क्या दोबारा आएगी खुशियों की सवारी?

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हेमा दानू
कपकोट, बागेश्वर
उत्तराखंड

‘खुशियों की सवारी’ योजना की शुरुआत उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2011 में की थी. यह एक एम्बुलेंस सर्विस है जिसकी मदद से जच्चा और नवजात बच्चे को अस्पताल में सुरक्षित प्रसव के बाद निशुल्क घर तक छोड़ा जाता था. आपात स्थिति में यह वाहन गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल तक लाने में भी मददगार थी. योजना की शुरुआत किराए के वाहनों से की गई थी. लेकिन वर्ष 2013 में सरकार ने किराए की वैन के स्थान पर अपने वाहन खरीदे. पर्वतीय क्षेत्रों में इस योजना को काफी सराहा गया और खुशियों की सवारी की मांग बढ़ने लगी. सभी जिलों में योजना की जिम्मेदारी मुख्य चिकित्साधिकारी को दी गई थी. जिसके लिए प्रति केस 450 रुपये निर्धारित किया गया था. हालांकि समय बीतने के साथ-साथ योजना के वाहनों में खराबी आने लगी, जिसके चलते स्वास्थ्य विभाग ने भी योजना के संचालन से हाथ खड़े कर दिए. दो वर्ष पहले यह योजना पूरी तरह से ठप पड़ गई. वहीं कोरोना काल में खड़े-खड़े वाहन भी खराब हो गए. हालांकि यह योजना इतनी सफल थी कि बंद होने के इतने वर्षों बाद भी ग्रामीण इसकी सराहना करते हैं. 
उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक से 27 किलोमीटर दूर पहाड़ पर आबाद सलानी गांव इसका उदाहरण है. जहां ग्रामीण आज भी खुशियों की सवारी की राह देख रहे हैं. इस गांव की आबादी लगभग 800 है और यहां पर हर वर्ग के लोग रहते हैं. इस संबंध में कक्षा 12 की एक छात्रा कविता का कहना है कि वर्तमान में, हमारे गांव में एम्बुलेंस की कोई सुविधा नहीं है. गांव में कई महिलाएं गर्भवती हैं, लेकिन उन महिलाओं को खुशियों की सवारी एम्बुलेंस की कोई सुविधा नहीं है. अच्छा खान-पान तो दूर की बात रही, सरकार ने जो मुफ्त सेवाएं दी हैं वह भी उन्हें प्राप्त नहीं हो पा रही है. हालांकि सरकार ने खुशियों की सवारी की सुविधा उन लोगों के लिए शुरू की थी जिनके पास गाड़ी की सुविधा नहीं है और जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण वाहन की व्यवस्था करने में असमर्थ हैं. ऐसी अवस्था में अगर कोई महिला गर्भवती है और रात को अचानक उसे प्रसव पीड़ा होती है तो लोग 1 घंटे पहले फोन करके इस एम्बुलेंस सुविधा का लाभ उठा सकते थे. खुशियों की सवारी नाम से यह एम्बुलेंस सर्विस उन्हें घर से लेकर अस्पताल तक जाती थी. लेकिन जब से यह सुविधा बंद हुई है, ग्रामीणों विशेषकर गर्भवती महिलाओं को बहुत ही दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
गांव की एक 29 वर्षीय गर्भवती महिला कमला कहती है कि हमारे गांव में अस्पताल की कोई सुविधा नहीं होने से हम जैसी गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत मुश्किल समय हो गया है. पल पल हमारे शरीर में बहुत से बदलाव आते हैं. हमें बहुत चिड़चिड़ापन महसूस होता है. थकान लगती है, पर हमें ये सब बर्दाश्त कर के अपने घर का काम पूरा करना पड़ता है, खेतों में जाकर काम करना पड़ता है. हालत 5 मिनट खड़े रहने के भी नहीं होते हैं, पर काम पूरा करना पड़ता है. ऐसे हाल में भी गांव से लगभग 27 किलोमीटर की दूरी तय करके प्रसव पीड़ा से जूझते हुए बैजनाथ या बागेश्वर के जिला अस्पताल जाना पड़ता है. उसमें भी हमारे गांव में गाड़ी की कोई सुविधा नहीं है. सरकार द्वारा खुशियों सवारी नाम से एक योजना चलाई गई थी, यह योजना आर्थिक रूप से कमज़ोर हम गर्भवती महिलाओं के लिए थी. लेकिन अब हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं है. घर घर खुशियों की तो बात ही नहीं कर सकते हैं. प्रसव पीड़ा का कष्ट जिंदगी और मौत से लड़ने के बराबर है और ऐसी हालत में हमें सरकार द्वारा दी गई सुविधा का लाभ नहीं मिल पाता है तो कष्ट दोगुना हो जाता है.

गांव की एक बुजुर्ग महिला बचुली देवी कहती हैं कि आज मैं उम्र के जिस पड़ाव में हूं, चलने फिरने से अक्षम हूं, ऐसे समय में हमारे लिए ऐसी कोई भी सुविधा का उपलब्ध नहीं होना तकलीफ को और भी अधिक बढ़ा देता है. वह कहती हैं कि हमारे समय में तो अगर कोई औरत जंगल में काम कर रही होती थी तो उसे वहीं प्रसव पीड़ा उठती थी और बच्चे का जन्म हो जाया करता था. लेकिन आज वह समय नहीं रहा है. वर्तमान में, लड़कियों और औरतों के शरीर में पहले जैसी ताकत नहीं है. पहले का खानपान अलग हुआ करता था, पर अब उस तरह का खानपान नहीं रहा है. अब दुनिया में ऐसी ऐसी बीमारियां आ गई हैं कि जिसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया है. अब बच्चों के जन्म के समय कई टीके लगाए जाते हैं, जो हमारे समय में नहीं लगाए जाते थे. इसलिए महिलाओं को अस्पताल लेकर जाना जरूरी हो गया है. जिसके लिए एम्बुलेंस की सुविधा ज़रूरी हो गई है.
गांव की आशा कार्यकर्ता जानकी जोशी का कहना है कि हमारे गांव और उसके आसपास अन्य किसी भी गांव में खुशी की सवारी (एम्बुलेंस) नहीं आती है. जिस कारण गर्भवती महिलाओं को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. उन्हें हर तीसरे महीने चेकअप के लिए जाना पड़ता है. तीसरे और चौथे महीने में इंजेक्शन लगवाना होता है. जिसके लिए कई बार गांव की एएनएम लगा देती है. अगर वह नहीं आती है तो मुझे गर्भवती महिला को लेकर अस्पताल जाना पड़ता है. गर्भावस्था के 5 या 6 महीने पर डॉक्टर उन्हें अल्ट्रासाउंड करवाने की सलाह देते हैं, कुछ महिलाएं तो करवा लेती हैं, परंतु अधिकतर महिलाएं घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण निजी वाहन करके डॉक्टर के पास जाने में असमर्थ होती हैं. ऐसी स्थिति में महिलाओं को संभाल पाना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है. पहले उन्हे घर से रोड़ तक लाना और फिर रोड़ पर खड़े रह कर गाड़ी का इंतजार करना और जब महिलाओं को प्रसव पीड़ा शुरू हो जाती है तो फिर परिस्थिति को संभालना हमारे लिए और भी मुश्किल हो जाता है. 

यदि एम्बुलेंस की सुविधा होती तो उन्हें यह कठिनाई नहीं झेलनी पड़ती. जानकी जोशी कहती हैं कि घर घर खुशियों की सवारी तो सिर्फ डिलीवरी के समय आती थी, हम चाहते हैं कि जब हम महिलाओं को चेकअप के लिए लेकर जाते हैं तो ऐसे समय भी उन्हें यह सुविधा मिलनी चाहिए, जो महिलाएं पैसे की कमी के कारण या गाड़ी का किराया न देने के कारण डॉक्टर के पास नहीं जा पाती हैं, वह भी अपना पूरा इलाज करवा सकें और समय से डॉक्टर के पास जा सकें. 
सलानी की ग्राम प्रधान कुमारी चंपा भी कहती हैं कि हमारे गांव के आसपास कहीं भी खुशियो की सवारी नहीं आती है. मैंने अपने स्तर पर कई बार प्रयास भी किया है, ताकि गांव की गर्भवती महिलाओं को यह सुविधा प्राप्त हो सके, लेकिन अभी हम इसमें असफल रहे हैं. फिर भी मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि यह सुविधा अपने गांव में फिर से शुरू करा सकूं. वहीं सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी का कहना है कि जब सरकार कोई सुविधा देती है, तो हर किसी को इसे प्राप्त करने का पूरा अधिकार होता है. गांव की अधिकतर गर्भवती महिलाएं बहुत कमज़ोर आर्थिक परिवार से होती हैं, जिनके घर आमदनी नाममात्र  है, ऐसे में वह हर माह चेकअप के लिए निजी वाहन की व्यवस्था करने में असमर्थ होते हैं. 

इसलिए सरकार ने यह सुविधा दूरदराज की गरीब महिलाओं के लिए उपलब्ध कराई थी. इसमें कोई पैसा भी नहीं लगता था. यह सरकार द्वारा दी गई फ्री सुविधा थी जो बहुत ही अच्छी और कारगर थी. हालांकि ज़िले में एक बार फिर से यह सुविधा शुरू होने की बात कही गई है, लेकिन सलानी गांव के लोगों को आज भी खुशियों की सवारी का इंतज़ार है.

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