आखिर क्यों?

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50 हजार माहवार फिर भी कम?

-राजेश त्रिपाठी

हमारा देश कई मामले में महान है। यहां सरकार को चुननेवाली जनता का बड़ा हिस्सा फटेहाल, बदहाल और दिनोंदिन बेलगाम बढ़ती महंगाई से बेहाल है। कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हमें शर्म और बेहद कष्ट के साथ कहना पड़ रहा है कि भुखमरी, तंगहाली आज भी देश के किसी न किसी कोने में माताओं को अपने बच्चों तक को मजबूर कर रही है। देश का अन्न भंडार सड़ रहा है और गरीब एक-एक निवाले को तरस रहे हैं। हम विनत हैं अपनी न्यायपालिकाओं के जो गाहे-बगाहे जनता के लिए जनता द्वारा चुनी सरकार को सही सलाह देने से नहीं चूकती।सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनाज सड़ जाये इससे बेहतर है कि जनता में बांट दिया जाना चाहिए। यह और बात है कि सरकार ने साफ कह दिया कि अनाज भले ही सड़ जाये, जनता में नहीं बांटा जा सकता।

भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे देश में न्यायपालिकाएं ही प्रकाश का वह पुंज हैं जो यह उम्मीद जगाती हैं कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ, लचर और नाकारा शासन व्यवस्था में अब भी सुधार हो सकता है। बस जरूरत है तो व्यापक जन जागरण और दृढ़ इच्छा शक्ति की। जो चल रहा है वह चलने देने की प्रवृत्ति से मुक्त हो जनता को यह सोचना होगा कि जो चल रहा है उसमें उसका, देश का कितना हित है। क्योंकि जनतंत्र में सरकारें सबसे पहले जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं और इसका अहसास उन्हें होना चाहिए। गर नहीं है तो कराया जाना चाहिए। चाहे जो भी आगे आये यह सूरत अब तो बदलनी ही चाहिए।

हमारे देश के सांसदों की ‘गरीबी’ एक झटके में दूर हो गयी है। 16 हजार मासिक वेतन पाने वाले सांसदों की तिगुनी वेतन वृद्धि हुई और अब वे माहवार 50 हजार रुपये ‘देश सेवा’ के अपने कार्य के लिए प्राप्त करेंगे। इस वेतन वृद्धि से भी सांसद संतुष्ट नहीं हैं और अपना असंतोष उन्होंने इस कदर जताया कि सदन की कार्यवाही तक ठप कर देनी पड़ी। दरअसल एक संसदीय समिति बनायी गयी थी जिसे सांसदों के वेतन के बारे में विचार करना था। अब सांसद सरकारी सचिवों से वरीय गिने जाते हैं इसलिए सिफारिश यह की गयी थी कि सचिवों से सांसदों को ज्यादा वेतना मिलना चाहिए। संसदीय समिति ने इस लिहाज से सांसद का वेतन 800001 रुपये माहवार करने की सिफारिश की थी। लेकिन केंद्र सरकार ने सांसदों के मूल वेतन में सिर्फ तिगुनी वृद्धि ही की और उसे 16 हजार से बढ़ा कर 50 हजार रूपये माहवार कर दिया। इस वेतन वृद्धि से असंतुष्ट सपा, बसपा, राजद और जद(यू) सांसदों ने जम कर हंगामा मचाया और संसद की कार्यवाही तक रोक देनी पड़ी। शुक्रवार (20 अगस्त) की सुबह संसद की कार्यवाही शुरू होने पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने सांसदों के वेतन का मुद्दा सदन में उठाया।सरकार ने जो वेतन वृद्धि घोषित की थी उससे वे संतुष्ट नहीं थे और मांग कर रहे थे कि वेतन को संसदीय समिति की सिफारिशों के अनुरूप होना चाहिए। लालू प्रसाद यादव ने तो यहां तक कहा कि संसदीय समिति को अपमानित भाया गया है, सांसदों का अपमान हुआ है। मुलायम सिंह यादव व बसपा के सांसदों ने भी लालू का समर्थन किया और जम कर नारेबाजी की। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने सांसदों से अनुरोध किया कि वे सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चलने दें और अपनी बात शून्यकाल में उठायें लेकिन उनकी बात नहीं मानी गयी तो उन्होंने सदन को दोपहर 12 बजे तक के लिए स्थगित कर दिया।

सदन स्थगित हो जाने के बाद लालू यादव और मुलायम यादव व अन्य लोगों ने सदन में ही ड्रामेबाजी शरू कर दी। उन्होंने वर्तमान संसद को भंग कर एक नयी सरकार बना डाली जिसके संयुक्त प्रधानमंत्री लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव बन गये। लोकसभा अध्यक्ष भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे को बनाया गया। यह सारी नौटंकी 2.10 बजे सदन की कार्यवाही समाप्त होने के बाद भी चलती रही। ‘नयी सरकार’ के सांसद उन कुर्सियों में भी जा धंसे जहां लोकसभा के अधिकारी बैठते हैं। बाद में पत्रकारों ने लालू प्रसाद यादव ने जब उनके कुछ पल का प्रधानमंत्री होने के बारे में पूछा तो लालू जी ने अपनी भेदभरी मुसकान और ठसके के साथ कहा-‘ऊ सरकार तो भंग हो गयी। अब ई सरकार है।’ माना लालू जी प्रधानमंत्री पद आपका हसीन सपना है, ईश्वर करें कि वह पूरा हो, आप जैसा धाकड़ नेता एक बार देश संभाले और देश आपको भी आजमा ले लेकिन अभी तो भगवान के लिए संसदीय गरिमा से खिलवाड़ मत कीजिए। आप गाहे-बगाहे मजाकिया ढंग से पेश आते रहे हैं, आप बहुत बड़े कलाकार हैं लेकिन कला के प्रदर्शन के लिए देश पड़ा है संसद को तो बख्श दीजिए और उसकी गरिमा को अक्षुण्ण रहने दीजिए जो देश में ही नहीं विश्व में प्रसिद्ध और सम्मानित है। आप जैसे वरिष्ठ नेताओं से आनेवाली पीढ़ी राजनीति का पाठ पढ़ेंगी, आप उनके आदर्श हैं कम से कम राजनीति में कुछ तो नीति रहने दीजिए। माफ कीजिएगा हमारे यहां गणतंत्र है, जो सरकार दिल्ली में है वह हमारी है, यहां तानाशाही नहीं जनतंत्र है और आप सब जनता के प्रति जवाबदेह हैं। हर वह सांसद जो अपनी नाक ऊंची रखने के लिए सचिव से ज्यादा वेतन चाह रहा है वह अपने देश, अपने क्षेत्र की जनता को क्या जवाब देगा, जिनमें ऐसे लोग भी हैं जिनकी मासिक आय 1000 रुपये से भी कम है। क्या कभी इन सांसदों ने उनन गरीबों के बारे में सोचा है जिनके लिए महंगाई के इस दौर में परिवार चलाना दूभर हो गया है। जिंदगी जिनके लिए बोझ बन गयी है।

केंद्र सरकार ने सांसदों की जो वेतन वृद्धि की है उसमें उनकी बल्ले-बल्ले हो गयी है।50 हजार रूपये मूल वेतन तो उन्हें मिलेगा ही इसके अलावा अन्य सुविधाओं में भी वृद्धि की गयी है। हर संसाद के कार्यालय खर्च की सीमा 20 हजार से बढ़ा कर 40 हजार कर दी गयी है। निर्वाचन क्षेत्र के भत्ते को 20 हजार से बढ़ा कर 40 हजार रुपये कर दिया गया है। निजी वाहन खरीदने से लिए सांसदों के ब्याज मुक्त ऋण की सीमा 1 लाख रुपये से बढ़ा कर 4 लाख रुपये कर दी गयी है। सांसदों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले वाहनों की रोड माइलेज दर को 13 रुपये प्रति किलोमीटर से बढ़ा कर 16 रुपए प्रति किलोमीटर कर दिया गया है। पेंशन लाभ को मौजूदा 8 हजार रुपये प्रति माह से बढ़ा कर 20 हजार रुपये प्रति माह कर दिया गया है। सांसद की पत्नी अब चाहे जितनी बार रेल की प्रथम श्रेणी में यात्रा कर सकेगी। प्रति सांसद को साल में 1 लाख 50 हजार मुफ्त फोन काल की सुविधा मिलेगी। उन्हें तीन लैंडलाइन और 2 मोबाइल फोन दिये जायेंगे। मुफ्त आवास की सुविधा के साथ सरकार घर के फर्नीचर पर 60 हजार रुपये तक का किराया देगी।साल में 50 हजार यूनिय बिजली हर सांसद को मुफ्त मिलेगी। इतनी सारी सुविधाएं भी सांसदों को कम लगती हैं। काश वे अपने उन देशवासियों की सोचते जो सपने में भी ऐसी शान-शौकत की जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते। गरीब जनता के इन सेवकों की ‘गरीबी’ जाने कितने में मिटेगी। आज स्थिति यह है कि एक अनुमान के मुताबिक एक सांसद प्रति वर्ष 21 लाख 8 हजार रुपये पाता है। दोनों सदनों के 787 सांसदों पर सालाना 172 करोड़ रुपये का खर्च आता है। पांच साल के लिए यह खर्च कुल मिला कर 860 करोड़ रुपये पड़ता है।

लाखों रुपये इन सांसदों पर खर्च करने के बाद देश के लिए इसका हासिल क्या है। समय साक्षी है कि ये सांसद संसद की कार्यवाही का अधिकांश समय शोर-शराबे और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप में नष्ट कर देते हैं। संसद की एक-एक दिन की कार्यवाही में अपार धन व्यय होता है जो संसद के सुचारु रूप से न चलने से जाया जाता है। अक्सर जनहित के विधेयक पास नहीं हो पाते और सांसद आपसी नोंकझोंक में ही संसद सत्र का ज्यादा वक्त खा जाते हैं। संसद में इनमें से अनेक ऐसे आचरण करते हैं कि देख कक ताज्जुब होता है कि जिन पर देश की दशा सुधारने और उसे सही दिशा देने का भार है वे किस तरह आपसी लड़ाई और बकबास में ही वह वक्त जाया कर देते हैं जो देश ने उन्हें इसलिए दिया कि उसके सीमांत व्यक्ति के आंखों में बसते सपने पूरे हों। उसकी उदासी दूर हो होंठों पर मुसकान खेले। जिन्होंने इन्हें संसद जैसे गरिमामय गणतंत्र के मंदिर तक पहुंचाया क्या उनके लिए इनका कोई फर्ज नहीं बनता! क्या उन्हें आपस में लड़ने या स्वहित पोषण के लिए संसद भेजा गया है! जो करोड़ों आंखें खुशहाल जीवन का सपना लेकर इनकी ओर टकटकी लगाये हैं उनके लिए क्या कर रहे हैं ये! आनेवाली पीढ़ी को कौन सी दिशा दे जा रहे हैं ये! हमारे एक वरिष्ठ पत्रकार जो अब इस दुनिया में नहीं हैं संसद की रिपोर्टिंग किया करते थे। तब संसद का सीधा प्रसारण टीवी पर नहीं होता था। उन्होंने बताया कि सांसद जब एक-दूसरे से झगड़ते थे तो भद्दी गालियों और अशालीन शब्दों का प्रयोग करने से भी नहीं झिझकते थे। यह और बात है कि उनकी यह अशालीनता संसदीय कार्यवाही में दर्ज नहीं की जाती थी। अब सीधा प्रसारण संसदीय कार्यवाही का होने लगा है लेकिन अब भी ज्यादा कुछ नहीं बदला। आज भी आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं और इस दौरान कई सांसद संसदीय गरिमा को भी लांघ जाते हैं। आपमें से कई ने जिन लोगों ने संसदीय कार्यवाही का प्रसारण कभी-कदा देखा होगा उन्होंने अक्सर ऐसे अनियंत्रित सांसदों के लिए लोकसभा अध्यक्ष के मुंह से यह कहते सुना होगा-शांत हो जाइए, मर्यादा में रहिए, पूरा देश आपको देख रहा है।

शायद इस तरह की स्थिति को सोच कर ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सासंदों की जवाबदेही तय करने और अगर वह सही कार्य नहीं कर रहे तो उन्हें वापस बुलाने की बात कही थी। अगर कोई सांसद नाकारा है तो उसके क्षेत्र की जनता उसे 5 साल तक क्यों झेले वह सांसद पद छोड़े और उसकी जगह कोई नेक और योग्य आदमी को वह पद दिया जाये। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि आज देश की राजनीति का बुरी तरह से अपराधीकरण हो रहा है। चुनाव जीतने के लिए आज नेता की छवि नहीं उसका धनबल और बाहुबल जरूरी हो गया है। आज विधायक और सांसद को चुनाव पर लाखों-करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं। जाहिर है घर से खर्चा गया यह पैसा वापस पाने की चाह रहेगी ही। मैंने अपने एक सहयोगी से प्रश्न कर डाला कि क्या हमारे सांसद इतने गरीब हैं कि उन्हें हजारों-लाखों रुपये चाहिए। सहयोगी का जवाब था क्यों नहीं चुनाव में जो करोंड़ो फूंक आये हैं वह कहां से पूरा होगा। मेरा प्रश्न है कि चुनावों में करोड़ों का खर्च क्यों होता है। अगर आप जनप्रिय नेता हैं, आपने अपने क्षेत्र में काम किया है तो जनता आपको खुद जिता देगी इसके लिए इतना तामझाम की क्या जरूरत? हम उस दिन के इंतजार में हैं जब हमारे गणतंत्र देश में चुनाव में धनतंत्र और बाहुबल का अंत होगा। चुनाव सही ढंग से और सुरक्षित माहौल में होंगे, संगीनों के साये में जब गणतांत्रिक प्रक्रिया संपन्न कराने की मजबूरी नहीं होगी। जब हम गर्व से कह सकेंगे कि हम विश्व के उस गणतंत्र के वासी हैं जहां जनता अपनी सरकार खुद चुनती है और जो सरकार उसके प्रति सबसे पहले जवाबदेह है। संसदीय गरिमा इस देश में अक्षुण्ण रहे, भारत इस दृष्टि से विश्व में एक दृष्टांत बने,जन-जन तक गणतंत्र का लाभ पहुंचे, सब सार्विक स्वतंत्रता का अहसास करें, सांसदों का आचरण और कार्य जनहित, देशहित में हो, विपक्ष सकारात्मक भूमिका निभाये हे प्रभु मेरे भारत को ऐसा कर दो। जो विदेशी अतिथि भारत की संसद को देखने आते हैं वे गर्व के साथ अपने यहां कहें शासन हो तो भारत जैसा, सांसद हों तो भारत जैसे। हे सांसदों, हे देश के नीति नियामको आपसे विनम्र निवेदन और प्रार्थना क्या देश के लिए आपका यह कर्तव्य नहीं कि उसकी गरिमा को अपने आचरण से कलुषित न करें! हो सके तो गणतंत्र को सुदृढ़ पुनीत और विनीत करने में सहयोग दें। हमें अपनी संसदीय गरिमा का भान है, हमें गणतंत्र देश का वासी होने का अभिमान है लेकिन आज दांव पर लगा जनगण का सम्मान है। इसे बचाइए अपनी गरिमा को भी बढ़ाइए। जो लिखा वह लिखना पड़ा इसका दुख है। ऐसी स्थितियां बदलें इसके प्रयास हों और भारतीय गणतंत्र की परंपरा सदा सर्वदा पुष्पित-पल्लवित होती रहे। मेरे विचारों से अगर किसी को तनिक भी आघात पहुंचा हो मुझे इसका दुख है, इसके लिए वे क्षमा करें। वैसे यह कहने में भी संकोच नहीं कि स्थितियों ने ऐसा लिखने को मजबूर किया। देश के एक सजग और सचेतन नागरिक होने के नाते यह लिखने का मेरा अधिकार है। देशवासियों से निवेदन कि वे भी देश की दशा दिशा का ध्यान रखें। किसी को भी गणतांत्रिक प्रक्रिया से खिलवाड़ करने का मौका न दें।

जय भारत, जय गणतंत्र।

6 COMMENTS

  1. maanaaki 300 saansad karodpati hain ;70-mantreemandal sadsy bhi vehtar vetan bhatte paate hain .anya suvidhayen bhi hain kintu chhathe vetan aayog ki report or saarvjanik upkrmon ke executive ke baraabar vetan abhi bhi saansadon ka nhin hua hai sachiv star tk to baat abhi door ki kaudi hai ..kuchh saansad bhale hi sankhya men km hain itne imaandaar hain ki apne kapde khud dhote hain .jo betan milta hai wh mazdooron ;gareebon ke aandolano me dete hain .yh bhi is sandarbh men ek vicharneey pahlu hai ki hm yadi bhrushtachaar ko samaapt karnaachahte hain to na keval saansad balki chapraasi ko bhi gujaarelaayk vetan milna hi chaahiye

  2. Deshvasiyo, Ab samay aa gaya hai Deshvasiyo ke jagne ka, tabhi Loktantra ke nam ko kalankit karne wale oor Jan-Dhan ka durupayog karne wale en ‘Sansado’ jese Jan-Sewa ka mukhota lagane wale ko ham sabak sikha sakenge . Varna to ye hamara “Mahan Bharat Desh” enki farji “Jan-Sewako” ki vajah se kabhi bhi diwaliya ghoshit hokar kisi bhi Videshi Desh ka phir se “Gulam” ho jayega, yah nichit hi samjhe. Kyonki, jab Desh ka sanchalan hi Apradiyo, Nikammo oor Bhartachariyo se sanchalit ho raha hai, to es Desh ka oor Deshvasio ka Kya hal hoga – swatah hi soch lene ki bat hai. Dhanaywad.
    – Jeengar Durga Shankar Gahlot, Publisher & Editor, Samachar Safar [Fornightly], Satti Chabutre ki Gali, Makbara Bazar, Kota – 324 006 (Raj.). Mob. : 098872-32786

  3. – अभी निर्णय नहीं हुआ है. प्रणब मुकर्जी ने मनमोहन सिंह से बात करनी है.
    – हमें याद रखना है कि वेतन वृद्धि की मांग कर एक नाटक खेला जा रहा है.
    – अधिकांश सांसद कुछ करोड़ खर्च करके ही संसद में प्रवेश पाते हैं. इसका वेतन से कुछ भी लेना देना नहीं है. सांसद नौकरी थोड़ी करने आते हैं. वे तो समाज सेवा के लिए आते हैं.
    – तनिक अंतिम निर्णय हो जाने दें, कितने पैसे पर दिल भरता है, पहले यह प्रतीत तो ही हम अपनी खोपरी खर्च करें.

  4. सांसद नौकरी ही तो करते हैं.देशसेवा का मुखौटा तो उसी दिन उतर गया था,जब चरण सिंह ने प्रधानमंत्री बनने पर कहा था की आज मेरे जीवन की तम्मना पूरी हो गयी.यह उसी तरह की बात हुयी जैसे हर नौकरशाह की तम्मना होती है की वह कैबिनेट सेक्रेटरी बने.
    रही बात वेतनमान की तो आज भी सांसदों का वेतन किसी भी नौकरशाह से ज्यादा है.वेतन के मामले में आपका संपूर्ण पॅकेज देखा जाता है नाकि आपका बेसिक वेतनमान?उस लिहाज से सांसदों का पूर्ण वेतन कैबिनेट सेक्रेटरी से बहुत ज्यादा हो जाता है.जहाँ तक जिम्मेवारी का सवाल है,उसमे दोनों बराबर हैं.न हमारे बाबू लोग कोई जिम्मेवारी लेते हैं न ये सांसद.देशसेवा वगैरह की बात तो एकदम बेमानी है.आज के सन्दर्भ उसकी चर्चा भी समय की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है.

  5. त्रिपाठी जी, “नमक के दरोगा” में नायक के पिता मुंशी जी नें सही कहा की उपर की आमदनी के जरिये से कुछ हो सकता है. ये बात नेता लोग भी अच्छी तरह से जानते है पता नहीं क्यों पगार बदने के लिए ड्रामेबाजी कर रहे हैं.

  6. देशसेवा और नौकरी का फर्क ख़तम हो गया है…अब ये सांसद नौकरी करना चाहते हैं…और संसद को कंपनी…चलो ८०००० रुपये दिए लेकिन साथ मैं टार्गेट भी रहेगा जिसे निश्चित समय सीमा मैं पूरा करना होगा, नहीं किया तो नौकरी ख़तम…मजाक चल रहा है….

    इस देश की ६५ प्रतिशत संपत्ति सिर्फ ४९ उद्योगपातियों के पास है. ये सब सरकार के लाइसेंस आधारित उद्योगों से जुड़े हैं. सरकारें इनसे अपना हिस्सा लेकर इनको और अमीर बना रही है. खेती और गावों को बांधों, टाइगर रिजर्व के नाम पर ख़तम कर रही है. किसानो की जमीने बिल्डरों और एस इ जेड को कोंड़ियों के दाम मैं दी जा रही है. खेती मैं उर्वरकों, बिजली, पानी और अब बीज पर भी सरकार का नियंत्रण नहीं है. एक ही झटके मैं खेती का सफाया हो सकता है. जेनेटिकली मोडीफाइड बीज जबरदस्ती थोपे जा रहे हैं. न ही पेट्रोलियम पदार्थों पर नियंत्रण है …शहरों मैं भीड़ बढ रही है…किसान आत्महत्या कर रहे हैं… गरीबों का अस्तित्व मिटनेवाला है मध्यमवर्ग संवेदनाहीन हो चुका है उस पर किसी चीज़ का असर होना बंद हो गया है…उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा है…संवेदनशील सिर्फ कंप्यूटर पर भड़ास निकल रहे हैं…हम सब जानते समझते भी कुछ नहीं कर सकते…ऐसा क्यों…संगठित क्यों नहीं हैं? विरोध क्यों नहीं है?

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