क्रांतियां कैसे क्रांतियों को निगल जाती हैं, इसका ताजा उदाहरण हमें मिस्र दे रहा है। अभी सिर्फ सवा साल बीता है और वह सरकार काल के गाल में समा गई, जो मुबारक-विरोधी आंदोलन की लहर पर सवार होकर तख्त पर बैठी थी। होस्नी मुबारक की 30 साल पुरानी तानाशाही को जनाक्रोश की लहर ने सूखे पत्ते की तरह उड़ा दिया था और उसकी जगह पहली बार मिस्र में जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार बनी थी, लेकिन ‘इखवानुल मुसलमीन’ (इस्लामी-ब्रदरहुड) के नेता राष्ट्रपति मुहम्मद मुर्सी की सरकार आखिर इतनी जल्दी उखड़ क्यों गई? जिस फौज ने अपने तानाशाह मुबारक का तख्ता पलट किया था, उसी फौज ने मुर्सी को भी चलता कर दिया। ‘इखवान’ के लाखों कार्यकर्ता अपने नेता की गद्दी क्यों नहीं बचा पाए?
मुर्सी ने पिछले साल जैसे ही राष्ट्रपति की गद्दी संभाली, पूत के पांव पालने में दिखाई पड़ने लगे। उन्होंने सिर्फ 51 प्रतिशत वोट से जीतने के बावजूद अपनी सरकार का इखवानीकरण करना शुरू कर दिया। अन्य दलों और संगठनों से खुला सहयोग मांगने की बजाय उन्होंने मंत्रिमंडल में अपनी पार्टी के लोग भर लिए। 17 राज्यपाल नियुक्त किए। उनमें से सात अपनी पार्टी और कई फौज के लोग लाद दिए।
संविधान में संशोधन करके राष्ट्रपति को लगभग निरंकुश अधिकार देने की कोशिश की, जिसका डटकर विरोध हुआ। मिस्र के दस प्रतिशत कॉप्टिक ईसाइयों को भी अलगाव महसूस होने लगा। मुर्सी और इखवान के नेता यह मान बैठे थे कि मिस्र में जो तानाशाही का खात्मा हुआ, उसका श्रेय सिर्फ इखवानुल मुसलमीन को है। दूसरे संगठनों और आम लोगों की उसमें कोई खास भूमिका नहीं थी। वे यह भूल गए कि वह तख्ता-पलट अचानक उभरे जनाक्रोश का ही परिणाम था। यह बात दूसरी है कि इखवान सर्वाधिक संगठित संस्था थी, इसलिए उसका उम्मीदवार जीत गया।
‘इखवान’ के संगठित होने के बावजूद कई शहरों में उसके दफ्तरों को जला दिया गया और जब फौज ने मुर्सी को हटा दिया तो लाखों लोग सड़कों पर जश्न मनाने के लिए उमड़ पड़े। ‘इखवान’ के अध्यक्ष मुहम्मद बादी और उनके नायब खेरातुल-शातिर सहित चार सौ नेता जेल की हवा खा रहे हैं और मुख्य न्यायाधीश अदली मंसूर को राष्ट्रपति की शपथ दिला दी गई है। फौज के पास इतनी हिम्मत कैसे आई? जो फौज नेपथ्य में चली गई थी, उसे दोबारा मैदान में क्यों आना पड़ा? इसलिए कि लगभग सवा दो करोड़ लोगों ने मुर्सी-विरोधी अपील पर दस्तखत किए थे और जो लोग साल-डेढ़-साल पहले मुर्सी का समर्थन कर रहे थे, वे भी उनके विरोधी हो गए थे।
मुर्सी के इतने अलोकप्रिय होने का प्रमुख कारण यह भी था कि अर्थव्यवस्था में जरा भी सुधार नहीं हो पाया था। मुर्सी ने अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से बड़ा कर्ज लेते समय उसकी यह शर्त मान ली थी कि आम लोगों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में कटौती की जाए और सेल्स टैक्स बढ़ा दिया जाए। अमेरिका से मिलने वाले डेढ़-दो बिलियन डॉलर के अनुदान से केवल फौज का पेट भरा जा रहा था।
आम आदमी के दिल-ओ-दिमाग पर यह प्रभाव पड़ा कि मुर्सी अमेरिका की कठपुतली बने हुए हैं। उनमें और मुबारक में फर्क क्या है? वे इजरायल का समर्थन करते हैं और सीरिया की असद-सरकार का विरोध करते हैं। लोगों के इस राजनीतिक मोहभंग पर आर्थिक कठिनाइयों की मार ने जनाक्रोश की नई धार चढ़ा दी। बेरोजगारी और महंगाई ने नौजवानों को एक बार फिर तहरीर चौक पर बुलावा दे डाला। जहां तक सरकार और न्यायपालिका का संबंध है वह भी मुर्सी के शासनकाल में लगभग चौपट हो गई। संसद भंग कर दी गई। मानव अधिकारों का भी उल्लंघन होता रहा। जो क्रांति आम जनता की तोप बन गई थी, वह मुर्सी के शासनकाल में ‘इखवान’ की तूती बन गई।
इसमें शक नहीं कि ‘इखवान’ के कार्यकर्ताओं का जोश अभी ठंडा नहीं पड़ा है, लेकिन जरा देखिए कि फौज ने जब मुर्सी को हटाया तो कौन-कौन लोग फौज के समर्थन में मंच पर आ जमे। शक्तिशाली कॉप्टिक चर्च के बिशप, अल-अजहर के इमाम, नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद अल-बरदेई, बागी नौजवानों (तम्मरुद) के नेता तथा सलाफियों की उस ‘अल-नूर पार्टी’ के नेता भी, जो कल तक मुर्सी की सरकार का हिस्सा थे। यहां तक कि ‘इखवान’ में भी फूट के आसार हैं।
इस्लामी कट्टरवाद और लोकतंत्र के बीच चल रही खींचतान ने इस 85 साल पुराने आंदोलन को भी कमजोर कर दिया है।
मुर्सी के हटाए जाने को मिस्री फौज तख्ता-पलट नहीं कह रही है। वह नए राष्ट्रपति के नेतृत्व में शीघ्र ही चुनाव करवाने वाली है। वह स्वयं सत्ता संभालने को तैयार नहीं है। यह अच्छी बात है। इसी पर्देदारी के कारण इस तख्ता-पलट को तुर्की के अलावा किसी भी देश ने लोकतंत्र की हत्या नहीं कहा है। ओबामा ने चिंता जाहिर जरूर की है, लेकिन उन्होंने मिस्री फौज की भत्र्सना नहीं की है और न ही आर्थिक सहायता रोकने की घोषणा की है। भारत, रूस और चीन जैसे देशों ने शांति और अहिंसा की अपील की है और लोकतंत्र की वापसी की कामना की है। अमेरिका को धक्का जरूर लगा है, क्योंकि मुर्सी उसके सुर में सुर मिलाते हुए सीरिया के बागियों, सऊदी अरब, तुर्की और कतर से मिस्र के संबंधों को घनिष्ठ बना रहे थे।
इस समय मिस्र की बागडोर फौज के हाथ में है। मिस्री सेनापति अल-सीसी मुर्सी के चहेते थे और माना जाता था कि उनकी नियुक्ति इसीलिए हुई है कि मिस्री फौज को मुबारक के प्रभाव से मुक्त किया जाए। सेनापति अल-सीसी और नए राष्ट्रपति मंसूर ने ‘इखवान’ से भी सहयोग मांगा है। ऐसा लगता है कि मिस्री फौज लोकतंत्र को दुबारा लाएगी, लेकिन अगर वह चुप रह जाती तो मिस्र में खून की नदियां बहने का अंदेशा हो जाता, क्योंकि ‘तम्मरुद’ (बागी) और ‘इखवान’ के कार्यकर्ता आपस में खून की होली खेले बिना नहीं रहते। फौज की तात्कालिक कार्रवाई सही लगती है, लेकिन यदि मिस्र के लोकतांत्रिक दलों और नेताओं ने आपस में संयम और सहनशीलता का परिचय नहीं दिया तो अब मिस्र दुबारा स्थायी रूप से फौज के हवाले हो जाएगा।
फिलहाल चाहेजो हो लेकिन मिस्र के इस उबाल से ये तय हो गया है क उदार और जम्हूरियत पसंद मुस्लिम भी ab क्त्तर्पन्थियोणके सामने बिना ले हथियार डालनेवाला नही है,