योगेश्वर कृष्ण का युद्ध भूमि में अर्जुन को दिया गया आत्मज्ञान

योगेश्वर कृष्ण का युद्ध भूमि में अर्जुन को दिया गया आत्मज्ञान

विषयक प्रेरणादायक व ज्ञानवर्धक वेदानुकूल उपदेश

मनमोहन कुमार आर्य

भारत के इतिहास में रामायण एवं महाभारत ग्रन्थों का विशेष महत्व है। यह दोनों सत्य  इतिहास के ग्रन्थ हैं। दुःख है कि हमारे स्वार्थ बुद्धि के कुछ पूर्वजों ने इनमें बड़ी मात्रा में प्रक्षेप किये हैं। आर्यसमाज शास्त्रों की उन्हीं बातों को स्वीकार करता है जो बुद्धिसंगत, व्यवहारिक, अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णनों से रहित, पूर्वापर प्रसंग के अनुरूप, सृष्टिक्रम और देश, काल के अनुरूप हों। इस दृष्टि से आर्यसमाज के विद्वानों ने इन ग्रन्थों के प्रक्षेप से रहित अनेक ग्रन्थों की रचना वा सम्पादन किया है। इस क्रम में कीर्तिशेष स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने रामायण एवं महाभारत के विशिष्ट संस्करण तैयार किये जो आज भी आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध प्रकाशक ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नई सड़क, दिल्ली-110006’ से उपलब्ध हैं। रामायण पर अनेक अन्य विद्वानों ने भी कार्य किया है। कुछ विद्वान हैं पं. आर्यमुनि जी और महात्मा प्रेमभिक्षु जी। इनके संस्करण भी आर्यसमाज के प्रकाशकों से उपलब्ध हैं। अन्य भी कुछ विद्वान हैं जिनके रामायण पर संस्करण उपलब्ध होते हैं। महाभारत पर पं. सन्तराम जी ने शुद्ध महाभारत नाम से एक ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन पहले दयानन्द संस्थान, दिल्ली से हुआ था व उसके बाद दो-तीन खण्डों में मथुरा से सत्य प्रकाशन द्वारा तपोभूमि मासिक पत्रिका के विशेषांक रूप में किया गया। हमें इनमें से अनेक ग्रन्थों को पढ़ने का सुअवसर मिला है। पाठक चाहें तो इनका लाभ उठा सकते हैं। हमारे पौराणिक प्रकाशकों के इन दोनों ग्रन्थों के संस्करण प्रक्षेपरहित न होने से उनकी महत्ता इसलिये कम है कि पाठकों को सत्य व असत्य दोनों प्रकार की घटनाओं को पढ़ना पड़ता है और वह अपने विवेक से सत्यासत्य का निर्णय नहीं कर पाते जिससे अन्धविश्वास व पाखण्ड फैलता है।

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ महाभारत का एक भाग है। इसके दूसरे अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण जी का वह उपदेश भी है जो उन्होंने अपने शिष्य व मित्र अर्जुन को महाभारत युद्ध की रणभूमि कुरुक्षेत्र में दिया था। आज हम उसी आत्मज्ञान विषयक श्रीकृष्ण जी के उपदेश का कुछ भाग भाषा में प्रस्तुत कर रहे हैं। गीता में कृष्ण जी द्वारा अर्जुन को दिया गया यह उपदेश संजय द्वारा धृतराष्ट्र के पूछने पर उन्हें सुनाया गया था। श्री कृष्ण जी ने अर्जुन का मोह व भ्रम दूर करने के लिए कहा कि हे अर्जुन! तुझको यह अनार्यों वाला व्यवहार जो स्वर्ग प्राप्ति में बाधक और अपयशकारक है, वह युद्ध के इस कठिन समय में कहां से आ गया? कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन ! निर्बलता को मत प्राप्त हो। तुझ में यह निर्बलता उचित प्रतीत नहीं होती। अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग दे। हे शूरवीर ! दुर्बलता त्यागकर खड़ा हो जा। अर्जुन ने कृष्ण जी को कहा कि हे शत्रुघातिन् मधुसूदन (श्रीकृष्ण) ! मैं पूजा के योग्य भीष्म पितामह और अपने गुरु द्रोणाचार्य के सामने खड़ा होकर युद्ध में बाणों से कैसे लडूगां। अर्जुन ने श्री कृष्ण जी को युद्ध न करने के अन्य अनेक कारण भी गिनाये। उनका समाधान करते हुए श्रीकृष्ण जी ने कहा कि तू अशोचनीयों का शोक करता है और ज्ञानियों की जैसी बातें करता है। बुद्धिमान् लोग मरों और जीवितों का शोक नहीं किया करते। यह नहीं है कि मैं और तू और ये राजा लोग कभी न थे, और न यह है कि हम सब इसके पश्चात् न होंगे। कृष्ण जी अर्जुन को समझा रहे हैं कि सबका जीवात्मा अजर व अमर होने से हर काल में विद्यमान रहता है।

कृष्ण जी ने अर्जुन को कहा कि जिस प्रकार प्राणी के इस देह में बालकपन, जवानी और बुढ़ापे की अवस्थायें होती हैं वैसे ही मृत्यु होने पर उसे दूसरे देह की प्राप्ति भी होती है। धीर पुरुष अपने देह के प्रति कभी मोह व भय नहीं करते। हे कुन्तीपुत्र भरतवंशी ! इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श आदि तो शीत्-उष्ण व सुख-दुःख देने वाले हैं और यह आनी-जानी वस्तु हैं अर्थात् अनित्य हैं। उनको तू सहन कर। हे पुरुषार्थियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! सुख दुःख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रियों के विषय सताते नहीं हैं, वही पुरुष अमर होने को समर्थ है। असत् का भाव, सत्ता व अस्तित्व नहीं होता और सत् वस्तुओं का अभाव नहीं होता। तत्वदर्शियों ने सत् और असत् दोनों को यथार्थ स्वरूप में देख व जान लिया है। कृष्ण जी कहते हैं कि जिस ईश्वर से सृष्टि का यह फैलाव हुआ है उसे तू अविनाशी जान। कृष्ण जी कहते हैं कि इस अविनाशी जीवात्मा का कोई विनाश नहीं कर सकता। नित्य, अविनाशी, शरीरधारी, अतीन्द्रिय जीवात्मा के यह देह वा शरीर अन्त वाले अर्थात् नश्वर हैं। इसलिये हे भरतवंशी तू युद्ध कर। हे अर्जुन ! जो मानव शरीर में विद्यमान जीवात्मा को मारने वाला समझता है और जो इस जीवात्मा को मारा गया समझता है, वे दोनों ठीक नहीं समझते। वह अज्ञानी हैं। क्योंकि न यह जीवात्मा किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा ही जाता है। यह जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है। यह होकर फिर न होगा, ऐसा नहीं है। यह जीवात्मा अजन्मा, नित्य, सनातन और प्राचीन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह मारा नहीं जाता अर्थात् इसका अस्तित्व बना रहता है।

श्री कृष्णजी ने अर्जुन को कहा कि पार्थ (अर्थात् पृथा के पुत्र) जो इस अजन्मा, अमर, अविनाशी जीव को नित्य जानता है, वह पुरुष क्योंकर किसको मरवाता और और किसको मारता है? किन्तु जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को उतार कर दूसरे नवीन वस्त्रों को ग्रहण कर लेता है, ऐसे ही देहधारी पुराने देहों को त्यागकर अन्य नये देहों को पा लेता है। जीवात्मा को शस्त्र काटते नहीं हैं, इसको अग्नि जला नहीं सकती। जल इसे गला नहीं सकते और वायु जीवात्मा को सुखाती नहीं है। यह आत्मा अच्छेद्य अर्थात् न कटने वाला, न जलने वाला, न गलने वाला और न सूखने वाला है। यह आत्मा सनातन अचल, स्थिर, सर्वत्र पहुंचने वाला और नित्य है। मनुष्य का जीवात्मा इन्द्रियों का विषय नहीं होने से अव्यक्त है। यह चित्त का विषय न होने से अचिन्त्य है, विकार को प्राप्त न होने से यह अविकारी कहा जाता है। आत्मा ऐसा है, इस आत्मा को इस प्रकार का जानकर अर्जुन तू शोक नहीं कर सकता। यदि तू इस जीवात्मा को नित्य-नित्य उत्पन्न होने वाला और नित्य-नित्य मरनेवाला भी समझता है, तो भी हे अर्जुन तू इसका शोक नहीं कर सकता। श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन ! उत्पन्न हुए मनुष्य की मृत्यु अवश्यम्भावी है, मरे हुए मनुष्य की जीवात्मा का जन्म भी अटल है। जिसको हटाया या बदला नहीं जा सकता, उसके विषय में तू शोक नहीं कर सकता। हे भरतवंशी ! सब जीव पहले अप्रकट थे, बीच में प्रकट हो गये हैं, अन्त में भी छिप जाने वाले ही हैं, इससे इनमें शोक क्या करना है? कृष्ण जी कहते हैं कोई इस जीव को देखकर आश्चर्य करता है, कोई इसका वर्णन इसे आश्चर्य मानकर करता है, कोई इसे सुनकर आश्चर्य करता है और कोई इसे सुनकर भी जानता नहीं है। हे भरतवंशी अर्जुन ! सब के देह में यह देहवाला आत्मा सदा अवध्य है। यह नहीं मारा जा सकता है। इसलिये अर्जुन तू सब प्राणियों के मरने पर शोक नहीं कर सकता।

कृष्ण जी अर्जुन को कहते हैं कि तुझे अपने धर्म का विचार करके भी डरना नहीं चाहिये क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध के अतिरिक्त क्षत्रिय का अन्य किसी प्रकार से कल्याण नहीं है। कृष्ण जी अर्जुन को यह भी समझाते हैं कि तू यह समझ कि तुझे अकस्मात् स्वर्ग का खुला हुआ द्वार मिल गया है। ऐसे युद्ध को तो सौभाग्यशाली क्षत्रिय पाते हैं। यदि तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा तो फिर अपने धर्म और यश को छोड़कर पाप को पायेगा। लोग तेरे अपयश की चर्चा सदा-सदा किया करेंगे। हे अर्जुन ! कीर्तिमान् की अपकीर्ति मौत से भी बढ़कर होती है। तेरे युद्ध न करने पर महारथी शूरवीर लोग तुझको डर कर युद्ध से हटा हुआ समझेंगे। जिनके सामने तू बहुत मान-सम्मान पाया हआ है, युद्ध न करने पर उन लोगों में तू हलकेपन को प्राप्त होगा। तेरे शत्रु तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत सी गालियां देंगे। भला इससे बढ़कर तेरे लिये क्या दुःख हो सकता है? यदि तू मारा गया तो स्वर्ग को पावेगा और जीतकर पृथिवी के सुखों को भोगेगा। इसलिये हे कुन्ती पुत्र ! तू निश्चय करके युद्ध के लिये खड़ा हो जा। सुख और दुःख को, लाभ और हानि को, जय और पराजय को एक सा समझकर युद्ध के लिए तत्पर हो जा, इसका दृण निश्चय कर ले। ऐसा करने से तुझे पाप नहीं लगेगा।

कृष्ण जी के उपदेश सुनकर अर्जुन का मोह व शंकायें दूर हो गई थी और वह युद्ध के लिए तैयार हो गया था। उसने युद्ध किया और पाण्डवों की विजय हुई। आज भी लोग कृष्ण जी, अर्जुन, भीम आदि की वीरता व युद्ध कौशल की प्रशंसा करते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। युधिष्ठिर का कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धर्म न छोड़ने से परिचित होकर उसकी प्रशंसा करते हैं। कृष्ण जी के व्यक्तित्व का विराट रूप भी महाभारत युद्ध सम्पन्न होने के कारण ही प्रकाश में आया और इसी कारण वह आज आर्य हिन्दू जाति के पूज्य व स्तुत्य हैं। सभी मनुष्यों के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब उन्हें निराशा व अवसाद से गुजरना पड़ता है। परिवारों में प्रिय जनों की मृत्यु पर भी मनुष्य दुःख व शोक में डूब जाते हैं। ऐसे समय में भी कृष्ण जी आत्मा बोध विषयक यह उपदेश व गीता का अध्ययन मनुष्यों का दुःख व शोक को दूर करता है। वह निराश व दुःखी व्यक्ति आत्मा की नश्वरता व शुभ कर्मों से मनुष्यों के देव कोटि में जन्म लेने की व्यवस्था को जानकर निर्भय होकर हर स्थिति का सामना करने में सक्षम होते हैं।

महर्षि दयानन्द ने श्री कृष्ण जी को ऋषि व योगियों के समान आप्त पुरुष की संज्ञा दी है। सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में वह श्री कृष्ण जी की प्रशंसा में उनके यथार्थ व्यक्तित्व का युक्तियुक्त मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं कि ‘देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिस में कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त, बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा। और इस भागवत वाले ने अनुचित मनमाने दोष (कृष्णजी पर) लगाये हैं। दूध, दही, मक्खन आदि की चोरी, कुब्जादासी से समागम, परस्त्रियों से रास-मण्डल व क्रीडा आदि मिथ्या दोष श्री कृष्ण जी में लगाये हैं। इस को पढ़-पढ़ा व सुन-सुना के अन्य मत वाले श्री कृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्रीकृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होती।’ इन पंक्तियों में ऋषि दयानन्द ने, जो महाभारत काल के बाद वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थों का प्रकाश करने वाले सबसे बड़े प्रमाणिक विद्वान, ऋषि व योगी हुए हैं, उन्होंने श्री कृष्ण जी को आप्त पुरुष एवं महात्मा शब्द से सम्मानित किया है। यही कृष्ण जी का सच्चा स्वरूप है। मूर्तिपूजा के एक अन्य प्रसंग में स्वामी दयानन्द जी ने द्वारिका के श्री कृष्ण मन्दिर को अंग्रेजों द्वारा तोप से तोड़ दिये जाने का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि 1857 के उस युद्ध में वहां बाघेर लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन कृष्ण जी की मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण जी जीवित होते तो अंग्रेजों के धुर्रे उड़ा देते और यह अंग्रेज (देश से) भागते फिरते। अतः मूर्तिपूजा और श्री कृष्ण जी के चरित्र को दूषित करने वाला भागवत पुराण त्याज्य हैं जिससे श्री कृष्ण जी का अपयश रूके और महाभारत में वर्णित उनकी सत्कीर्ति का प्रचार हो।

 

आगामी श्री कृष्ण जन्माष्टमी को ध्यान में रखकर हमने यह लेख लिखा है। इसी के साथ इसे समाप्त करते हैं। ओ३म् शम्।

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