विविधा हिंदी दिवस

विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ भोपाल में

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन सम्पन्न हो गया । उसके तुरन्त बाद हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह या फिर हिन्दी पखवाड़ा इत्यादि उत्सवों की बहार आ गई है । सरकारी कार्यालयों , ख़ासकर केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों के बाहर इसकी सूचना देते हुये रंग विरंगे बैनर दिखाई दे रहे हैं । इन उत्सवों के लिये , स्थान स्थान पर हिन्दी के विद्वानों को आमंत्रित किया जा रहा है । दान दक्षिणा तो मिलती ही है । साल भर में यही पाँच दस दिन होते हैं जब इनकी चिरौरी होती है । इन दिनों सरकारी कार्यालय यजमान की भूमिका में पहुँच जाते हैं और हिन्दी के ज्ञात अज्ञात विद्वान पुरोहित होते हैं । पितृ पक्ष के बाद का यह हिन्दी पक्ष है । पितृ पक्ष में सम्मान से पितरों को देवलोक से बुलाया जाता है और पूजा अर्चना के बाद सम्मान सहित फिर उसी लोक में वापिस भेज दिया जाता हैं । यह भारतीय परम्परा है । इसी प्रकार हिन्दी पक्ष में संविधान लोक से हिन्दी को बुलाया जाता है और पूजा अर्चना करने के बाद फिर सम्मान सहित संविधान लोक में वापिस भेज दिया जाता है । यह १९५० के बाद से प्रचलित राजकीय परम्परा है । लेकिन इन हिन्दी उत्सवों में कहीं कहीं अत्यन्त भाव प्रवीण दृश्य भी देखने को मिलते हैं , जिससे पूरा वातावरण अत्यन्त इमोशनल हो जाता है । जब सरकारी कार्यालय का कोई बड़ा अधिकारी मसलन भारतीय प्रशासनिक सेवा में घुसा हुआ कोई व्यक्ति , या फिर कोई ऊँचे दर्जे का वैज्ञानिक , इंजीनियर या चिकित्सक , कोई छँटा हुआ कुलपति या फिर घुटा हुआ राजनीतिज्ञ ऐसे हिन्दी उत्सव में अपना आशीर्वाद देने के लिये पहुँचता है और इस क्षमा याचना सहित कि उसे अच्छी तरह हिन्दी बोलनी आती तो नहीं लेकिन क्योंकि देश की एकता के लिये यह भाषा सीखना और इसमें बोलना जरुरी है , इसलिये मैं बोलने का प्रयास कर रहा हूँ । फिर वह अपने ही कार्यालय के सभी कर्मचारियों से आग्रह करता है कि उसकी ग़लत हिन्दी पर उसे क्षमा कर दिया जाये । हर हिन्दी उत्सव में किसी न किसी मोड़ पर यह प्रसंग आता ही है । उस समय का दृश्य देखने लायक होता है । रामभज क़िस्म के श्रोता साहिब की इस साफ़गोई से अभिभूत हो जाते हैं । साहिब द्वारा हिन्दी पर किये गये इस अहसान तले साल भर के लिये हिन्दी दब जाती है और बिना कुछ बोले साल भर इस अहसान की जुगाली करती रहती है । ऐसा नहीं कि फ़िल्मी शैली में ,” मैं हिन्दी बोलने का प्रयास करूँगा ” या फिर ” मेरी ग़लत हिन्दी पर मुझे क्षमा करेंगे” डायलाग बोलने वाले अधिकारी तमिलनाडु या मिज़ोरम के ही हों । वे बिहार या उत्तरप्रदेश या फिर हिमाचल प्रदेश के भी हो सकते हैं । असल में तो वे ज़्यादातर हिन्दी भाषी प्रदेशों के ही होते हैं । क्योंकि सरकार में किसी उच्च पद पर बैठे अधिकारी के बारे में यदि कार्यालय में यह पता चल जाये कि इसे हिन्दी आती है या फिर इसकी मातृभाषा ही हिन्दी है तो उसका रुतबा आधा रह जाता है । इस मामले में दक्षिण भारत के अधिकारी ज़्यादा फ़ायदे में रहते हैं क्योंकि उन्हें यह सिद्ध करने के लिये अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता कि उन्हें हिन्दी नहीं आती । देश की राजकीय परम्परा में यह स्वीकार करके ही चला जाता है कि दक्षिण भारत के अधिकारी को हिन्दी नहीं आती । यहाँ तक कि जब दक्षिण भारत का कोई अधिकारी हिन्दी में भी बात करता है तो उसका उत्तर अंग्रेज़ी में ही दिया जाता है । राजकीय परम्परा बन गई है कि दक्षिण का अधिकारी हिन्दी नहीं जानता , तो उसका उल्लंघन कैसे किया जा सकता है ? मैंने यहाँ जानबूझकर  आदमी शब्द का प्रयोग नहीं किया क्योंकि सब जानते हैं , आदमी और अधिकारी में बहुत अन्तर होता है । सरकारी परम्पराओं का पालन करते हुये या फिर कार्यालय में अपना रुतबा बनाये रखने के लिये हिन्दी भाषी प्रदेशों के अधिकारियों को भी पाखंड करने पड़ते है कि उन्हें हिन्दी नहीं आती । और यहाँ तक अंग्रेज़ी भाषा के आने या न आने का प्रश्न है , यदि कोई दक्षिण भारत के विद्वान की अंग्रेज़ी का उच्चारण उत्तर भारत का आदमी समझ ले या फिर उत्तर भारत के विद्वान की अंग्रेज़ी का उच्चारण दक्षिण भारत का आदमी समझ ले तो दोनों को ही पुरस्कृत किया जा सकता है ।

हिन्दी सप्ताह में कभी कभी ऐसी  घटनाएँ घटित हो जाती हैं , जो किसी भी संस्थान के इतिहास का स्थाई हिस्सा बन जाती हैं । कोई आई. ए. एस अधिकारी फ़ाइलों पर हिन्दी में कुछ टिप्पणियाँ लिखता है । इसका उद्देष्य या तो संस्थान के अन्दर / बाहर के हिन्दी सेवियों की नज़र में बहुत ऊँचा चढ़ जाना होता है या फिर कोई ईनाम हासिल करना होता है । लेकिन ऐसा अधिकारी भी यह ध्यान रखता है कि टिप्पणी में दो चार शब्दों के हिज्जे ग़लत लिखें जायें । इससे अधिकारी की शान में चार चान्द लग जाते हैं । ऐसा अधिकारी हिन्दी उत्सव के अवसर पर उपदेश जरुर देता है । ” आप लोग हिन्दी को सरल बनाने की कोशिश कीजिए । तभी यह आम आदमी की भाषा बन पायेगी ।” वैसे वह स्वयं जानता है कि हिन्दी आम आदमी की भाषा शुरु से ही रही है । समस्या उसके सरकारी भाषा न बनने की है , आम आदमी की भाषा बनने की नहीं । यह उपदेश देने के बाद वह अधिकारी , मंत्रालय और लोहपथगामिनी शब्दों के चुटकुले भी जरुर सुनायेगा । किस प्रकार एक हिन्दी प्रेमी सज्जन ने रिक्शा वाले को कहा कि उसे सचिवालय जाना है । जब रिक्शावाला समझ नहीं पाया तो उसने कहा कि सैक्रेटेरियट जाना है । यह सुन कर रिक्शावाला बोला, भाई साहिब ऐसा हिन्दी में बोलो न , आप तो पहले अंग्रेज़ी में बोल रहे थे । ” वैसे यह चुटकुला इतना पुराना और घिसापिटा हो गया है कि इसे सुन कर हँसी नहीं आती बल्कि सुनाने वाले की अक़्ल पर तरस आता है । लेकिन हिन्दी उत्सव में उपदेशक की भूमिका में अवतरित हो चुका अधिकारी यह चुटकुला सुना कर ख़ुद ही हँसता है और उसकी इज़्ज़त को ढाँपे रखने के लिये बाक़ी कर्मचारी भी हँसते हैं । हिन्दी उत्सव में हिन्दी का अनुष्ठान करवा रहा हिन्दी पुरोहित भी न चाहते हुये हँसता है । क्योंकि वह जानता है , दक्षिणा के चैक पर इसी अधिकारी के हस्ताक्षर होंगे । जय हिन्दी । जय भारत ।

और मेरा दुर्भाग्य देखिए । इन हिन्दी उत्सवों के मौक़े पर मैं यहाँ चेन्नई में पड़ा हूँ । किसी यजमान ने नहीं बुलाया । इधर सागर तट पर ये उत्सव चोरी छिपे किसी किसी सरकारी दफ़्तर में ही धीमी आवाज़ में मनाए जाते हैं । लेकिन मैं भी आख़िर हिन्दी का ही तो पंडा हूँ । मद्रास विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में जुगाड़ लगा लिया है । दक्षिणा न सही , भोजन तो है ही । संकट काल में जो मिल जाये , उसी से संतोष करना चाहिये