फल्गु के बिना क्या मिल पायेगी हमारे पूर्वजों को मुक्ति?

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सतीश सिंह

सदियों से सभ्यता का विकास नदियों के किनारे होता रहा है। नदी के बिना जीवन की कल्पना असंभव है। बावजूद इसके नदियों की मौत पर हम कभी अफसोस जाहिर नहीं करते। जबकि उनकी मौत के लिए सिर्फ हम हमेशा से जिम्मेदार रहे हैं। कभी हम विकास के नाम पर उनकी बलि चढ़ाते हैं तो कभी अपनी लालच को साकार करने के लिए।

बड़ी नदियों में यमुना मर चुकी है। (वैसे केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश का दावा है कि 2015 तक यमुना नदी को पुर्नजीवन मिल जाएगा) गंगा भी मरने के कगार पर है। छोटी नदियाँ या तो मर चुकी हैं या मरने वाली हैं। एनसीआर में हिंडन नदी मर चुकी है तो बिहार के गया में बहने वाली नदी ‘फल्गु’ मरनासन्न है।

गंगा की तरह फल्गु का महत्व भी हिंदुओं के लिए अप्रतिम है। कहा जाता है कि त्रेता युग में भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ की मुक्ति के लिए गया में बहने वाली फल्गु नदी के तट पर उनका पिंड दान किया था। आज के युग को कलि कहा जाता है। इसतरह से देखा जाए तो भगवान राम को अपने पिता का पिंड दान किये हुए तकरीबन 12 लाख साल गुजर चुके हैं। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के अलावा युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, मरिचि इत्यादि के द्वारा भी फल्गु नदी के किनारे पिंड दान करने की कथा हिंदु किवदंतियों में मिलती है।

अश्विन माह में 15 दिनों तक चलने वाले पितृपक्ष पखवाड़े में पिंड दान करना शुभ माना जाता है। पिंड दान करने का सारा रस्म फल्गु नदी के किनारे संपन्न किया जाता है।

दरअसल हिंदु धर्म की मान्यता है कि इंसान की मृत्यु के पश्‍चात् उसकी आत्मा भटकती रहती है। पर ऐसा माना जाता है कि यदि अश्विन माह में चलने वाले पितृपक्ष पखवाड़े में फल्गु नदी के घाट पर पिंड दान किया जाये तो भटकने वाली आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

 

फल्गु नदी को निलजंना, निरंजना या मोहाना नदी के नाम से भी जाना जाता है। इस नदी का बहाव उत्तार से पूर्व की ओर है जोकि बराबर पहाड़ी के विपरीत दिशा में है। अपने सफर के आगे के पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते इसका नाम मोहाना हो जाता है तथा यह दो भागों में विभाजित होकर पुनपुन नदी में मिल जाती है।

वायु पुराण के गया महात्मय में फल्गु नदी को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। यह भी कहा जाता है कि कभी फल्गु दूध की नदी थी।

21वीं सदी में दूध की यह नदी अपनी अंतिम सांसे गिन रही है। पंचवटी अखाड़ा से लेकर विष्णुपद मंदिर तक पॉलिथिन बैगों और गंदगी के मलवों के कारण मानसून में भी नदी का बहाव ठहरा हुआ रहता है। इस संदर्भ में घ्यातव्य है कि शहर की गंदगी को एक अरसे से नदी में बेरोकटोक प्रवाहित किया जा रहा है।

किवदंतियों पर अगर विश्‍वास किया जाये तो फल्गु एक श्रापित नदी है। कहा जाता है कि सीता जी के श्राप के कारण नदी बारिश के महीनों के अतिरिक्त महीनों में सूखी रहती है।

इस में दो राय नहीं है कि साल के अधिकांष महीनों में नदी सूखी रहती है, किन्तु आश्‍चर्यजनक रुप से सूखी नदी में एक से डेढ़ दशक पहले तक रेत को मुठ्ठी भर उलीचने मात्र से साफ और मीठा पानी बाहर निकल आता था। पर हाल के वर्षों में नदी के प्रदूषण स्तर में जर्बदस्त इजाफा हुआ है। अब रेत को उलीचने से पानी नहीं निकलता। हाँ, 5-10 फीट की खुदाई करने पर पानी तो निकल जाता है परन्तु वह पीने के योग्य नहीं रहता है।

उल्लेखनीय है कि अब गर्मियों में नदी में रेत कम और शहर की नालियों से होकर प्रवाहित होने वाले मल-मूत्र की मात्रा ज्यादा रहती है। हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि प्रदूषण के विविध मानकों पर फल्गु नदी का पानी खरा उतरने में असफल रहा है।

हाल ही में नदी के पानी की शुद्धता की जाँच में पीएच, अल्केलिनिटी, डिजॉल्वड ऑक्सीजन (डीओ), टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस), बीओडी, कैलिष्यम, मैगनिशियम और क्लोरायड जैसे तत्वों की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा पाया गया है।

जाहिर है इन तत्वों की उपस्थिति पानी में एक निष्चित स्तर पर होनी चाहिए। इनकी ज्यादा मात्रा नि:संदेह स्वास्थ के लिए घातक है। लिहाजा आज की तारीख में फल्गु नदी के पानी को पीना अपनी मौत को दावत देने के समान है।

इतना ही नहीं जलीय चक्र में आई रुकावट के कारण नदी और आस-पास के क्षेत्रों का भूजलस्तर काफी नीचे चला गया है। फिर भी पम्पसेट के जरिये नदी के पानी से लगभग 40 फीसदी शहर की आबादी की प्यास बुझायी जा रही है। शेष 60 फीसदी के लिए जल की आपूर्ति भूजल से (कुँओं और टयूब बेल के जरिये) की जा रही है।

गौरतलब है कि जल की आपूर्ति जीवंत नदी से की जानी चाहिए। क्योंकि बीमार नदी से जल का दोहन करना उसकी सांसों की डोर को तोड़ने के जैसा होता है। फिर भी गया के रहवासी उसको मारने पर आमादा हैं।

फिलवक्त फल्गु नदी के पूर्वी और पश्चिमी घाट पर कब्जा जमाने की प्रक्रिया जोरों पर है। नदी पर मकान-दुकान बन चुके हैं। पुलिस, प्रशासन और नेता आरोप-प्रत्यारोप की आड़ में तमाशा देखने के आदि हो चुके हैं।

आज के परिप्रेक्ष्य में नदियों की पीड़ा को निम्न पंक्तियों के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है-:

हजार-हजार दु:ख उठाकर

जन्म लिया है मैंने

फिर भी औरों की तरह

मेरी सांसों की डोर भी

कच्चे महीन धागे से बंधी है

लेकिन

इसे कौन समझाए इंसान को

जिसने बना दिया है

मुझे एक कूड़ादान

 

नदी को इंसानों के द्वारा कूड़ादान समझने की प्रवृति के कारण ही सभी नदियाँ आहिस्ता-आहिस्ता मौत की ओर अग्रसर हैं। अगली बारी फल्गु की है। फल्गु की मौत के बाद हमारे पूर्वजों की आत्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी? यह निश्चित रुप से चिंता के साथ-साथ पड़ताल का भी विषय है।

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