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तुम्हें देश का प्रणाम ‘टाटा’

-राकेश उपाध्‍याय

आफतों और विपदाओं में जो साथ न छोड़े वही सच्चा दोस्त है, यार है। उससे बड़ा हितचिंतक कोई और नहीं हो सकता। कार्पोरेट जगत में आज जहां केवल मुनाफा और मुनाफा ही सबसे बड़ा मंत्र बना हुआ है, कंपनियां अपने उपर मंडराते संकट को देखकर पहला काम यदि शुरू करती हैं तो वह होता है, छंटनी, वेतन कटौती आदि, आदि। यानी बाजार के उतार-चढ़ाव की मार अक्सर प्राइवेट कंपनियों में कार्मिकों को ही झेलनी पड़ती है। पिछले सालों जब मंदी का दौर था, दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनियों ने अपने हमसफर कार्मिकों को अलविदा कहने में एक मिनट की देरी भी न की।

लेकिन हिंदुस्तान में एक कंपनी ऐसी है जिसने संकटों में भी अपने कार्मिकों को अपने सीने से चिपकाकर रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। उस कंपनी का नाम है टाटा। विश्वास और भरोसे का पर्याय टाटा। मंदी के दौर के बावजूद 26 नवंबर, 2008 की आतंकी घटना के बाद अपने ताज होटल के कार्मिकों और उस भीषण आतंक की चपेट में आने वाले प्रत्येक घायल को राहत पहुंचाने के लिए टाटा उद्यम के शीर्षस्थ रतन टाटा ने जो किया है वह भारतीय औद्योगिक इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने योग्य है।

मुंबई पर हुए हमले का पहला साक्षी और भुग्तभोगी बना था पंच सितारा ताज होटल। इस होटल पर हमला कर आतंकियों ने एक बारगी समूचे हिंदुस्तान को हिलाकर रख दिया। समूचा विश्व इस घटना से स्तब्ध रह गया। 56 घंटे लगातार ताज होटल के भीतर आतंकवादियों और जांबाज कमांडो के बीच मुठभेड़ चलती रही। इस घटना में होटल के कार्मिक और वहां ठहरे हुए मेहमानों में बहुत से लोग मारे गए और घायल हुए।

इस हमले की चोट से ताज होटल को उबरने में महीनों लग गए। काफी समय तक इस होटल में मरम्मत चलती रही। जाहिर है, होटल के छोटे से बड़े अधिकांश कार्मिक घर बैठने को मजबूर थे। इस परिस्थिति में टाटा कंपनी ने अपने कार्मिकों के साथ व्यवहार का जो आदर्श प्रस्तुत किया उसने दुनिया के उद्यम जगत में कार्मिक और मालिक के रिश्ते को नई उंचाइयां दी हैं।

रतन टाटा के नेतृत्व में समूचे प्रबंधन ने सर्वप्रथम मारे गए लोगों और घायल कार्मिकों की पूरी चिंता करने का निश्चय किया। हालांकि मारे गए लोगों की असल क्षतिपूर्ति तो कभी नहीं हो पाती लेकिन दु:ख की घड़ी में टाटा ने मृतकों के परिजनों को न केवल सांत्वना के दो शब्द कहे वरन् सभी को सहज जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त मुआवजा भी दिया।

जब तक होटल की मरम्मत का काम चलता रहा तब तक सभी कार्मिकों को वेतन मनी आर्डर द्वारा उनके घर तक अथवा बैंक एकाउंट में सीधे पहुंचाया गया। और तो और, घटना वाले दिन आकस्मिक नियुक्ति के आधार पर भी जो काम पर थे, उन्हें भी घर बैठे पूरा वेतन दिया गया।

रेलवे स्टेशन पर जो यात्री मारे गए अथवा घायल हुए, टाटा ने उनकी भी मदद की। मानवता के आधार पर होटल और रेलवे स्टेशन के आस-पास पान की दुकान चलाने वाले, पाव-भाजी बेचने वाले घायलों की भी मदद की गई। टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में एक मनोचिकित्सा प्रकोष्ठ निर्मित किया गया जहां घटना से भयाक्रांत रोगियों की समुचित चिकित्सा की गई।

होटल के सभी कार्मिकों की देखभाल के लिए कार्मिक सहायता केंद्र स्थापित किए गए जहां भोजन, दवा, प्राथमिक चिकित्सा आदि की बेहतर सुविधाएं दी गईं। इतना ही नहीं, रतन टाटा इस आतंकी हमले से प्रभावित अपने प्रत्येक कार्मिक के घर तक गए। उन्होंने प्रभावित 80 परिवारों के घरों तक जाकर कुशलक्षेम पूछी। प्रत्येक परिवार की समुचित देखभाल के लिए टाटा के उच्चस्थ अधिकारियों को पालक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया। प्रत्येक पालक अधिकारी का यह दायित्व सुनिश्चित किया गया कि वह हर तकलीफ और समस्या के निवारण के लिए अभिभावक के रूप में पीड़ित परिवार की देखभाल करे।

हादसे के शुरूआती तीन दिनों में तो टाटा अपने कार्मिकों के अन्तिम संस्कार में अपनी पूरी टीम के साथ जुट गए थे। मारे गए प्रत्येक कार्मिक के अन्तिम संस्कार के समय अनेक स्थानों पर रतन टाटा या तो स्वयं उपस्थित रहे अथवा हर स्थान पर उन्होंने किसी न किसी वरिष्ठतम अधिकारी की उपस्थिति को सुनिश्चित किया।

घायलों के इलाज के लिए उन्होंने टाटा हास्पिटल में मुफ्त प्रबंध किया। इस अस्पताल में उन लोगों के भी मुफ्त इलाज हुए जिनका सीधे टाटा प्रतिष्ठान से कोई वास्ता न था। पुलिस वाले, पैदल यात्री, ठेलेवाले, पान-सब्जी बेचने वाले आदि कोई भी, जो इस हमले का शिकार हुआ, सभी को बिना किसी भेदभाव के टाटा ने राहत पहुंचाई। ऐसे सैंकड़ों परिवारों को लगातार छ: महीनों तक 10,000 रूपये की सहायता भी दी गई ताकि उनका जीवन पुन: पटरी पर लौट सके। ऐसी ही एक लड़की जिसे हमले में कई गोलियां लगी थीं और उसकी एक गोली निकालकर सरकारी अस्पताल ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी, उसे फिर से टाटा अस्पताल में भर्तीकर समुचित चिकित्सा दी गई। वह एक ठेले वाले की बेटी थी। उसकी जान बचाने पर लाखों खर्च हुए, सब कुछ टाटा ने ही वहन किया।

आतंक पीड़ितों को सहायता के लिए तो टाटा ने खुले हाथों से दौलत लुटाई। घटना से प्रभावित गैर टाटा कार्मिकों-व्यक्तियों को उनके रोजगार दुबारा समुचित ढंग से शुरू करने में मदद दी गयी। रिक्सा चालकों को रिक्सा, ठेला गाड़ी वालों को नवनिर्मित ठेले मुहैया कराए गए। टाटा प्रतिष्ठान से जुड़े मृत और घायल परिजनों को उनकी आवश्यकतानुसार देश में कहीं भी तत्काल आने जाने के लिए हवाई यात्रा के प्रबंध किए गए। प्रभावित परिवारों के परिजनों के लिए मुंबई में रहने का प्रबंध होटल प्रेसीडेंट में किया गया। मृत कार्मिकों के बच्चों की पढ़ाई बाधित न होने पाए उसके पुख्ता इंतजाम के लिए घटना के 20 दिन के भीतर टाटा ने एक नए ट्रस्ट की स्थापना कर दी। इसके द्वारा मृतक आश्रित युवक-युवतियों को भारत में अथवा विदेश में पढ़ने के लिए आवश्यक सभी प्रबंध सुनिश्चित किए गए। घटना में अनाथ हो गए ऐसे 46 बच्चों की संपूर्ण पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा भी लेने की घोषणा टाटा प्रतिष्ठान द्वारा की गई।

एक अनुमान के मुताबिक, अपने मारे गए प्रत्येक कार्मिक के परिवार को क्षतिपूर्ति व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए टाटा प्रतिष्ठान ने औसतन 35 से 85 लाख रूपये तक प्रति परिवार खर्च किए। इसके अतिरिक्त जो निर्णय रतन टाटा की ओर से मृत कार्मिकों के परिवार के हित में लिए गए, अपने कर्मचारियों के प्रति दरियादिली का इससे बेहतरीन उदाहरण शायद ही कहीं दुनिया में देखने और सुनने को मिले। रतन टाटा ने मारे गए प्रत्येक कार्मिक की अंतिम तनख्वाह उनके निकटतम आश्रित की अंतिम श्वास तक देना तय किया। मृत कार्मिक के बच्चों को बेहतर से बेहतर शिक्षा के लिए होने वाला पूरा खर्च स्वयं उठाने की घोषणा की। आजीवन पूरे परिवार के चिकित्सा व्यय वहन करने की घोषणा की और जिन भी मृत कार्मिकों के नाम पर किसी भी प्रकार का अग्रिम, ऋण अथवा देय शेष था उन सभी को भी खत्म करने की घोषणा टाटा द्वारा की गई।

निश्चित तौर पर आप उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर हैरान हो रहे होंगे कि कोई नियोक्ता किस हद तक जाकर अपने कार्मिकों और उनके आश्रितों की देखभाल कर सकता है। आखिर टाटा की ख्याति दुनिया तक यूं ही तो नहीं पहुंची है। एक दिन वह भी था जब टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा को एक विदेशी होटल में केवल इसलिए घुसने से रोक दिया गया कि वह भारतीय थे। उस होटल के मुख्यद्वार पर बोर्ड टंगा था- ‘भारतीय और कुत्तों का प्रवेश वर्जित।’ इस वर्जना ने जमशेदजी टाटा को भीतर तक झकझोर दिया।

उन्होंने तभी दुनिया को यह दिखाने का निश्चय कर लिया था कि वर्ल्ड क्लास कार्य संस्कृति और उसे कार्यरूप दे सकने वाले लोग हम इसी देश की माटी से साकार कर दिखाएंगे। उन्होंने जीवित रहते ही अपना सपना साकार कर दिखाया। मुंबई की सरजमीं पर सागर की लहरों के समान सदा मनमिजाज को खुशगवार कर देने वाली उनकी अनूठी कृति ताज होटल के रूप में दुनिया के सामने आयी। तकरीबन पिछले 100 साल से संसार को उस महान उद्यमी की गौरवगाथा सुनाने वाली यह तो मात्र एक कृति है। टाटा ने उद्यम के जिस क्षेत्र में कदम रखा, वह देखते ही देखते आसमां की बुलंदियों को छुने लगा।

उन्हीं के वारिस रतन टाटा ने पुरखों की उस विरासत को एक बार फिर गौरवान्वित किया है। मुंबई हमले के बाद जब अपने कार्मिकों के हितों के लिए उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक ली तब उन्हें समूची घोषणाओं के क्रियान्वयन के लिए बड़े ही संकोच के अंदाज में भारी-भरकम बजट दिखाया गया। अधिकारियों के माथे पर शिकन थी कि जो परिकल्पना टाटा ने की है, उसके क्रियान्वयन के लिए संभावित विशाल खर्च को क्या वह अपनी सहज स्वीकृति देंगे। अधिकारियों की इस परेशानी को रतन टाटा ने भांप लिया और उनके एक वाक्य में ही अधिकारियों की सारी चिंताएं दूर हो गईं कि क्या कार्मिकों के हितों को देखते हुए आप लोग इस बजट को पर्याप्त समझते हैं।