विश्व-पटल पर भारत,भारतीय,भारती

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india डा.राज सक्सेना

विश्व में विडम्बनाएं सर्वत्र उपलब्ध हैं किन्तु सम्भवतः भारत विडम्बनाओं का

देश बन कर रह गया है | इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि एक देश के तीन-तीन

प्रचलित नाम हों | क्या विश्व के किसी देश में यह सम्भव हो सकता है कि उसके एक से –

एक से अधिक नाम हों | शायद नहीं?,किन्तु हमारे भारतवर्ष के सरकारी और गैर सरकारी

दोनों क्षेत्रों में देश के तीन-तीन नामों को औपचारिक मान्यता प्राप्त है | जी हां, भारत जैसे

निरपेक्ष (हर मामले में) देश में यह हो रहा है और खूब धड़ल्ले से हो रहा है | इस प्रक-

रण में न हमें अपनी स्वंय की अस्मिता का लिहाज है और न ही देश की अस्मिता का |-

हमारे अंग्रेजी भक्त मैकाले के सुपुत्रगण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को ‘इन्डिया’

कहते और लिखते हैं | पुरानी पीढी के नेता और उर्दूदां लोग विशेषरूप से इस देश के अल्प-

संख्यक समुदाय के लोग इसे ‘हिन्दुस्तान’ नाम से पुकारते और लिखते हैं | बाकी बचे

बहुत कम लोग विशेष रूप से भा ज पा और हिन्दुत्ववादी लोग तथा अपने आप को राष्ट्र-

वादी और भारतीय संस्कृति के पोषक कहने वाले लोग इसे इसके संवैधानिक नाम ‘भारत-

वर्ष’ के नाम से पुकारने का दुःसाहस करते हैं |

अब यह भी विडम्बना ही कही जाएगी कि भारत और भारत से बाहर

अवशेष क्षेत्र में ‘भारत’ नाम का संसद द्वारा सर्व सम्मति से दिया गया नाम ‘इन्डिया’

और उसके समर्थकों द्वारा धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर किया जा रहा है | इसे इस देश का

दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि यह सब किया जा रहा है इस देश के नीति-नियन्ताओं

और भारत व प्रदेशों में सत्तासीन नौकरशाहॉ और निजी क्षेत्रों के लगभग सम्पूर्ण ताने-

बाने द्वारा | कोढ में खाज यह कि टी वी और सिनेमा के ‘कान्वेण्ट’ शिक्षित कार्यक्रम-

उदघोषकों, कार्यक्रम निदेशकों और पटकथा लेखकों द्वारा भी इस भारत को इन्डिया बनाने

की दुरभिसंधि में सीमाओं का अतिक्रमण कर संविधान विरोधी योगदान दिया जा रहा है |

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती मित्रो | विश्व में केवल भारत ही एक-

मात्र ऐसा देश है जिसको अपने राष्ट्रनाम के अतिरिक्त अपनी केन्द्रीय राजधानी के भी तीन

नाम होने का ‘गौरवशाली’ सम्मान प्राप्त है | विडम्बना यह भी कि इन तीनों नामों का

भी सरकारी और गैरसरकारी स्तरों पर बिना संवैधानिक मर्यादाओं की परवाह किए धड़ल्ले

से प्रयोग होता है |  ‘इन्डिया’ में रहने वाले लोग इसे ‘डेलही’, ‘हिन्दुस्तान में’ रहने-

वाले लोग इसे ‘देहली’और भारत और भारतीयता से प्रेम करने वाले लोग इसे ‘दिल्ली’

पुकारते और लिखते हैं |

विश्व के इस ‘मेरा भारत महान’ देश में यह सब हम सबके सामने,हम-

सब के द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा है और हम हैं कि हमें लज्जा नाम की संवेदनशीलता

छू कर भी नहीं गुजरती | आजाद होने के पैंसठ वर्ष बाद भी हम अपने देश और राजधानी

को एक सर्वमान्य नाम नहीं दे पा रहे हैं | आखिर क्यों?,क्या मजबूरी है? | क्या केवल

हमारे गौरांग महाप्रभुओं ने इसे ‘इन्डिया’ और ‘डेल्ही’ कहा इस लिए हम भी कहें? |

बिल्कुल यही हाल हम ‘इन्डियनों’ ने ‘राष्ट्र-भाषा’के नाम पर खिलवाड़-

करके किया है | क्या यह भी एक विडम्बना नहीं है कि विश्व के महानतम देशों में से –

एक देश भारत का सर्वोच्च न्यायालय यह व्याख्या देता है कि देश की राष्ट्र-भाषा ‘हिन्दी’

घोषित नहीं है | क्या इस निर्णय पर विश्व में कहीं भी, जरा-जरा सी बात पर तूफान-

खड़ा कर देने वाले तथाकथित ‘नेताओं’ ने, इस दिशा में भी देश को हिला देने वाली –

बात तो छोड़िए, क्या  स्वंय का कोई अंग (जुबान ही सही) हिलाने का प्रयास किया है |

संविधान में राष्ट्र-भाषा के रूप में हिन्दी का स्पष्ट रूप से उल्लेख होने के बावजूद भी वि-

भिन्न बहानों से उसके पैरों में सवैअधानिक बेड़ियां डाल कर उसे ‘राष्ट्र-भाषा’ के पद पर

नहीं बैठाया जा रहा है | जब कि दूर-दूर तक उसका कोई भारतीय ‘विकल्प’ वास्तव में

नजर भी नही आता |

डा.जयन्ती प्रसाद नौटियाल द्वारा अपने शोध-आलेख में उल्लिखित आंकड़ों

में वर्ष २००४ में भारत के प्रदेशों में कुल जनसंख्या के प्रति हिन्दी जानने वाले लोगों की

संख्या और उनका प्रतिशत प्रदेशवार प्रस्तुत किया है |

उनके आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००४ में भारत की कुल जनसंख्या-

१,०६,५०,७०,६०७ में से कुल ८०,५०,७१,४६७ लोग अर्थात कुल जनसंख्या का लग-

भग ८०%(अस्सी प्रतिशत)देश भर के सुदूर कोने-कोने तक हिन्दी पर पूर्ण अधिकार से –

ले कर काम चलाऊ तक का संज्ञान रखता था | इसके बावजूद उन्हीं के आंकडों के अनु-

सार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष २००५ में संसार में हिन्दी जानने व समझने वाले लोगों-

की संख्या एक अरब,दो करोड़ थी | जो वर्ष २००९ में बढ कर एक अरब सत्ताईस करोड़-

का आंकड़ा छू चुकी थी |जब कि विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा के रूप

में प्रचारित ‘मण्डारिन’ (चीनी-भाषा) के समझने वाले वर्ष २००५ मे मात्र नब्बे करोड़

थे और वर्ष २००९ में वे सड़सठ लाख की मामूली सी वृद्धि का आंकड़ा ही छू पाए |

इसे भी विडम्बना ही कहा जाएगा कि राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तरों पर

बिना किसी सरकारी सहायता के हिरन जैसी चौकड़ी भर रही हिन्दी अपने देश के २ प्र-

तिशत मैकाले के उत्तराधिकारियों के षड़यन्त्रों के चलते राष्ट्र-भाषा के संवैधानिक पद पर निर्वि-

वाद रूप से नहीं बैठ पा रही है | इसके विपरीत इन अंग्रेजी के मानस पुत्रों द्वारा विश्व में

निचले स्तर के पायदानों पर खड़ी अंग्रेजी भाषा को नौकरी के आकर्षण के साथ जोड़कर भार-

तीय जनमानस को एक खतरनाक मोड़ देकर उन्हें भारतीय से ‘इन्डियन’ बना दिया है और

इन इन्डियन कान्वैण्टों और पब्लिक स्कूलों से निकलने वाले ‘इन्डियनों’ की आने वाली –

नस्ल का हिन्दी के प्रति क्या आकर्षण होगा इस पर यदि अभी विचार नहीं किया गया तो

अगला भारत कैसा होगा इसकी कल्पना ही सिहरा देती है |

विषय को आगे बढाने से पूर्व सुप्रसिद्ध हिन्दी सेवी फादर कामिल बुल्के के-

तत्कालीन कथन पर दृष्टिपात हमें वर्तमान समय में जागरूकता की प्रेरणा बन सकता है |

उन्होंने कहा था –

“हिन्दी भाषा इतनी समृद्ध, सक्षम और सरल है कि हमारा सारा कामकाज

सुचारू रूप से हिन्दी में किया जा सकता है | यह खेद की बात है कि हिन्दी भाषियों  में

भाषा के प्रति स्वाभिमान नहीं जगा,अन्यथा बहुत पहले हिन्दी देशव्यापी स्तर पर प्रचलित

हो गई होती | अचानक ही हिन्दी में कामकाज होना शुरू होने पर कुछ कठिनाइयां होना –

स्वाभाविक हैं | क्रमशः इनका निराकरण सम्भव हो सकता है | जब मैं बेल्जियम से –

१९३५ में आया था तो भारतीय जनता में अपनी भाषा के प्रति घोर उपेक्षा पाई | यह देख

कर मैंने हिन्दी पढने का संकल्प लिया | मैंने निश्चय किया कि हिन्दी की सेवा करूंगा |

भारत में संस्कृत मां है, हिन्दी ग्रहणी और अंग्रेजी नौकरानी | इस तथ्य को कोई स्वाभि-

मानी भारतीय कैसे भुला सकता है ?|”

उपरोक्त कथन के परिप्रेक्ष्य में अब समय आ गया है कि हम सब –

स्वाभिमानी बनें और संस्कृत की मां के समान पूजा करें, हिन्दी गृहणी के समान घर –

(भारत) की पूर्ण व्यवस्था देखे और अंग्रेजी नौकरानी के दायित्व का परिपालन गृहणी –

(हिन्दी) के अधीन रह कर करे | लेकिन क्या यह सम्भव है?, है क्यों नहीं?| लेकिन

इसके लिए हमें दृढ इच्छाशक्ति वाले एक सुभाष बोस, स.भगत सिंह या चन्द्र शेखर –

आजाद जैसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो यह कठोर निर्णय ले कि आज और अभी से

सारे काम हिन्दी में होंगे |

आज हमें आपको यह निर्णय लेने का भी समय आ गया है कि देश के

कई नाम, राष्ट्रीयता के कई नाम और राष्ट्र कि कई प्रचलित भाषाओं में से एक को चुनें

और दृढता से उसका प्रयोग करें, आने वाली उलझनों से लड़ने की मानसिकता के साथ |

यह भी निश्चय करलें कि हम देश को ‘भारत’,राष्ट्रीयता को भारतीय –

और भाषा को भारती कहेंगे | भारती शब्द पर चौंकने की आवश्यकता नहीं है | भारती

हिन्दी ही होगी मगर कुछ संशोधनों के बाद | संशोधनों के बाद इसलिए कि संसार में –

कोई वस्तु, तत्व, विचार,धर्म या भाषा सम्पूर्ण या त्रुटिरहित नहीं है | हो भी नहीं –

सकती | सम्पूर्णता सम्भव भी नहीं है | किन्तु हम सम्पूर्णता के अधिक सन्निकट

प्रस्तुतिकरण दें यह हमारे खुले दिमाग, निष्पक्ष सोच और सम्भव उपलब्धता पर ही

निर्भर करेगा | भाषाविदों ने हिन्दी और देवनागरी लिपि में भी मापदण्डों के अनुरूप

कुछ त्रुटिया पाई हैं | देश हित में हमें अपने आग्रहों को एक किनारे कर देवनागरी

और हिन्दी से यह कमियां निकाल कर,अन्य भाषाओं विशेष कर भारतीय भाषाओं

की कुछ खूबियों को लेकर, उन्हें हिन्दी में समायोजित कर, एक अलग त्रुटिरहित

भाषा जिसमें उदारतापूर्वक  अन्य भारतीय भाषाओं के अत्यन्त प्रचलित शब्दों का

प्रयोग स्वीकृत कर उसे एक नया रूप और नया नाम ‘भारती’ देकर सर्वमान्यता

प्राप्त करनी होगी | तभी भारत  की एक भारतीय राष्ट्र-भाषा(हिन्दी)की संकल्पना

का व्यवहारिक स्वरूप स्वीकार होना संभव हो पाएगा |

यहां कुछ आग्रही लोग यह प्रश्न उठा सकते हैं कि ‘हिन्दी’नाम

क्यों नहीं ?| इस संबध में सबसे पहले यह ध्यान में लाना आवश्यक होगा कि

अनेक विवादों के चलते और कुछ क्षुद स्वार्थों या राजनैतिक स्वार्थों के वशी-भूत

यह जानते हुए भी कि भारत की एक मात्र भाषा हिन्दी ही है जो राष्ट्र-भाषा  –

के राज तिलक के सर्वथा योग्य है | केवल विरोध करने के लिए ही कुतर्कों के

साथ इसका विरोध करते रहते हैं | हिन्दी के कुछ बदले स्वरूप और नाम परिवर्तन से उन्हें

सहमति का एक बिन्दु मिल जाएगा और वे इसके लिए सहमत हो जाएंगे |

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ सौ सालों से ही हिन्दी भाषा का नाम

हिन्दी विख्यात हुआ है | इस से पूर्व इसकी यात्रा या यूं कहें कि हिन्दी की विकास यात्रा पर

नजर डालें तो, हिन्दी के प्रारम्भिकस्वरूप और वर्तमानस्वरूप में जमीन आस्मान का अन्तर

है | अगर हम पुरानी और नई हिन्दी की तुलना करें तो वे अलग-अलग भाषाएं लगती हैं |

अपभ्रंश नाम से प्रारम्भ हिन्दी चौदहवीं शताब्दी तक छिटपुट रूप से साहित्य में तो प्रयोग –

होती रही किन्तु बोलचाल में अपभ्रंश का प्रयोग हजारवीं सदी के पूर्व ही लगभग समाप्त हो –

चुका था | अपभ्रंश और प्राकृत भाषा से क्रमशः आकार ग्रहण करती हिन्दी के विकास को –

मुस्लिम आक्रमण से अन्य विकसित हो रही उपभाषाओं के समान ही एक जबरदस्त झटका

लगा |अब तक हिन्दी खड़ी बोली का आकार ग्रहण कर चुकी थी | अब जहां विद्यापति ने

मैथिली और अपभ्रंश में काव्य रचनाएं कीं, संत कवियों ने खिचड़ी भाषा प्रयोग की | रासो

की रचना डिंगल-पिंगल में हुई, वहीं हिन्दुस्थान के निवासियों की स्थानीय भाषा होने के –

कारण अमीर खुसरो और अन्य मुस्लिम कवियों ने इसे हिन्दी, हिन्दवी और हिन्दुई नाम

देकर इसमें साहित्य रचना प्रारम्भ की | दक्षिण में मुस्लिम आधिपत्य के के उपरान्त अरबी

-फारसी लिपि में लिखी जाने वाली दक्खिनी हिन्दी राजभाषा तक बनी | खड़ी बोली (हिन्दी

और उर्दू) में प्रचुर साहित्यसृजन हुआ और यह गंवारू भाषा से निकल कर साहित्यिक भाषा

हो गई |

यहां यह भी स्मरणीय है कि हिन्दी, हिन्दू शब्द से जनित है | अरबी लोगों

ने और न कहे जाने योग्य पर्यायवाची शब्दों का भारतीय लोगों के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग

किया | अरबी, फारसी शब्द कोषों में सम्भवतः आज भी हिन्दू शब्द के यही अर्थ दिये गए

हैं | वैसे भी अन्य कुछ शब्दों की भांति यह शब्द हमारी पराधीनता का द्योतक है | हमारा –

अपना शब्द तो यह बिल्कुल नहीं है | यदि इसे स्वरूप और संरचना वही रहने देकर मात्र –

नाम ही बदल कर ‘भारती’ कर दिया जाय तो सम्भवतः किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति को आपत्ति

नहीं होगी | जब विभिन्न कालों और स्तरों में इसके नामों में परिवर्तन होता रहा है तो फिर

इस दास्ता के प्रतीक शब्द में एक और परिवर्तन सही |

भाषाविदों और लिपि विशेषज्ञों द्वारा हिन्दी और देवनागरी लिपि में सुझाए गए

परिवर्तनों के पश्चात इसका नाम ‘भारती’ कर देने से इस पर से एक क्षेत्रीय भाषा होने का

लेबल भी हट जाएगा और उत्तर तथा दक्षिण का भाषा-विवाद भी समाप्ति के कगार पर पंहुच

कर सुखद परिणति प्राप्त कर सकने में सक्षम हो सकेगा |

आज दृढ निश्चय के साथ राष्ट्र का नाम ‘भारत’, राष्ट्रीयता का नाम ‘भारतीय’

और भाषा का नाम ‘भारती’ निश्चित करने का समय आ गया है | भाषा का नाम भारती

कुछ दिन अटपटा जरूर लगेगा, किन्तु यह परिवर्तन राष्ट्रहित, हिन्दीहित और सामाजिकहित

में एक खरा निर्णय साबित होगा | यह निश्चित है | खुले दिमाग और निष्पक्ष सोच के –

साथ इस पर विचार की आवश्यकता है |

जय भारत, जय भारतीय, जय भारती |

 

4 COMMENTS

  1. भारत में हिंदी का वर्चस्व होते हुए भी उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देने में बनी हुए हिचकिचाहट को देखते हुए भारत, भारती और भारतीय का आपका सुझाव निस्संदेह विचारणीय है. इस पर भी ध्यान इस बात पर दिए जाने की आवश्यकता है कि विदेशवासी भारतीयों के अनथक परसों के फलस्वरूप अधिकाँश विश्व अब भली भांति जानता है और गत अनेक वर्षों से और भी जानने लगा है कि हिंदी भारत की मुख्य भाषा है. विदेशियों को विस्मय अवश्य होता है कि फिर यह घोषित राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है. आपके द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार भारत की ८० प्रतिशत जनसंख्या हिंदी से परिचित या सुपरिचित है.

    हिंदी को “भारती” बनाने में अनेक वर्ष लग जाएंगे. वस्तुत: सबसे पहले इण्डिया को भारत और इंडियन को भारतीय बनाने के लिए जोरदार मुहिम चलाए जाने की आवश्यकता है. अंग्रेजियत का चोगा पहने देशवासी जब स्वत्व की पहचान करने लगेंगे तो हिंदी के प्रति उनका सुप्त अनुराग स्वत: अंगड़ाई लेकर जग उठेगा. देश की हिंदी भाषी बहुसंख्या का आग्रह-अनुरोध अल्पसंख्यक विदेशी भाषा भक्तों की समझ में आने लगेगा. भाषा का सदियों से चला आ रहा नाम अकस्मात बदल देने से देश में हिंदी के प्रति बनी हुई उदासीनता समाप्त हो जाएगी ऐसा मुझे नहीं लगता. इसलिए क्योंकि अंग्रेज़ी भाषा इसलिए मनभावन है क्योंकि बहुतों के लिए यह व्यवसाय और धनार्जन की भाषा बन चुकी है. इसलिए हिंदी के नाम परिवर्तन की बजाए देश की बदलती मानसिकता में परिवर्तन की आवश्यकता है.

  2. हिंदी भाषा
    भारत के बोलने की भाषा में प्राचीन काल से ही विविध परिवर्तन होते रहे हैं –
    १-बैदिक काल में -ऋग्वेद की संस्कृति थी |
    २-ऐतिहासिक काल में- ब्राह्मणों की संस्कृति रही |
    ३-दार्शनिक काल में और बौध्यकाल में -पाली संस्कृति थी |
    ४-पौराणिक काल में -प्राकृति
    और दशवीं शताब्दी में- राजपूतों के उदय के समय से “हिन्दी ” रही है |
    स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों का अनुवाद संस्कृत से हिंदी में करके हिंदी को उचाई प्रदान किया |

  3. बहुत बहुत सुन्दर।
    अनेकानेक धन्यवाद।
    मूल्यवान योगदान है आपका यह आलेख।
    ॥जय भाषा भारती॥

    • आ.डा.साहब सादर अभिवादन | आपको आलेख पसंद आया मेरा सौभाग्य है | आपके आशीर्वचन से और अधिक उत्साह से लेखन की प्रेरणा मिली है | आशा है आप स्नेह बनाए रखेंगे | आदर सहित |

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