यशोदानंदन-३२

Bal  Krishna and Mother Yasoda

राधा का गोरा मुखमंडल लज्जासे आरक्त हो उठा। मन में असमंजस के भाव उठ रहे थे – एक अपरिचित छोरे को अपना परिचय दें, या न दें। परन्तु वह भी समझ नहीं पा रही थी। उस अपरिचित छोरे का मुखमंडल और मधुर स्वर चिर परिचित जैसा क्यों लग रहा था? एक बार पुनः वह मुड़ी। अबतक श्रीकृष्ण खड़े हो चुके थे। दाहिने हाथ में बांसुरी थी, बायें में कमल का पुष्प। कटि के नीचे पीतांबर और उपर उसी रंग का उत्तरीय। अधरों पर मोहक मुस्कान के साथ वह अपरिचित उसे ही एकटक देखे जा रहा था। उसके प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ जाना असंभव था। घबराई राधा ने कम से कम शब्दों में उत्तर दे प्रकरण का पटाक्षेप करना चाहा –

“मैं वृषभान कुमारी राधा हूँ। अभी-अभी ब्याहकर वृन्दावन आई हूं।”

राधा मुड़ी, दो पग आगे बढ़ी, परन्तु पैर आगे बढ़ कहां पा रहे थे? कुछ पलों तक जड़वत खड़ी रही। फिर पीछे मुड़ी। श्यामसुन्दर की आँखें अब भी उसका पीछा कर रही थीं। वह पुनः दो पग आगे बढ़ी। उपालंभ देते हुए बोली –

“मेरा परिचय तो पूछ लिया। अब अपना तो बता या यूं ही वन में अकेली देख पराई नारी घूरता रहेगा?”

श्रीकृष्ण के अधरों पर रहस्यमयी स्मित और सघन हो गई। दोनों अधरों से कुछ शब्द पुनः प्रस्फुटित हुए –

“राधे! मुझे आश्चर्य है कि तुमने अभी तक मुझे पहचाना क्यों नहीं। लगता है व्रज में आकर तुमने अपने आप को भी बिसार दिया है। जल, थल, नभ – सभी में हम दोनों साथ-साथ ही तो रहते हैं। हमारे-तुम्हारे पुरातन नेह को तो वेद और उपनिषद भी गाते हैं। ऐसा कौन सा जन्म था और ऐसा कौन सा युग था जिसमें हम-तुम साथ नहीं थे? प्रकृति-पुरुष के संबन्ध को तुमने कैसे विस्मृत कर दिया? राधे! क्या तुम्हें फिर से बताना पड़ेगा कि हमारे दो तन हैं लेकिन प्राण एक ही है।”

राधा को प्रतीत हुआ जैसे संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक बार उसके नयनों के सम्मुख घूम गया। चराचर जगत का स्वामी उसे अपना परिचय दे रहा था और उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। दृष्टि अब भी श्रीकृष्ण के मुख-कमल पर केन्द्रित थी, परन्तु अधरों से बोल नहीं फूट रहे थे। वायु ने बहना रोक दिया, पत्तों ने खड़खड़ाहट बंद कर दी। पक्षियों ने कलरव स्थगित कर दिया और यमुना की लहरों ने कोलाहल को विराम दिया। पुरुष और प्रकृति के साक्षात्कार के साक्षी बने किसी ने कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं किया। जड़वत प्रकृति स्थिर पुरुष को निरख रही थी । समय का कितना बड़ा खंड बीत गया, कोई गणना नहीं कर पाया। स्वयं सूर्य भी तो अपनी गति भूल गए थे। पृथ्वी ने घूर्णन बंद कर दिया था। काल आगे बढ़े तो कैसे?

श्रीकृष्ण को अचानक इस स्थिति का भान हुआ। गतिरोध को तोड़ते हुए उन्होंने स्वयं कहा –

“राधा रानी! मैं श्याम हूँ। माता यशोदा और नन्द बाबा का एकलौता पुत्र – कृष्ण। नींद से जागो राधा रानी। बताओ, इस घने वन में किस उद्देश्य से अकेली विचरण कर रही हो?”

“हाय राम! मैं तो घर यमुना-तट के लिए निकली थी। मेरी गागर कहां है? कितना समय बीत गया। घर के लोग न जाने क्या कह रहे होंगे? कहां-कहां ढूंढ़ रहे होंगे?” घबराई राधा के अधरों से अनायास बोल फूटे।

“राधे! जब तुम यहां आई तो समय स्थिर हो गया था। रही बात गागर की, तो आओ उसे ढूंढ़े।” श्रीकृष्ण ने राधा को धैर्य दिलाया।

दोनों ने गागर कि खोज की। पास ही पगडंडी के किनारे लुढ़की हुई रीती गागर पड़ी थी। श्रीकृष्ण ने उठाकर राधा को थमाया। यमुना के किनारे तक साथ-साथ गए। जल भरने में सहयोग किया। सूरज सिर पर चढ आया था। हंसते हुए राधा को विदा किया। राधा जा तो रही थी ग्राम की ओर, परन्तु ग्रीवा बार-बार पीछे मुड़ जाती थी। श्रीकृष्ण यमुना के तीर पर खड़े मुस्कुराये जा रहे थे।

शिशिर के मध्य में कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन समस्त व्रजवासी अपने आराध्य श्रीकृष्ण का जन्म-दिवस बड़े ही उत्साह और प्रेम से मनाते थे। व्रजवासियों के कल्याण के लिए अनेक आश्चर्यजनक कृत्य करके बाल्य काल में ही सबके पूज्य बन चुके थे। उनकी सातवीं वर्षगांठ भी धूमधाम से मनाई गई। घर-घर वन्दनवार सजाए गए, रंगोली बनाई गई और सुन्दर भीतिचित्रों से प्रत्येक गृह को सजाया गया। सायंकाल सभी वृन्दावन वासी नन्द महाराज के यहां एकत्रित हुए। सात वर्ष के कुंवर कन्हैया अपने घर के आगे मित्रों के साथ खेल रहे थे। वृषभान और अन्य गोप महाराज नन्द के साथ बैठकर श्रीकृष्ण की बाल लीला की चर्चाओं में मग्न थे। आंगन में कुछ गोपियां बधाई गा रही थीं, तो कुछ नृत्य कर रही थीं। प्रत्येक आगन्तुक श्रीकृष्ण के सिर का स्पर्श कर आशीर्वाद दे रहा था। संपूर्ण वृन्दावन में उत्साह का वातावरण था।

–विपिन किशोर सिंहा

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