राजनीतिक दल चुनाव मैदान में उतरते हुए ढेर सारे वायदे करते हैं। लेकिन अगर वे चुनाव जीतकर सरकार बना लेते हैं, तो तमाम वायदे भूलने लगते हैं। स्कूली बस्ते से बोझ हटाने का वायदा भी ऐसा ही है। करीब 27 साल से लटकी इस योजना को अब तक किसी सरकार ने गंभीरता से लागू करने की कोशिश नहीं की। पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने पिछले दिनों यह घोषणा करके चौंका दिया कि दिल्ली सरकार अगले सत्र से आठवीं तक के बच्चों के बस्ते का बोझ एक चौथाई तक कम कर देगी। इसके लिए दिल्ली सरकार अक्तूबर में काम शुरू करने की भी बात कर रही है।
अपने तमाम कदमों से इन दिनों आलोचनाओं के घेरे में रही केजरीवाल सरकार अगर स्कूली बच्चों की पीठ से भारी बोझ हटा देती है, तो यह शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन के एक नए दौर की शुरुआत होगी। 1986 में नई शिक्षा लागू करते वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का सपना देश को आधुनिकता की पश्चिमी अवधारणा से लैस करना था। इसी वजह से शिक्षा को लेकर चल रही गांधी की वर्धा योजना से किनाराकशी शुरू हो गई, जिसमें स्वालंबन के उद्देश्य के साथ पारंपरिकता का पुट भी समाहित था। पर इस शिक्षा नीति की एक खामी बस्तों के बढ़ते बोझ के तौर पर सामने आई। चूंकि तब अपने परिवेश के मुताबिक चलने-विचारने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग देश में मौजूद था। लिहाजा उस समय ही बस्ते के बोझ को लेकर संसद तक में सवाल उठे।
तब छत्तीसगढ़ से कांग्रेस के सांसद और पूर्व पत्रकार चंदूलाल चंद्राकर की अध्यक्षता में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री पीवी नरसिंह राव ने एक कमेटी बनाई। उस कमेटी ने 1988 में अपनी रिपोर्ट दी, पर उसे लागू नहीं किया गया। बाद में वीपी सिंह सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री एस आर बोम्मई ने 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में नई शिक्षा नीति के प्रभावों के अध्ययन के लिए समिति बनाई, तो उसी के तहत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष, जाने-माने वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में बस्ते की जांच करने के लिए एक समिति भी बनाई। इस समिति ने 1993 में अपनी रिपोर्ट दी और बस्ते का बोझ कम करने, होमवर्क की व्यवस्था निचली कक्षाओं में खत्म करने और गैरजरूरी पाठों को स्कूली पाठ्यक्रम से हटाने की सिफारिश की। तब इस रिपोर्ट का सामाजिक और शैक्षिक हलकों में जबर्दस्त स्वागत हुआ। रिपोर्ट पेश करते वक्त तक सरकार बदल चुकी थी और उसके मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह बन चुके थे। उन्होंने बस्ते का बोझ हटाने का वायदा भी किया, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मौजूदा दौर में बस्ते और होमवर्क के बोझ के पीछे पब्लिक स्कूलों की लॉबी का बड़ा हाथ है। हर साल वे नई किताबें लगाते हैं और इसके जरिये मोटी कमाई करते हैं। स्कूली बच्चों को होमवर्क देना ही बेहतरीन शिक्षा का मानक बन गया है। मार्च-अप्रैल, 2012 में एसोचैम ने दिल्ली, बंगलूरू, हैदराबाद, मुंबई, कोलकाता जैसे दस बड़े शहरों के पांच से बारह साल की उम्र के 2,000 से अधिक बच्चों का सर्वे किया था। उस सर्वे के मुताबिक, 1,500 से ज्यादा बच्चे औसतन पैंतीस प्रतिशत ज्यादा भारी बस्ता ढो रहे थे और थकान के अलावा पीठ, कंधे और रीढ़ के दर्द से परेशान थे। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली की केजरीवाल सरकार और उसके शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया अगर बस्ते का बोझ घटाने का फैसला लेते हैं, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए।