यशोदानंदन-४५

krishna
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krishnaसूरज अपना गुण-धर्म कब भूलता है! प्राची के क्षितिज पर अरुणिमा ने अपनी उपस्थिति का आभास करा दिया। व्रज की सीमा में आकर पवन भी ठहर गया। पेड़-पौधे और अन्य वनस्पति ठगे से खड़े थे। पत्ता भी नहीं हिल रहा था। गौवों ने नाद से मुंह फेर लिया। दूध पीने के लिए मचलने वाले बछड़े भी चुपचाप खड़े हो गए। न कोयल कूकी, न पपीहे ने टेर लगाई। सबसे अप्रभावित श्रीकृष्ण माता-पिता के गले मिले, चरण-स्पर्श किया और बलराम के साथ अक्रूर जी के रथ पर सवार हो गए। भावहीन आँखें मार्ग की ओर उठ गईं। अक्रूर स्वयं को रोक नहीं पाए। उनकी आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली। माँ यशोदा ने “कन्हैया-कन्हैया” की गुहार लगाई और कटे वृक्ष की भांति पृथ्वी पर गिर पड़ीं। संकेत मिलते ही अश्व मार्ग पर दौड़ पड़े। शीघ्र ही सारथि को गति पर नियंत्रण स्थापित करना पड़ा। कुछ ही दूरी पर गोपियों का समूह मार्ग पर लेटा था। उनके उपर से रथ ले जाना असंभव था। रथ रोककर श्यामसुन्दर नीचे उतरे। हाथ जोड़कर उन्होंने मार्ग देने की विनती की। परन्तु गोपियां कहां माननेवाली थीं? मान-मनौवल जारी था। गोपियों ने उलाहना भरे स्वर में कहा –

“हे श्यामसुन्दर! हे गोविन्द! हे कन्हैया! तुम सबकुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे हृदय में दया का लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द्र और प्रेम से जगत के प्राणियों को एक-दूसरे से जोड़ देते हो, उन्हें आपस में एक कर देते हो; परन्तु उनकी आशा-अभिलाषायें पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते, इसके पूर्व ही निष्ठुरता पूर्वक तुम उन्हें विलग भी कर देते हो। तुम्हारा यह खिलवाड़ क्या बच्चों के खेल की तरह व्यर्थ नहीं है? मरकतमणि से चिकने, सुस्निग्ध कपोल, तोते की चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरों पर मंद-मंद मुस्कान की सुन्दर रेखा से युक्त तुम्हारे मुख-कमल को हम कैसे विस्मृत कर पायेंगी? तुम हमारी आँखों से ओझल हो जाने के लिए कटिबद्ध हो। तुम्हारा यह कृत्य अनुचित नहीं है क्या? तुम्हें नए-नए लोगों से नेह लगाने की चाह हो गई है। तुम्हारा सौहार्द्र, तुम्हारा प्रेम एक क्षण में कहां चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-संबन्धी, पति-पुत्र आदि को छोड़कर तुम्हारी दासी बन गईं, परन्तु तुम आज इतने निष्ठुर बन गए कि सीधी आँखों से हमें देखते भी नहीं। तुम हमें अनाथ करके मथुरा क्यों जा रहे हो? अब भी विलंब नहीं हुआ है। तुम रुक जाओ, मथुरा मत जाओ।”

श्रीकृष्ण के पास उत्तर देने के लिए कोई शब्द नहीं था। धीरे-धीरे चलते हुए वे प्रत्येक गोपी के पास गए। उन्हें उठाकर हृदय से लगाया और मार्ग के किनारे खड़ा कर दिया। न जाने कैसा सम्मोहन था उनके स्पर्श में! गोपियों ने वही किया, जैसा वे चाहते थे। वे स्तंभित चित्रलिखी-सी खड़ी रहीं। नेत्रों से अश्रु-प्रवाह और प्रबल हो गया। श्रीकृष्ण ने बस इतना कहा – धैर्य रखो। ईश्वर द्वारा प्रदत्त कार्य को पूर्ण करके मैं शीघ्र ही लौट आऊंगा। ठगौरी सम्मोहन से ग्रस्त गोपियां खड़ी रहीं। श्यामसुन्दर ने उन्हें एक बार पुनः ठग लिया। सम्मोहन टूटे, इसके पूर्व ही श्रीकृष्ण रथ पर आरूढ़ हो गए। संकेत पाते ही अश्व हवा से बातें करने लगे। देखते ही देखते रथ आँखों से ओझल हो गया। दिखाई पड़ रही थी, तो मात्र उड़ती हुई धूल।

श्रीकृष्ण ने गोकुल से मुंह मोड़ लिया था। अब उनकी पीठ ही गोकुल की ओर थी। रथ आगे बढ़ रहा था, गोकुल पीछे छूटता गया। वृन्दावन, गोवर्धन, मधुवन तो उससे भी पीछे छूट गए थे। यशोदा मैया, नन्द बाबा, राधा, गोप-गोपी, गौ-बछड़े, कदंब के पेड़, नदी-नाले, पोखर-बावली – जहां के तहां रह गए। गोकुल में रहते हुए श्रीकृष्ण की आँखों में कभी आंसुओं ने स्थान नहीं बनाया था, लेकिन छोड़ते समय अनायास ही आंसू छलक आए। बलराम ने श्रीकृष्ण की आँखों में उतर आये समुद्र को लक्ष्य किया, प्रेमपूर्वक कंधे पर हाथ रखकर पूछ ही लिया –

“छोटे! तुम्हारी आँखों में आंसू? इन्हें संभालो कन्हैया। अगर ये भूमि पर गिर गए, तो प्रलय आ जायेगा।”

“क्या करूं दाऊ! कल से अपने हृदय पर नियंत्रण रखा था। कितना कठिन था मैया, बाबा और राधा से विलग होना, यह मैं ही जानता हूँ। सारा गोकुल मुझे निष्ठुर कह रहा था। कुछ समय के पश्चात्‌ मिथ्या-भाषण का आरोप भी मुझपर लगेगा। मार्ग रोककर लेटी गोपियों से मैंने शीघ्र लौट आने का वादा किया है। तुम भी जानते हो, मैं इसे पूरा नहीं कर पाऊंगा। मैं पुनः यमुना की थिरकती सर्वोदार शुभ्र-नील जल-लहरियों के दर्शन नहीं कर पाऊंगा। कदंब की डाली पर चढ़कर मुरली नहीं बजा पाऊंगा। जानते हो दाऊ, मैंने अपनी मुरली राधा को भेंट दे दी है। अब इस ब्रह्माण्ड की कोई मुरली मेरे अधरों का स्पर्श नहीं कर पायेगी। मुझमें विद्यमान मुरलीधर, श्यामसुन्दर, गोपनायक, कन्हैया, मोहन, गोविन्द, गोपाल, माधव …………सब गोकुल में छूट गए। एक युग का अन्त हो गया। लेकिन तुम ठीक कहते हो। स्वयं को संभालना तो होगा ही।”

श्रीकृष्ण ने पलकों की सीमा को तोड़कर कपोलों पर उतर आए अश्रुकणों को उत्तरीय से पोंछ दिया। प्रेम की शक्ति असीम होती है। यह भक्त का प्रेम ही होता है जिसमें बंधकर भगवान को बार-बार पृथ्वी पर आना पड़ता है – कभी बेर खाने के बहाने, तो कभी माखन खाने के बहाने।

 

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