साहित्‍य में लोकमंगल की आराधना

-हृदयनारायण दीक्षित

शब्द ब्रह्म है। ब्रह्म संपूर्णता है। संपूर्ण और ब्रह्म पर्यायवाची हैं लेकिन संपूर्ण शब्द में ब्रह्म का विराट वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं है। उपनिषद् के ऋषि ने इसीलिए ‘पूर्णमिदं पूर्णमदः’ शब्द प्रयोग किये। उपनिषद् में कहा गया कि यह पूर्ण है, वह पूर्ण है। यह पूर्ण उस पूर्ण से निकला है। यहां यह और वह शब्द दृश्यमान लोक और अदृश्य सत्ता के लिए प्रयुक्त हुए हैं। ऋषियों ने अदृश्य और अव्यक्त सत्ता का कोई नाम नहीं दिया सिर्फ ‘वह’ कहा और उसकी अभिव्यक्ति को कहा-यह। प्रश्न है कि क्या यह और वह मिलकर दो हैं? ऋषि ने कहा कि यह पूर्ण वह – पूर्ण से प्रकट हुआ है। मंत्र में आगे कहा कि पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही शेष रहता है। वैदिक अनुभूति में दो पूर्ण नहीं है। इसलिए पूर्ण में पूर्ण घटाने की गणित दार्शनिक शब्दावली है। पूर्ण सदा पूर्ण रहता है। घटाओं तो भी, जोड़ो तब भी। पूर्णत्व ही ब्रह्म है। यही शब्द सत्ता है। रूप व्यक्त सत्ता है, अनुभूतियां अव्यक्त सत्ता होती हैं। व्यक्त सत्ता यानी रूप को शब्द सत्ता ही नाम देती है, अर्थ देती है। शब्द अनुभूतियों को भी प्रकट करने का उपकरण है। शब्द व्यक्त और अव्यक्त दोनो को ही वाणी में धारण करने व व्यक्त करने का उपकरण है। दोनो के महामिलन से विराट भारतीय वाड्.मय का सृजन हुआ।

साहित्य सृजन में भाव जगत् और अनुभूतियों की महत्ता है। भाव और अनुभूति की कोई भाषा नहीं होती। दुःख, करूणा, प्रीति और प्यार की अभिव्यक्ति के लिए वाणी ही माध्यम बनती है। सर्जक का सृजनकर्म वाणी के रूप में ही चित्त में उगता है, बढ़ता है, खिलता है, फलता और पक कर साहित्य बनता है लेकिन सृजन के इस कर्म में वाणी के साथ आस्था भी अपना काम करती है। आस्था के सान्निध्य में रची बसी वाणी सृजन के जरिए रूप आकार पाती है। ऐसा साहित्य लोकमंगल का उपादान बन जाता है। भारतीय साहित्य सृजन अपने मूल रूप में वाचिक रहा है। वाचन में वाणी की मुख्य भूमिका है। वैदिक ऋषियों ने वाणी के चार प्रकार बतायें हैं। ‘ऋग्वेद’ की वाणी देवी समस्त ब्रह्मांड धारण करती है। वाणी की देवी रूप आस्था या सरस्वती रूप उपासना भी अंध आस्था नहीं है। यथार्थवादी विचार में भी वाणी से ही विश्व के सभी रूप नाम कहे जाते हैं। वाणी की शक्ति बहुआयामी है। वह रोजमर्रा के कामकाज में वार्तालाप का उपकरण है। वह पूर्वजों के संचित ज्ञान को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम है। वह दर्शन विज्ञान की उपलब्धियों के वाद-प्रतिवाद और संवाद में सहायक है। लेकिन इस सबसे भिन्न वह सर्जन का उपादान-उपकरण भी है।

मनुष्य आनंद अभीप्सु है। मनुष्य की सारी चेष्टाएं आनंद प्राप्ति के प्रयास हैं। आनंद आंतरिक अनुभूति है। आनंद-अनुभूति तक पहुंचने का काम संवेदन करते हैं। संवेदन जगाने का काम प्रकृति के रूप करते हैं। रूप पदार्थ होते हैं। रूप का आयतन होता है, लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई होती है, घनत्व भी होता है। आनंद का आयतन नहीं होता, लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई भी नहीं होती। लेकिन आनंद के घनत्व की अनुभूति होती है। जार्ज संतायना का कथन है कि सौंदर्य आनंद का वस्तुगत रूपांतरण है – प्लेजर ऑबजेक्टीफाइड है। जार्ज की मानें तो आनंद वस्तु रूप में होकर सौंदर्य बनता है। यहां आनंद पदार्थ हो गया है। लेकिन आनंद सहित कोई अनुभूति पदार्थ नहीं होती। सौंदर्य आनंद का वस्तुगत नहीं है। रूप वस्तुगत है, रूप चाक्षुष है। रूप देखकर संवेदन पैदा होते हैं, रूप दर्शन से उत्पन्न संवेदन सुख का गाढ़ापन आनंद है। लेकिन भारतीय योग साधना और दर्शन में सत्य साक्षात्कार को सबसे बड़ा आनंद कहा गया। सत्य पदार्थ नहीं होता। पदार्थ का रूप होता है। प्रत्येक रूप अस्थाई है। रूप परिवर्तित होते हैं। रूप की सत्ता पर काल का प्रभाव पड़ता है। सारे रूप काल की सत्ता के नियंत्रण में हैं लेकिन वैदिक ऋषियों के अनुसार सत्य कालाबाधित – काल अबाधित है। सत्य पर भूत, भविष्य और वर्तमान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

सत्य को देखा नहीं जा सकता। सत्य का कोई रूप नहीं होता। जो देखा जा सकता है, वह अस्थाई रूप, आकार और पदार्थ होता है। सत्य की अनुभूति होती हैं, अनुभूति का केंद्र चेतना है। वैयक्तिक चेतना संपूर्ण विराट चेतना का ही हिस्सा है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे ‘चिति’ कहा है। परम चैतन्य सत्रूपा है, वही वास्तविक सत्य है और परम-आनंद है। सत् चित् आनंद अलग-अलग शब्द होकर भी पर्यायवाची हैं। तीनों को मिलाकर ‘सच्चिदानंद’ शब्द बना। तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने उसे ‘रसौ वैसः’ परम रस बताया। सत् चित् आनंद का रस रूपक ही भारतीय साहित्य की मूल चेतना है। साहित्य सृजन का काम अचानक नहीं होता। प्रकृति रूपवती है। यहां रूप, रस, गंध, श्रवण का विराट है। प्रत्येक मनुष्य का इंद्रिय बोध इनसे संवेदित होता है। लेकिन सर्जक, कवि, साहित्यकार का चित अतिरिक्त संवेदनशील होता है। सर्जक के चित्त में भी विभिन्न रूपों से संवेदन उभरते हैं। सौंदर्यबोध भी एक प्रकार का संवेदन ही है। साहित्यकार अपने चित्त में संवेदन आधारित रूपक गढ़ता है। रूपक में पात्र होते हैं। साहित्यकार पात्र गढ़ता है। वह पात्रों का काम तय करता है। वह पात्रों में वही संवेदन भरता है। संवेदन उभारने वाला कथानक गढ़ता है। साहित्यकार एक नई सृष्टि गढ़ता है। वह प्रजापति बनता है। प्रजापति ब्रह्मा की रची सृष्टि में अच्छा होता है तो बुरा भी होता है। अस्तित्व सबको जगह देता है, यहां अमृत और विष एक साथ रहते हैं, प्रकाश और अंधकार अस्तित्व के ही हिस्से हैं। आस्था से जुड़ा सर्जक भी दोनों को जगह देता है लेकिन शुभ की विजय दिखाता है। प्रकाश को प्रोत्साहित करता है। ऐसा साहित्य लोकमंगल का अधिष्ठान बनता है। काव्यशास्त्री ठीक कहते हैं कि कवि ब्रह्मा से आगे बढ़कर अपना काम करता है। तुलसी और वाल्मीकि की रामकथा में शुभ-अशुभ, प्रकाश-तमस्, सुर-असुर सबकी मौजूदगी है लेकिन कथानक की गति में भारतीय ऋत, न्याय, सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा साथ-साथ चलती है। सृजनकर्म में आस्था की महत्ता है। यहां सत्य और ऋत धर्म जीतता रहता है। सामान्यतया ऐसा नहीं होता। सत्यधर्मा अक्सर हारते हैं, दुष्ट जीतते हैं लेकिन आस्था सौन्दर्य वाले साहित्य में शुभ की विजय होती है। साहित्य का लक्ष्य मनोरंजन ही नहीं होता। मनोरंजन की दृष्टि से लिखा गया साहित्य लोकमंगल का साधक नहीं बनता। ‘लोकमंगल’ साहित्य की आत्मा है। प्राचीन भारतीय वाड्.मय इसी आत्मतत्व के कारण आत्मवान, प्राणवान सत्ता है। लोकमंगल साहित्य की आस्था भी है। तुलसीदास ने ठीक कहा है – ‘सुरसरि सम सबका हित होई’। लेकिन आधुनिक साहित्य का अधिकांश भाग मनोरंजन या विचारवाद प्रेरित है। हमारे समय में सूचना आंकड़ो पर आधारित विषय सामग्री को भी साहित्य समझा जा रहा है। देह सुख को प्यार बताने वाले कथित साहित्य का प्रचार जरूरत से ज्यादा है। ऐसे लेखन को ‘बोल्ड साहित्य’ कहकर प्रशंसित भी किया जा रहा है। लेकिन यथार्थवाद का नाम लेकर लिखा गया साहित्य ‘लोकमंगल’ की भारतीय अभीप्सा को क्षति पहुंचाता है।

असली तत्व है लोकमंगल – आस्था। आखिरकार लोक क्या है? महाभारतकार व्यास ने बताया है – ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानां, सर्वदर्शी भवेन्नरः’ अर्थात् जो प्रत्यक्ष है, सब तरफ है, उसे देखने वाला सर्वदर्शी नायक बनता है। आस्था का आपूरित करता है। डॉ0 विद्यानिवास मिश्र ने ‘आंगन का पक्षी’ और ‘बनजारा मन’ में लिखा है जो गगन को आपूरित नहीं कर सकता, वह गीत व्यर्थ है, जो मन को आपूर्ति नहीं करता वह उत्सव व्यर्थ है। यह आपूरण न आदेश देने पर आता है, न रोकने पर रूकता है, यह तो जातीय प्रवाह है। आनंद और जनकल्याण चिंतन की विलास सामग्री नहीं है। वास्तविक साहित्य सृजन लोक आपूरण का ही ब्रह्म-कर्म है, सो आस्था है और लोकमंगल का अधिष्ठान है।

* लेखक विधान परिषद सदस्य हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here