
देश में आज बौद्धिक विमर्श घहरे संकट के दौर से गुजर रहा है। अब सेलेक्टिव होकर मुद्दें और विमर्श के विषय तय किए जा रहे हैं। तरह- तरह के प्रायोजित शब्द और परिभाषाएं गढ़ी जा रही है। कभी असहिष्णुता तो कभी भय का वातावरण तैयार कर राजनीतिक प्रोपेगेंडा को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिन मुद्दों पर तथाकथित सेक्युलर्स और वामपंथ के विचारों को प्रायोजित करने में बल मिलता है उन विषयों पर तो खूब शोर – शराबा हो रहा है। लेकिन जिन मुद्दों पर वे बेनकाब होते हैं, उनके प्रायोजित और सुनियोजित सेक्युलिरिज्म का नकाब उतर जाता हैं, वहां वे खामोश हो जाते हैं। न कुछ लिख पाते हैं, न कुछ बोल पाते हैं, उल्टे उसे जस्टिफाई भी करने लगते हैं। हत्या या अपराध किसी के खिलाफ हो , उसे स्वस्थ समाज में कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उसका चौतरफा विरोध होना ही चाहिए। लेकिन अगर सेलेक्टिव होकर हत्या और अपराध के मुद्दे तय किए जाए, सेलेक्टिव होकर उनको प्रायोजित और प्रचारित किया जाए, जनमानस के मन में जहर घोला जाए, यह ठीक नहीं है।
हाल के दिनों में संघ के कार्यकर्ताओं के खिलाफ हमले और अपराध की घटनाएं बढ़ी है। कई स्वयंसेवक मौत के घाट उतार दिए गए हैं। लेकिन स्वयंसेवकों के खिलाफ हमले को लेकर एक तथाकथित बौद्धिक वर्ग खामोश है। वह सेलेक्टिव होकर मौन है। कुछ तो ऐसे भी हैं जो इन हमलों को जस्टिफाई भी कर देते हैं। यही बौद्धिक वर्ग दूसरे लोगों की हत्या और हमलों पर चीख चीख कर शोर मचाते हैं, आंदोलन करते हैं, अवार्ड वापस करते हैं, देश में भय का वातावरण तैयार करते हैं। लेकिन संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या पर खामोश हैं।
हाल ही में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक ही परिवार के तीन लोगों की हत्या कर दी गई। गर्भवती पत्नी, पति और उनके आठ साल के बच्चे की हत्या कर दी गई। पश्चिम बंगाल में संघ के कार्यकर्ताओं की यह कोई पहली हत्या नहीं हैं। हाल के दिनों में कई स्वयंसेवकों की निर्मम हत्या की गई है। सिर्फ बंगाल ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी संघ के स्वयंसेवकों को निशाना बनाया जा रहा है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में भी संघ कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। मध्यप्रदेश में भी दिन दहाड़े विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। केरल में तो चुन – चुन कर स्वयंसेवकों की हत्या की गई। लेकिन इन हमलों का उस तरह प्रतिकार नहीं किया गया जिस तरह होना चाहिए। स्वयंसेवकों की हत्या पर किसी को देश में असहिष्णुता नजर नहीं आती है, कोई अवार्ड वापस नहीं करता है और न ही किसी को भय दिखता है, मानवाधिकार के रक्षकों के इन हत्याओं पर आंसू क्यों नहीं टपकते, उनको तकलीफ क्यों नहीं होती। पिछले दिनों एमपी के सिवनी में खुले में शौच करने गए दो दलित बच्चों की निर्मम हत्या कर दी गई। इन मासूमों की हत्या में भी लोग राजनीति करने से नहीं चुके। प्रशासन की विफलता पर प्रश्न करने की बजाए कुछ लोग स्वच्छ भारत अभियान पर ही सवाल करने लगे। आखिर ये दोहरा चरित्र क्यों है?