स्त्री चेतन मन में होनी चाहिए, अवचेतन में नहीं – सारदा बनर्जी

2013_4image_09_56_109374453nnkdh-llआम तौर पर देखा गया है कि हिन्दी साहित्य में पुरुष कवियों के हमेशा अवचेतन में स्त्री आई है। स्त्री को लेकर कुंठित भाव व्यक्त होता आया है। स्त्री कवियों के चेतन भावबोध का हिस्सा न होकर अवचेतन में घर किए रहती है जो स्त्री के प्रति संकुचित और स्त्री को देखने का एक तरह से कुंठित रवैया है। स्त्री को देखने के इस गलत नज़रिए की वजह से स्त्री के प्रति दया का भाव बार-बार हिन्दी साहित्य में व्यक्त हुआ है। वह हमेशा लज्जालु, दबी-ढकी, रोने वाली, बिलखने वाली, असीम दुख-दर्द हृदय में छुपाने वाली असहाय और अबला स्त्री के रुप में चित्रित हुई है। छायावादी कविता में वह करुणा और संवेदना की साकार मूर्ति के रुप में स्थान पाई है। ‘अबला नारी’, ‘दीन-हीन स्त्री’ जैसी उपमाओं से सुसज्जित हुई है। रीतिकाल में केवल प्रेम करने वाली अनेकानेक कलासंपन्न पुरुषाश्रित स्त्री के स्वरुप को तवज्जो दिया गया। फलतः स्त्री के प्रति उपेक्षिता का भाव बार-बार सामने आया है। ये स्त्री को देखने का सामंती नज़रिया है। इस संदर्भ में रघुवीर सहाय ने सटीक टिप्पणी की है, ‘कुल मिलाकर नया और पुराना हिंदी साहित्य स्त्री को लेकर जो कुछ देता है वह सतह पर घिनौना, सतह के नीचे पुरुष-समर्थक और उससे भी गहरे कहीं मनुष्य-विरोधी है।’

लोकतंत्र के आने के बाद हर एक चीज़ को पुनर्परिभाषित करना बेहद ज़रुरी होता है। हमें स्त्री को देखने के इस परंपरागत इमेज और सामंती नज़रिए से बाहर आकर लोकतांत्रिक हकों के लैस स्वच्छंद स्त्री की इमेज डेवलप करनी चाहिए। लोकतंत्र के आने के बाद नर-नारी समता का अधिकार बना। यह स्त्री के पक्ष में बना संवैधानिक अधिकार था। यह ज़रुरी था कि अब स्त्री ‘आंसू बहाने वाली असहाय औरत’ के इमेज से बाहर निकले और ‘स्त्री-अस्मिता वाली स्त्री’ के रुप में साहित्य में दाखिल हो। इस प्रसंग में कहा जा सकता है कि प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल और रघुवीर सहाय की कविताओं में स्त्री के प्रति चेतन भाव है। स्त्री उनके अवचेतन में शिरकत नहीं करती बल्कि स्त्री चेतन मन का हिस्सा बनकर उनकी कविताओं में रुपायित हुई है। ये दोनों कवि विशुद्ध मार्क्सीय दृष्टिकोण से स्त्री को देखते हैं। जब ये स्त्री पर लिखते हैं तो स्त्री के प्रति दया भाव नहीं प्रगतिशील भावबोध और समतावादी दृष्टिकोण का असर साफ़ झलकता है। केदारनाथ अग्रवाल ने तो स्त्रियों पर अनेक कविताओं की रचना की है जो बिलकुल अकुंठित भाव से लिखी गई है, ‘न कुछ, तुम एक चित्र हो/ रंगों से उभर आए अंगों का/ जवान/ जादुई/ जागता/ मन पर मेरे अंकित/ मेरे जीवन की परिक्रमा का/ अशांत/ अतृप्त/ अनिवार्य/ रंगीन विद्रोह।’

स्त्री-जीवन पर रघुवीर सहाय की एक मौजूं कविता है, ‘पढ़िए गीता/ बनिए सीता/ फिर इन सबमें लगा पलीता/ किसी मूर्ख की हो परिणीता/ निज घरबार बसाइए/ होंय कँटीली/ आंखें गीली/ लकड़ी सीली, तबियत ढीली/ घर की सबसे बड़ी पतीली/ भर कर भात पसाइए।’ स्त्रियों की ज़िदगी किस कदर घर-संसार की चक्की में पिसकर तबाह हो जाती है और जीवन के अंतिम छोर तक स्त्री अपनी अस्मिता को रसोईघर तक सीमित किए रहती है,उससे आगे नहीं बढ़ पाती, ये कविता इसका ताज़ा नमूना है।

प्रेम इन कवियों के लिए ‘अनटचेबल’ नहीं है। ये कवि कुंठारहित भाव से प्रेम को संप्रेषित करते हैं। स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंधों को लेकर इन्होंने अनेक खूबसूरत कविताओं को अंजाम दिया है। दोनों ने ही मुक्त भाव से अपनी पत्नी पर कई सारी कविताओं की रचना की है। ध्यानतलब है कि अक्सर कवि प्रेमिकाओं को लेकर तो सुंदर प्रेम कविताओं की सृष्टि कर लेते हैं लेकिन अपनी पत्नी पर कविता लिखने में हिचकते हैं या कहें इनमें पत्नी को छुपाकर रखने की टेंडेंसी होती है। इसकी वजह से पत्नी कविता में बहुत कम उभरकार आ पाती है या व्यक्तिगत प्रेम-प्रसंगों पर कम लिखा जाता रहा है। फलतः उन्मुक्त दाम्पत्य प्रेम का चित्रण कविताओं में बिल्कुल गायब हो जाता है। उल्लेखनीय है कि रघुवीर सहाय और केदारनाथ अग्रवाल ने कविताओं के ज़रिए नए सिरे से अपनी पत्नी को एक्सप्लोर किया है। ये पत्नी पर कविता लिखते हैं, मन की फिलींग्स को निर्बंध तरीके से प्रस्फूटित करते हैं। स्त्री को पुनर्परिभाषित करते हैं। केदारनाथ अग्रवाल का काव्य-संग्रह ‘जमुन जल तुम’ तो पत्नी को संबोधित एक अकुंठित और आवरणहीन प्रेम-कविताओं का संकलन है।

स्वच्छंद प्रेज़ेंस के साथ जब आधुनिक स्त्री साहित्य में दाखिल होती है तो स्त्री का सामंती इमेज गायब होता है और वो नए फॉर्म और नए अंदाज़ में प्रवेश करती है। फलतः स्त्री के बारे में सारे पुराने मिथ टूटने लगते हैं। अब स्त्री रोने और पुरुषाश्रित होने के अलावा अपने फैसले लेने वाली स्वायत्त स्त्री का इमेज धारण करती है। अब साहित्य में स्त्री-जीवन का लक्ष्य कोमलांगी, लावण्यमयी, रुपवती, मंदगामिनी नायिका बनकर पुरुषों को आकर्षित करना नहीं रह जाता बल्कि अपनी स्वतंत्र अस्मिता को दर्ज करना बनता है। फलतः साहित्य का चरित्र बदलता है। स्त्री फैंटेसी में न रहकर अब अपनी वास्तविक हालातों के साथ साहित्य में रिफ़्लेक्ट होती है। वह गम में दुखी, आनंद के समय खुश दिखाई देती है। स्त्री-अस्मिता के लिए उसकी छटपटाहट अब साफ़-साफ़ सुनाई देती है। वह कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, आत्मकथाओं में अपने जीवन के साथ, सांसारिक अनुभवों के साथ दाखिल होती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress