राजनीति

क्या भाजपा से भी मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग करेंगे रामविलास?

ram vilasजदयू-राजद गठबंधन- 5 (अंतिम)

रंजीत रंजन सिंह

याद किजिए फरवरी 2005 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम और उसके बाद की स्थिति को। रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अकेले चुनाव लड़ी थी और उसने 29 सीटें जीती थी। जदयू-भाजपा गठबंधन बहुमत से थोड़ा पीछे रहा गया था। लोजपा के ज्यादातर नेता चाहते थे कि लोजपा जदयू-भाजपा को समर्थन दे और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनें। रामविलास पासवान ने समर्थन देने की बात तो कही मगर इस शर्त के साथ कि मुख्यमंत्री किसी मुस्लिम को बनाया जाए। उन्हें पता था कि यह प्रस्ताव न तो भाजपा को स्वीकार होगा और न जदयू को। अंततः लोजपा टूट गई और उसके 21 विधायक जदयू में शामिल हो गए।

यह घटना आज इसलिए याद आ रही है क्योंकि तब की और आज की राजनीति में काफी कुछ बदल चुका है। तब जदयू भाजपा साथ-साथ थी, आज आमने-सामने है और अब लोजपा भाजपा की गोद में खेल रही है। और इसी खेल से सवाल निकलता है कि लोजपा इस बार कितने सीटों पर चुनाव लड़ेगी? क्योंकि भाजपा अपने सहयोगियों के साथ सीटों का तालमेल किए बगैर करीब 170 से 175 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की तैयारी में है। ऐसे में बचे 75-80 सीटों में भाजपा अपने सहयोगियों लोजपा, रालोसपा, हम और जन अधिकार पार्टी को कितनी-कितनी सीटें देगी?

इधर आंकड़े बताते हैं कि लोजपा की सीटें और वोट प्रतिशत एंटी पिरामिड स्ट्रक्चर में है। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 178 सीटों पर चुनाव लड़ी, 12.62 वोट प्रतिशत के साथ 29 सीटें जीती, अक्टूबर 2005 के चुनाव में 203 सीटों पर चुनाव लड़ी, 11.10 प्रतिशत वोट के साथ 10 सीटें जीती जबकि 2010 के विधानसभा चुनाव में 75 सीटों पर चुनाव लड़ी और 6.75 वोट के साथ 3 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाई। यह सब एक राजनीतिक पार्टी का एक परिवार की पार्टी बन जाने और रामविलास के हठ के कारण हुआ।

एक समय था जब 60 व 70 के दशक में श्री पासवान बिहार की सड़कों पर संसोपा का झंडा लिए नारा लगाते थे कि राष्ट्रपति का बेटा हो, चपरासी का संतान हो या टाटा-बिड़ला का, शिक्षा सबके लिए एक समान होना चाहिए। 1977 में जब वे लोकसभा में पहुंचे तो वे युवा शक्ति का प्रतीक बन गए थे। आज जब अपनी एक पार्टी के साथ वे अस्तित्व में हैं तो पिछड़ा और दलित के नाम पर उन्हें सिर्फ अपने भाई-भतीजे ही दिखते हैं। युवा के नाम पर उन्हें सिर्फ चिराग पासवान ही दिखे। कभी गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के नाम पर भाजपा के साथ सत्ता के बिस्तर पर हमबिस्तर रहे तो कभी भाजपा को सांप्रदायिकता का प्रतीक बताकर मुसलमानों का वोट लेते रहे और मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ाते रहे। आपको यहां दो और बातें याद दिला दें कि 1999 में जब जयललिता ने एआइडीएमका का समर्थन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से वापस ले लिया था और वाजपेयी सरकार गिरने की स्थिति में आ गई थी, तब सबकी नजरें रामविलास पर आकर टिक गई थीं। रामविलास उस समय लोकसभा में अपनी पार्टी से अकेले सांसद थे। लेकिन श्री पासवान ने सरकार के खिलाफ मतदान किया और वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई। इसके बाद मध्यावति चुनाव हुआ। इस चुनाव में श्री पासवान ने भाजपा के साथ समझौता किया और वे 1999 में बनी वाजपेयी सरकार में मंत्री बन गए। यह वही रामविलास पासवान हैं जिन्होंने गोधरा-गुजरात सांप्रदायिक हिंसा के बाद वाजपेयी सरकार से इस्तीफा देकर देश-दुनिया में भाजपा की भद्द पिटवा दी। 2010 के अंतिम माह में श्री पासवान की दो किताबें भी बाजार में आईं। एक ‘मेरी विचार यात्रा, सामाजिक न्यायः एक अंतहीन परीक्षा’ तथा दूसरी ‘मेरी विचार यात्रा, दलित मुस्लिमः समान समस्यायें समान धरातल। इन दोनों किताबों में श्री पासवान ने भाजपा और कांग्रेस की जमकर खबर ली है। अगर ये किताबें कोई भाजपा समर्थक पढ़ ले तो शायद ही रामविलास पासवान से भाजपा की दोस्ती की हिमाकत करे। लेकिन वोट बैंक और जातिगत राजनीति के कारण भाजपा भी लोक-लाज, शर्म-हया छोड़कर कथित सत्ता विलासी राम को साथ ढ़ोने पर मजबूर है। इस बार मतदाताओं के पास अच्छा मौका है, खासकर मुसलमान भाईयों के पास कि वे श्री पासवान से पूछें कि 2005 की तरह क्या इस बार वे भाजपा से भी मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग करेंगे या उस समय की मांग सिर्फ नीतीश कुमार को सीएम बनने से रोकने के लिए थी? (समाप्त)