योगेश्वर कृष्ण की ऐतिहासिकता

– हरिकृष्ण निगम

क्या गीता को हमारे देश में अधिकाधिक रूप से राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जा सकता है? हम गीता क्यों पढ़ें? क्या योगिराज श्री कृष्ण का हमारी संस्कृति में इतना महत्वपूर्ण स्थान है कि उनका आदर्श हम सब के लिए अनुकरणीय है? क्या वर्तमान समय में उनके जीवन की विद्वता, वीरता, कुटनीति, योगी सदृश उज्ज्वल, निर्मल एवं प्रेरणादायक पक्ष को उपेक्षित करना उचित होगा? क्या कृष्ण हमारे इतिहास के अभिन्न अंग हैं अथवा मात्र आस्था के प्रतीक या काल्पनिक और आलंकरिक चरित्र या किंवदन्ति के हिस्से रहे हैं?

इस तरह के संशय को बढ़ावा देना भी एक प्रकार का ऐतिहासिक युगपुरुष की अवमानना और अपने इतिहास को प्रदूषित करने की प्रवृत्ति कही जा सकती है। आज की नई खोजों व साक्ष्यों के परिपेक्ष्य में क्या यह माना जाए कि कुरुक्षेत्र का युद्ध 3067 ई. पू. में हुआ था जब कृष्ण की आयु 55 वर्ष थी? अथवा यह तिथि मात्र अनुमानित है, कालक्रमों के अनुकूल व तथ्यात्मक नहीं? क्या पांचवीं सदी ई. पू. के महान गणितज्ञ आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध की तिथि लगभग 3100 वर्ष ई. पू. की थी? डॉ. पी. वी. वर्तक ने ज्योतिष व खगोलशास्त्रीय अनुसंधान के आधार पर महाभारत युद्ध का प्रारंभ 16 अक्टूबर, 5561 ई. पू. में हुआ माना था। इस तरह के प्रश्नों के उत्तर आज निश्चित रूप से विज्ञान, खगोल शास्त्र की अनेक शाखाओं एवं नक्षत्रों की गति एवं स्थिति के वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा दिया जा रहा है। इस ऐतिहासिक और वैचारिक व्यापकता के आधार पर ही कुछ दिनों पहले कदाचित इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने गीता को एक राष्ट्रीय ग्रंथ की मान्यता देने की अनुशंसा की थी।

इसी तरह हाल में इंगलैंड में आणविक-औषधि के क्षेत्र में कार्यरत डॉक्टर मनीष पंडित ने अपने शोध के आधार पर कहा कि कृष्ण किसी दंतकथा के नायक नहीं थे, बल्कि उनका आस्तित्व अभिलेखित किया जा सकता है और इस विषय पर एक वृत्तचित्र भी बनाया है जिसका शीर्षक है ‘कृष्णः इतिहास अथवा मिथक’। पुरातात्विक, भाषायी और खगोलशास्त्रीय साक्ष्यों के आधार पर उन्होंने अपने निष्कर्षों को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा अन्य विद्वानों के अध्ययनों का भी सहारा लिया है जिनमें प्रो. सी. वी. वैद्य, प्रो. आप्टे और श्री कोटा वेंकटाचलन प्रमुख हैं। मजे की बात यह है कि ऐसे में शिलालेख भी मिले हैं जिनमें द्वापर के अंत, कलियुग के प्रारंभ, संधिकाल और तत्कालीन राजवेशों के कालक्रमों का भी उल्लेख हैं। इसमें चालुक्य सम्राट पुलकेशिन के एहोल स्थित मंदिर का शिलालेख, देवसेना का हिसे बोराला शिलालेख और यहाँ तक प्रसिद्ध ग्रीक राजदूत मेगास्थनीज का वह शिलालेख भी सम्मिलित है जिसमें कहा गया है कि कृष्ण एवं चंद्रगुप्त मौर्य के बीच 138 पीढ़ियां बीत चुकी थीं। इसी तरह ग्रीक यात्री प्लिनी के अनुसार बैकस और सिकंदर के बीच के अंतराल में 154 पीढ़ियाँ बीत चुकी थीं। यह बैकस वही बकासुर था जिसे भीमसेन ने मारा था और यह काल लगभग 6771 ई. पू. वर्ष का आता है। डॉ. वर्तक के अनुसार इस प्रकार महाभारत का समय 500 ई. पू. से 6000 ई. पू. तक का आता है। जहां तक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वैज्ञानिक रूप से तिथि निर्णय का प्रश्न है, प्रसिद्धविद्वान जी. एस. संपत आयंगर एवं जी. एस. शेषागिरि कृष्ण जन्म की तिथि 27 जुलाई, 3112 ई. पू. मानते हैं जिसकी विस्तृत गणना उनके शोध पन्नों में अंकित है।

डॉ. मनीष पंडित ने हाल के एक वक्तव्य में स्वयं 2004 एवं 2005 में डॉ. नरहरि आचार्य नामक मेम्फिस विश्वविद्यालय टेरेसी के भौतिकी के व्याख्याता की शोध पर हर्ष मिश्रित विस्मय प्रकट किया है। खगोल शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर उन्होंने महाभारत युद्ध की सही काल-गणना करने का दावा किया है। इस शोध को आगे बढ़ाते हुए स्वयं डॉ. पंडित ने अपने ‘प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर’ पर इसे सत्यापित किया। वे स्वयं कहते हैं कि उनके मन में आज जो कुछ भी प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा है व सरासर झूठ है। यह भी कहना कि प्राचीन भारत में लोग कालक्रमों के बारे में लापरवाह थे यह भी पूर्णरूप से असत्य है। साफ है कि मार्क्सवादी इतिहास लेखन तथ्यों पर नहीं, राजनीति के तहत निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर का कहना कि भारतीयों में इतिहास-बोध नहीं था, वे दंतकथाओं को ऐतिहासिक जामा पहनाने में सिद्ध हस्त थे, वह पूरा का पूरा कालखंड जिसे हिंदू युग कहा जाता है, महत्वहीन था। पूणे में जन्में डॉ. पंडित मानते हैं कि महाभारत का युद्ध 3067 ई. पू. में हुआ था और उनकी गणना के अनुसार कृष्ण का जन्म 3112 ई. पू. में हुआ था और कुरुक्षेत्र के उस युद्ध के समय वे 54-55 वर्ष के रहे होंगे। पंडित श्रीराम की ऐतिहासिक व त्रेतायुग के कालावधि पर भी विस्तृत शोध कर रहे हैं और उस पर भी एक वृत्त चित्र बना सकते हैं। वे मानते हैं कि स्वयं महाभारत के मूलपाठ में ग्रह-नक्षत्रों की गति व स्थिति के 140 संदर्भ में खरे उतरते हैं। यहां तक चाह व्यवस्था हो या सूर्य अथवा चंद्रग्रहण या पुच्छल तारे का उल्लेख अथवा उनकी गणना के घटनाक्रमों से जुड़ना हो, वह सब खरा उतरता है। इसलिए कृष्ण की ऐतिहासिकता पर संदेह करना अपने समग्र अतीत को ही नकारना होगा। इसीलिए परवर्ती लेखकों, कवियों एवं भक्तों की कृष्णलीला की अपेक्षा, महाभारत में वर्णित कृष्ण के निर्मल चरित्र को अधिकतर विद्वान ग्रहण करते हैं।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

3 COMMENTS

  1. चलो एक और व्यक्ति मिला जिसे मार्क्स वाद से चिढ है रोमिला थापर ने जिस परिप्रेक्ष्य में इतिहास बोध की बात कही थी उसका यहाँ उल्लेख सन्दर्भ हीन कहा जायेगा कृष्ण एतिहासिक पुरुष थे अथवा नहीं इससे क्या फर्क पड़ जायेगा यही न क़ि देखो हम कितने प्राचीन है हम तुम से पहले सभ्य हुए हम सब चीज में आगे थे अभी तो पिछड़े कौम के रूप में जाने जाते हो यह वही देश है न जहाँ यह उदघोषित हो रहा था क़ि जहाँ नारियों क़ि पूजा होती है वहां देवता बसते है आज वही इस देश में नारियों क़ि स्थिति क्या है यह बताने क़ी जरूरत नहीं है सर के ऊपर मैला ढोने वाले इसी तथाकथित ध्न्यभूमि भारतवर्ष में मिलते थे और आज भी कहीं कहीं है हे राष्ट्रवादियों पहले अपने राष्ट्र क़ी पहचान भी तो कर लो कृष्ण को कृष्ण ही रहने दो किसी संप्रदाय विशेष में मत बाँधो कृष्ण चैतन्य का दूसरा नाम है उन्हें काळखंड में कैसे बांध सकते हो वह तो कालातीत है इस देश में काळ को देखने क़ी विधा रैखिक नहीं है जैसा क़ि पाश्चात्य पध्वती
    में है वहा समय को अनंत नहीं समझा गया है इसीलिए वहा क्रम बद्ध तरीके से कहने क़ि परंपरा है जब क़ि हमारे यहाँ उस तरह क़ि बात नहीं है यहाँ समय चक्रीय है इसीलिए यहाँ इतिहास नहीं है पुराण है जिसका अर्थ ही यह होता है क़ि जो पुनः पुनः नवीन होता रहे इस परिप्रेक्ष्य में रोमिला जी क़ि प्रस्थापना सही है और हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी इतिहासकार कृष्ण का इस पृथ्वी पर किस काळ खंड में हुआ इसी पेंच बैठाने में लगे हुए है जैसा पाश्चात्य में होता है अब वैसा न करे तो हीनत्व क़ि भावना तो आयेगी गी न अब तुमसे कोई पूछे क़ि तुम्हारे राम कब पैदा हुए थे कृष्ण कब पैदा हुए थे बस गच्चा खा गए और लगे ढूढने क़ि कैसे तारतम्य बैठे जैसा पाश्चात्य में क्रोनोलोजिकल आर्डर में घटना का वर्णन होता है यहाँ पुराणों में वही व्यक्ति भिन्न भिन्न काळ खंड में पुनः अवतरित हो जाता है सत्ययुग में विश्वामित्र त्रेता में फिर आ जाते है क्या यह अवास्तविक नहीं लगता नहीं यह कहने का एक ढंग है इसे ही पुराण कथा कहना कहते है यह हमारी सामूहिक चेतना के स्तर पर सदैव नवीन होता रहता है इसे पश्चिमी इतिहास कथन क़ि विधा से समझना कठिन है कृष्ण पर आस्था या श्रद्धा रखने से क्या होगा अपने अन्दर और बहार उस कृष्ण चैतन्य को पहचानो वैसे अन्दर और बहार कहना भी व्यर्थ है ऐसा कोई विभाजन है ही नहीं जो अन्दर है वही बाहर भी है इसी लिए कृष्ण सर्वत्र है हमें उस कालातीत कृष्ण को ढूंढना है और वह कही नहीं अपने अन्दर ही और हम क्या ढूँढेगे वह ही हमें ढूंढ निकालेगा क्यों क़ि खोये तो हमी है न वह नहीं इसी लिए कृष्ण को एतिहासिक बनाने का प्रयत्न छोड़ दो वर्ना वह एक निर्जीव कथा नायक के रूप में इतिहास के पन्नो में एक कोने में पड़ा रह जायेगा .जय ओशो
    बिपिन कुमार सिन्हा

  2. बहुत सटीक आलेख .योगेश्वर श्रीकृष्ण की एतिहासिकता पर खोज परक .विमर्श के साथ साथ कर्मकांड और ज्ञानकाण्ड के तत्संबंधी उद्घोष के लिए भी विश्व को महाभारत एवं श्रीमद भागवत पुराण का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शोध करते रहना चाहिए .सत्य का अनुसन्धान मानव हित में होना चाहिए .

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