“हां, मप्र में सत्ताधारी दल को ज्योतिरादित्य सिंधिया की युवा छवि से डर बना हुआ है”

विवेक कुमार पाठक

मध्यप्रदेश की चुनावी राजनीति में दोनों दलों के सामने अलग अलग चुनौतियां शतरंज की चालों की तरह मध्यप्रदेश की चुनावी राजनीति तेजी पकड़ रही है। भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज के बयानों व प्रचार अभियान अलग अलग बात करते नजर आते हैं।पार्टी के लिए चाहे न चाहे अब शिवराज सिंह चौहान ही चुनावी चेहरा है। चेहरा बदलने का वक्त कभी रहा था उनके पास लेकिन वो समय निकल चुका है। पार्टी हजार बार कहे कि मौजूदा चेहरा ही सबसे लोकप्रिय है मगर असल में भोपाल से दिल्ली तक अविश्वास के बादल छाए हुए हैं।

तमाम बड़े बड़े दावों की क्रॉस चेकिंग की जा रही है। मुख्यमंत्री का चुनावी अभियान एक तरफ चल रहा है तो नब्ज टटोलने मोदी के गुजरात से आईं माननीय भी मध्यप्रदेश का भ्रमण एवं विश्लेषण अपने स्तर पर कर रही हैं और अपनी मैनपॉवर से करा भी रही हैं।चौथी बार सत्ता के लिए सुनामी अभियान चलाने का संकल्प लेकर साम दाम दंड भेद के सारे अस्त्र शस्त्र अपनाने पर काम जारी है मगर डर है कि छिपता नहीं।”हां मप्र में सत्ताधारी दल को ज्योतिरादित्य सिंधिया की लोकप्रिय और युवा छवि से डर बना हुआ है”सिंधिया की छवि भंजन करने के तमाम प्रयास अब युद्ध स्तर से जारी हैं। गुणा भाग लगाकर राजनीति करने वाले मुखिया और उनके रणनीतिकार अपने उन नेताओं को आगे बढ़ा रहे हैं जो आगे बढ़ा दिए जाएं तो भिड़ जाएंगे।सुरक्षित राजनीति करने वालों के बस की ये बात नहीं है सो दिल्ली भोपाल से बुलाकर काम वीर रस को पूजने वालों को दिया गया है।ये ठीक वैसे ही बात है कि युद्ध के मैदान में सेनापति पीछे खड़ा रहे और अपने वीर रस के रसिक सैनिकों और आक्रमक अश्वसवारों को सामने खड़े सेनानायक पर टूट पड़ने बिगुल बजाकर आगे बढ़ा दे। सत्ता में ऐसा सुरक्षित खेल सालों से खेला जाता रहा हैबड़े बड़े योद्धाओं की जीतें इतिहास में बेनाम सिपाहियों ने अपने लहू से सींचकर हकीकत में बदलीं थीं।शताब्दियों पूर्व के ये परिदृश्य बदलने के बाबजूद ऐसा राजनैतिक चातुर्य मप्र में बखूबी देखने मिल रहा है।चार साल से जिन्हें राजनीति में किनारे कर दिया गया था अब वे ही वीर पार्टी के एग्रेसिव कैम्पेनर हैं।”सत्तारुढ़ और सत्ता सुरक्षित राजनीति करने वाले पीछे चल रहे हैं”जीते तो विजय का हार अपने गले में पहनेंगे। हारे तो हार का ठीकरा फोड़ने सिर चाहिए होते हैं। मध्यप्रदेश में चुनाव अभियान के प्रचार का जिम्मा जुझारु नेतृत्व को दिया जाना कुछ यही दिखाता है।
महारानी लक्ष्मीबाई का मेला 18 साल से ग्वालियर में आयोजित हो रहा है। मुखिया ने इससे पहले मेले का सार्वजनिक मंच से गुणगान और उससे सीख लेने पूरे मप्र का आहवान कब किया था। किया था तो कितने व्यापक प्रचार से किया था। तब नहीं किया तो अब किया है उसके क्या मायने समझे जाएं।सुनने में बुरा लगता है मगर महापुरुषों की महिमा को हथियार बनाकर चुनावी हार जीत के लिए भी इस्तेमाल करने में अब संकोच नहीं है। केन्द्र से लेकर राय के चुनावों में अब ऐसा खूब देखा जा रहा है।
खैर आएं फिर 2018 के मप्र चुनाव पर ही।
मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया निश्चित रुप से एक संभावनाशील मॉस लीडर हैं एवं अपने पिता माधवराव सिंधिया की तरह विकास की राजनीति कर रहे हैं। सिंधिया सुदर्शन चेहरे के धनी हैं और अब भाषणों से हजारों से लेकर लाख तक की भीड़ को लाजवाब करना सीख चुके हैं।
पब्लिक को आंदोलित करने की संवाद शैली का अब मंच से हथियार आए दिन चला रहे हैं।
इस उजले पक्ष के होने पर भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के मप्र की हर विधानसभा से लेकर जिला तहसील, और कस्बों तक टीम नही है जिसके लिए उनके विपक्षी और अपनी खुद की पार्टी में घेरा जाता है मगर तो भी सिंधिया पर तथ्य हैं एवं उन पर जिम्मेदारी से अपनी बात रखने का सलीका भी है।
सिंधिया ने अभी तक हमेशा चुनावी मोड वाली राजनीति और बयानबाजियों से परहेज किया है ये उनकी यूएसपी है और इस वजह से निरंतर बढ़ी स्वीकार्यता व लोकप्रियता की बदौलत ही वे मप्र कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के प्रमुख बनाए गए हैं।इस सबके बाबजूद ज्योतिरादित्य और उनके साथी दिग्गज कांग्रेसी ये तय मानकर चलें कि चुनावी हवाओं से हमेशा विपक्षी दल वोटों की बारिश नहीं करा सकते।
“ये चुनाव का कड़वा सत्य है”

सत्ता का रास्ता ईवीएम के वोट से तय होता है और दो राय नहीं कि कांग्रेस मप्र में अपनी टीम खड़ी नहीं कर पाई है। वही टीम जो आपका जनसर्मथन वोटों के रुप में दिखा सके

इस तरह मप्र में दोनों दल चिंताओं से मुक्त नहीं हैं। किसी के पास लोकप्रियता का चेहरा पुराना हो मगर चेहरे के अलावा बहुत कुछ जरुरी अभी तक नहीं है

2018 का चुनाव इन्हीं कमियों को पूरा करने वाले दल को सत्ता पर बिठाएगा। फिलहाल तो कांग्रेस अपनी धीमी चुनावी रफतार से परेशान है और साज और सामान से लैस भाजपा अपने लोकप्रिय चेहरे के पुराने पड़ने से परेशान हैं। अपने अपने रोग हैं। दवा भी अपनी अपनी ढूंढ़नी होगी।

1 COMMENT

  1. युवा लेखक कहते हैं, “अपने अपने रोग हैं। दवा भी अपनी अपनी ढूंढ़नी होगी।” परन्तु लेखक को स्वयं रोगी की सुध ही नहीं है! पिछले सत्तर वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे भयंकर रोग से रोगी भारत तिलमिला रहा है और लोग बाग़ क्रूर राजनैतिक दंगल में अपनी रोटी-रोज़ी ढूंढ़ने लगे हैं| कांग्रेस-मुक्त भारत ही उस पर लगे रोग की एक मात्र दवा है|

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