती है। भारत के कई राज्यों जैसे तमिलनाडु, पश्चिमी बंगाल व उत्तराखण्ड आदि में गैर-मुस्लिम समाज में बलि की प्रथा प्रचलित है जो बड़ी निर्दयता व निर्भयता से की जाती है। नेपाल में वीरगंज के समीप गढ़ी माई मंदिर में हर वर्ष करीब 200000 (दो लाख) पशुओं की बलि दी जाती है। नाहन (सिरमौर) गिरिपार में माघी के दिन हर वर्ष हजारों बकरों की बलि दी जाती है। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधुकोडा की पत्नी गीता कोडा ने रांची के रजप्पा मंदिर में 11 बकरों की बलि दी (अमर उजाला, 7.11.2009)।

    यह भी विचारणीय है कि जो पशु-पक्षी खाने में इस्तेमाल किए जाते हैं उनकी संख्या में कोई कमी नहीं देखी जा रही है। संख्या के एतबार से देखा जाए तो मछली विश्‍व में सबसे अधिक खाई जाती है मगर मछली का उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है। कुछ जीव जैसे शेर, हाथी आदि खाने में इस्तेमाल नहीं होते, उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। यह भी विचारणीय है कि विश्‍व में बहुत से देश ऐसे हैं जो केवल पूरी तरह मांसाहार पर ही निर्भर हैं। ग्रीन लैंड और उत्तरी अमेरिका में समुद्र तटों पर बसने वाली जाति स्कीमों की रोटी, कपड़ा और मकान आदि मानव जीवन की मूलभूत आवश्‍यकताओं की पूर्ति समुद्री जीवों द्वारा ही होती है। उनका जीवन पूर्णतः मांस पर ही निर्भर है।

    यह भी विचारणीय है कि नन्हीं-सी चींटीं व मकड़ी मांसाहारी होती है, जबकि विशालकाय हाथी व ऊँट मांसाहारी नहीं होते। बहुत से मध्यम ऊँचाई के पेड़-पौधे मांसाहारी होते हैं, जबकि विशालकाय वट व पीपल वृक्ष मांसाहारी नहीं होते। बगुले को केला व सेब और छिपकली को हम दाल व चावल खाना नहीं खिला सकते। अगर हमें विश्‍वास है कि कोई सृष्टिकर्ता है तो यह उसी की व्यवस्था है। पृथ्वी पर कोई भी जीव अथवा पौधा मनुष्‍य जाति का मोहताज नहीं है। पीपल, तुलसी, चींटी, बंदर व गाय आदि मनुष्‍य की वजह से जीवित नहीं हैं, मगर मनुष्‍य इन सबके बिना जीवित नहीं रह सकता। सभी जीव-जन्तु व पेड़-पौधे मनुष्‍य जाति की आवश्‍यकता है। वास्तविकता भी यह है कि सृष्टिकर्ता ने इन सबको पैदा ही मनुष्‍य जाति के उपयोग के लिए किया है।

    स्वामी जी ने मांसाहारी मनुष्‍यों को इतना अधिक मलेच्छ, अछूत, घृणित व पापी माना है कि उनके संग करने मात्र से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगने की सम्भावना व शंका व्यक्त की है, तो क्या मांसाहारी मनुष्‍यों का संग करने से बचा जा सकता है ? दूसरी बात बिना जीव हत्या के गेहूं, शाक-सब्जी व फल आदि को पैदा नहीं किया जा सकता, अगर हम कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल न भी करें फिर भी खेत जोतने-खोदने में ही असंख्य जीवों की हत्या होती है, तो क्या बिना गेहूं, शाक-सब्जी व फल आदि खाये बिना मनुष्‍य जिन्दा रह सकता है ? क्या ये आदर्श व सिद्धान्त तार्किक व व्यावहारिक हैं?

    स्वामी जी ने मनुष्‍य, पशु व पेड़-पौधों में जीव एक जैसा बताया है, फिर तो स्वामी जी के मतानुसार पेड़-पौधों को न केवल खाना बल्कि काटना भी पाप व अपराध हुआ, क्योंकि जिन पेड़-पौधों को हम काट रहे हैं, हो सकता है उनमें हमारे ही किसी सगे-संबंधियों की आत्मा वि ं आत्मा विद्यमान हो।

    स्वामी जी की दोनों बातें वेद विरूद्ध तो है हीं, अव्यावहारिक व अतार्किक भी हैं। मांस खाना धर्म शास्त्र व चिकित्सा विज्ञान दोनों की दष्टि से मानव के लिए लाभकारी भी है और मानव की प्रकृति के अनुकूल भी। यह अलग विषय है कि किस पशु-पक्षी का मांस खाया जाए और किसका न खाया जाए तथा किस विधि से काटा जाए। दूसरी बात मानव, पशु व पेड़- पौधों में जीव भी एक जैसा नहीं है, मानव की जीवात्मा कर्म करने में स्वतंत्र व ईश्‍वर के प्रति जवाबदेह है, जबकि पशु व पेड़-पौधे आदि स्वभाव से बंधे हैं, न उन्हें अच्छे-बुरे का ज्ञान है और न ही किसी प्रकार की कोई स्वतंत्रता।

  3. satyarth Prakash : जीव हत्या और मांसाहार

    ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने न केवल मांसाहार का निशेध किया है बल्कि यह भी कहा है कि मांसाहारी मनष्‍यों का संग करने व उनके हाथ का खाने से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगता है। यह भी लिखा है कि पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्‍यों की हत्या करने वाला जानिए। (10-25) एक आर्य समाज के विद्वान से कुछ खास विषयों पर चर्चा हुई, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी अन्य सारी बातें मानने को तैयार हूँ मगर जीव हत्या कर मांस खाने को मैं धर्मशास्त्र व मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं मानता। निरीह, मूक पशु-पक्षियों को काट कर खाना न केवल निंदित व निषिद्ध है, बल्कि जघन्य अपराध भी है।

    उन्होंने यहां तक भी कहा कि जो कौमे पशुओं को ज़िब्ह करती हैं, वो कट्टर, बेदर्द और बेरहम हो जाती हैं और उन कौमों को फिर मनुष्‍यों को मारने व काटने में कोई दया व हिचक महसूस नहीं होती। मैंने उनसे पूछा कि जो लोग भ्रूण हत्या कर रहे हैं, अपनी ही निरीह, मूक व निपराध संतान की पेट में ही टुकड़े-टुकड़े कराकर निर्दयता के साथ हत्या करा रहे हैं क्या उनकी यह कट्टरता पशुओं को ज़िब्ह करने व मांस खाने का परिणाम हैं ? क्या इससे अधिक कट्टरता व बेरहमी कोई और हो सकती है ? क्या यह मनुष्‍्य की बेदर्दी की पराकाष्‍ठा नहीं है ?

    मैंने उनसे पूछा कि आप बताइए “शेर मांस क्यों खाता है ? उन्होंने कहा कि जानवरों में बुद्धि नहीं होती, उनको अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। अगर मनुष्‍य भी ऐसा ही करता है तो फिर उसमें व जानवरों में अंतर ही क्या रहा ? मैंने उनसे कहा कि हाथी मांस नहीं खाता तो क्या वह बुद्धिमान होता है ? उन्होंने दोबारा अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि मांस तामसी भोजन है, इसको खाने से बुद्धि भी तामसी हो जाती है, ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा हो जाए मन’’ मांस मानव बुद्धि व शरीर दोनों के लिए हानिकारक है।

    मैंने उनसे कहा कि वैज्ञानिकों का बौद्धिक स्तर सबसे ऊंचा होता है, शायद ही विश्‍व में कोई वैज्ञानिक ऐसा हो जो मांस न खाता हो। क्या उनकी बुद्धि को तामसी कहा जा सकता है ? बाद में उन्होंने इस विषय को पूर्वकृत कर्मों के परिणामों से जोड़कर चर्चा समाप्त कर दी। एक अन्य आर्य समाज के विद्वान ने ‘‘आतंकवाद, समस्या व समाधान’’ विषय पर बोलते हुए कहा कि आतंकवाद का प्रमुख कारण मांसाहार है। तामसी भोजन खाने से बुद्धि तामसी हो जाती है फिर मनुष्‍य को आतंक ही सूझता है। अगर विश्‍व में मांसाहार पर पाबंदी लगा दी जाए तो आतंकवाद की समस्या का समाधान हो सकता है। उनका इशारा तो एक विशेष क़ौम की तरफ़ था, मगर मांस तो विश्‍व की सभी क़ौमे खाती हैं।
    वनस्पति वैज्ञानिक अनेक शोधों द्वारा इस अंतिम निश्‍कर्ष पर पहुंच गए हैं कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है कि मनुष्‍य, पशु व पेड़-पौधों आदि में जीव एक जैसा है जो कर्मानुसार एक योनि से दूसरी योनि में आता जाता रहता है। (9-75) इसलिए न तो केवल पशु-पक्षियों आदि को खाना महा पाप हुआ बल्कि पेड़-पौधों को खाना भी जघन्य अपराध हुआ।
    पशु-पक्षियों को अगर ज़िब्ह किया जाए तो वे अपना विरोध प्रकट कर सकते हैं, मगर पैड़-पौधों से अधिक लाचार व बेबस और कौन होगा जो अपना विरोध तक प्रकट नहीं कर सकते ? उनको काटना व खाना तो और भी अधिक पाप होगा। तो क्या शाक सब्जियों व फलों आदि को भी नहीं खाना चाहिए। अब अगर हम विज्ञान के सत्य को झुठला भी दें कि पेड़- पौधों में जीवन नहीं है तो क्या हम यह भी झुठला सकते हैं कि जिन शाक-सब्जियों व फलों को हम खाते हैं उनको उत्पन्न करने में कितनी बड़ी संख्या में जीवों की हत्या होती है ?

    एक आम के पेड़ पर लगने वाला कड़ी कीड़ा लाखों-करोड़ों की तादाद में होता है। ईख व ज्वार की फ़सल पर लगने वाला पाइरिल्ला एक हेक्टेयर खेत में अरबों-खरबों की तादाद में होता है। चने आदि की फ़सल को लगने वाली सूंडियां व गिडारें कुछ ही दिनों में पूरी फ़सल नष्‍ट कर देती हैं। असंख्य जीवों की हत्या कर किसान गोभी, बैगन, शाक-सब्ज़ी उत्पन्न करता है। अनेक बीमारियों से बचने के लिए हम कीटनाशकक दवाएं प्रयोग करते हैं। घरों में महिलाएं मक्खी, मच्छर, जूं व रसोई घर में रखे दाल, चावल, गेहूं आदि में पैदा होने वाले कीड़ों को मारने में कोई झिझक अथवा ग्लानि महसूस नहीं करती। क्या इन सब जीवों को मारना जीव हत्या के दायरे में नहीं आता ? क्या इन सबसे बचा जा सकता है ? क्या भैंस, गाय, बकरी आदि को मारने ही को जीव हत्या कहते हैं?

    यह भी विचारणीय है कि हिंदू संगठन केवल गो-हत्या का विरोध करते हैं, जबकि ऊंट, भैंस, बकरा, मछली आदि भी गाय जैसे ही जीव हैं। यह भी विचारणीय है कि एक तरफ़ तो जीव को आदि अमर व अजर बतलाते हैं दूसरी तरफ जीव हत्या की बात करते हैं। यह भ

  4. modi ji se puchhna chahiye ki pradhanmantri bankar gauhatya rokne ke sthan par mans niryat me vriddhi kyo ho raha hai. modi ji jhooth bolte hai, kasaiyo se mile huye hai. r.s.s. bhi mans ke vyapar me shamil ho raha hai. bjp ram ki bhakti chhodkar musalmano ki gulami kar raha hai. vishva hindu parishad bhi Vainkayya naidu jaise mansahari rakshaso ke sath milkar hinduo ko galat raste par le ja raha hai. baba ramdev ke patanjali yogpith me bhi mans ki kamai lag raha hai isiliye vah bhi chup hai. gohatyare in sab papiyo ko parmatma shighra atishighra dand dekar shiksha deve. r.s.s. (bjp, vhp) ka namonisham vaise hi mitne vala hai jaise congress ka mit raha hai.

  5. हमें सबसे पहले इस विषय में जन जागृति को एक शान्तिपूर्ण आन्दोलन का रूप देना ही होगा, जिसके लिए एक मुख्य केन्द्र से सञ्चालन आवश्यक है । यह शीघ्र ही नहीं किया गया तो भरतीय मूल की गाय माता व उसके अमृततुल्य दूध का अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं दिख रहा है ।

    मानव गर्ग

    (1)Bahut tark-shuddh aur satyon par aadhaarit aalekh.
    Pravakta ko ek saksham lekhak bhi praapt huaa.

    (2) Australia ne shuddh Bharatiy vansh ki gau ko shreshth maanaa hai. hamen hamaari hauon ki shuddhi ka dhyan rakhana hoga.

    Maanav Garg is ishwari karya men saphal ho. Dr. Rajesh kapoor ji se sampark karen. ven isi karyamen men dridhata se karyarat hai.

    Shubhecchaaen.
    Dr. Madhusudan

    • मान्यवर मधु जी,

      आपके द्वारा दिया गया प्रोत्साहन मुझे मानसिक बल देता है । बहुत बहुत धन्यवाद । यदि लेख में कोई कमी दिखी हो तो कृपया वह भी दर्शाएँ, इससे मैं अपनी लेखनशैली को परिष्कृत कर सकूँगा ।

      कृपया माननीय रजेश कपूर जी से सम्पर्क कराने में सहायता करें । क्या उनका कोई जालपुट (webpage) है, या कोई लेख किसी जालपुट पर है? यदि है तो कृपया वह जालपुट-सङ्केत सूचित करें ।

      भवदीय मानव ।

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