सामाजिक न्याय के लिए सक्रिय होती युवा पीढ़ी

– देश का युवा अब सामाजिक न्याय का हिस्सा बनना चाहता है। वह सक्रिय रूप से व्यवस्था में भाग लेना चाहता है, लेकिन कुछ नीतियां उसके रास्ते में रोड़ा बन रही हैं। जरूरत है कि उनकी राह सुगम की जाए और उन्हें सामाजिक न्याय और सक्रियता के जरिए उनके लक्ष्य तक पहुंचने में मदद की जाए।
अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार

सामाजिक न्याय की संकल्पना बहुत व्यापक शब्द है, जिसके अंतर्गत सामान्य हित के मानक से संबंधित बहुत कुछ आ जाता है, जो हितों की रक्षा से लेकर निर्धनता और निरक्षरता के उन्मूलन तक के पहलुओं को इंगित करता है। यह विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत का पालन करने और न्यायपालिका की स्वतंत्रता से भी संबंध रखता है। इसका संबंध उन सामाजिक कुरीतियों जैसे दरिद्रता, बीमारी, बेकारी और भुखमरी आदि के दूर करने से भी है, जिसकी तीसरी दुनिया के विकासशील देशों पर गहरी चोट पड़ी है। इसका संबंध उन निहित स्वार्थों को समाप्त करने से है, जो लोकहित को सिद्ध करने के मार्ग में और यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में हैं।
     इस नजरिए से दुनिया के पिछड़े और विकासशील देशों में सामाजिक न्याय का आदर्श राज्य के लिए यह आवश्यक बना देता है कि वह पिछड़े और समाज के कमजोर वर्गों की हालत सुधारने के लिए ईमानदारी से प्रयास करे। सामाजिक न्याय की अवधारणा का अभिप्राय यह है कि नागरिकों के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए और प्रत्येक व्यक्ति को विकास के पूर्ण अवसर सुलभ हों। सामाजिक न्याय की धारणा में यह भी निहित है कि व्यक्ति का किसी भी रूप में शोषण न हो और उसके व्यक्तित्व को एक पवित्र सामाजिक न्याय की सिद्धि के लिए माना जाए, मात्र साधन के लिए नहीं। सामाजिक न्याय की व्यवस्था में सुसंस्कृत जीवन के लिए आवश्यक परिस्थितियों का भाव निहित है।
     इस संदर्भ में समाज की राजनीतिक सत्ता से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यक्रमों द्वारा क्षमता युक्त समाज की स्थापना करे। सामाजिक न्याय की मांग है कि समाज के सुविधाहीन वर्गों को अपनी सामाजिक-आर्थिक असमर्थताओं पर काबू पाने और अपने जीवन स्तर में सुधार करने के योग्य बनाया जाए। समाज के गरीबी के स्तर से नीचे के सुविधा से वंचित वर्गों विशेष रूप से निर्धनों के बच्चों, महिलाओं और सशक्त व्यक्तियों की सहायता की जाए। इस प्रकार शोषण विहीन समाज की स्थापना करना जरूरी है। समाज के दुर्बल वर्गों को ऊंचा उठाए बिना, हरिजनों पर अत्याचार को रोके बिना, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों का विकास किए बिना सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं हो सकती।
     सामाजिक न्याय का अभिप्राय है कि किसी मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों के समुचित विकास के समान अवसर उपलब्ध हों, किसी भी व्यक्ति का किसी भी रूप में शोषण न हो, समाज के प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हों, आर्थिक सत्ता चंद हाथों में केंद्रित न हो, समाज का कमजोर वर्ग अपने को असहाय महसूस न करे। भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। दुनिया भर के युवाओं का पांचवां हिस्सा यहीं बसता है। 1 अरब 40 करोड़ की आबादी का आधा हिस्सा 30 साल के नीचे का है और एक चौथाई हिस्सा 16 साल से नीचे का है। भारत की युवा आबादी इसकी सबसे बेशकीमती संपत्ति है और सबसे बड़ी चुनौती भी है। यह भारत को एक अद्वितीय जनसांख्यिकीय लाभ प्रदान करती है। हालांकि पूंजीगत विकास में बिना उचित निवेश के यह मौका लुप्त हो जाएगा।
     आज की दुनिया पहले से कहीं ज्यादा गतिशील और अनिश्चित है। चूंकि भारत तेज, समान सामाजिक और तकनीकी बदलावों से गुजर रहा है, इसलिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसका विकास समावेशी हो और समाज के सभी वर्गों तक पहुंचता हो। भारत अपनी वास्तविक विकास क्षमता को महसूस करने में तब तक सक्षम नहीं हो पाएगा, जब तक यहां के युवा अपनी अर्थव्यवस्था में पर्याप्त रूप में और उत्पादक तरीके से भाग लेने में सक्षम नहीं होंगे। हाल ही में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने मिलकर भारत में 5,000 से अधिक युवाओं पर सर्वे किया। नतीजे बताते हैं कि युवा भारतीय महत्वाकांक्षी हैं और अपने करियर के फैसलों में अधिक स्वायत्तता दिखाते हैं। वे बदलती स्किल जरूरतों को समझते हैं और उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए उत्सुक हैं, अतिरिक्त प्रशिक्षण लेते हैं और स्किल डवलपमेंट प्रोग्राम में शामिल होते हैं।
     सर्वे में 34 फीसदी युवाओं ने बताया कि नौकरी की तलाश करते समय उनकी वैवाहिक स्थिति, लिंग, उम्र या पारिवारिक पृष्ठभूमि से संबंधित भेदभावपूर्ण व्यवहार और व्यक्तिगत पूर्वाग्रह एक प्रमुख बाधा है। चूंकि चौथी औद्योगिक क्रांति के साथ काम की प्रकृति में बदलाव हुआ, इसलिए मौजूदा लिंग आधारित पूर्वाग्रहों के बढ़ने की संभावना है, यदि उन्हें दूर करने के लिए समर्पित नीतियां और पहल लागू नहीं की जाती हैं। देश का युवा सामाजिक न्याय का हिस्सा बनना चाहता है। वह सक्रिय रूप से व्यवस्था में भाग लेना चाहता है, लेकिन कुछ नीतियां उसके रास्ते में रोड़ा बन रही हैं। जरूरत है कि उनकी राह सुगम की जाए और उन्हें सामाजिक न्याय और सक्रियता के जरिए उनके लक्ष्य तक पहुंचने में मदद की जाए।
     महात्मा गांधी और भीमराव अंबेडकर के विचारों में सामाजिक न्याय की मांग पर जोर दिया गया था। गांधी तो सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे। उनके संरक्षता सिद्धांत में समाज सुधार कार्यों में हमें सामाजिक न्याय के प्रति उनकी जागरुकता स्पष्ट परिलक्षित होती है। जवाहर लाल नेहरू का मानवतावाद सामाजिक न्याय के विचार से ओत-प्रोत था। उनका समाजवादी दर्शन सामाजिक-आर्थिक न्याय का ही प्रतिबिंब था। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि सामाजिक न्याय की प्रस्तावना के लिए आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण न हो और विकास कार्यों का लाभ समाज के सभी लोगों को मिले।
     भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के सिद्धांत बिखरे पड़े हैं। वहीं द्वितीय महायुद्ध के बाद विकासशील देशों में बढ़ती हुई आर्थिक विषमता की खाई में आर्थिक विकास बनाम सामाजिक न्याय के सवाल को और भी तेज कर दिया। असल में सामाजिक न्याय सुलभ करने के लिए यह आवश्यक है कि देश की सत्ता अपनी नीतियों से समता युक्त समाज की स्थापना का प्रयत्न करे। इस दिशा में हम सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे, तभी सार्थक परिणाम हासिल हो सकेंगे। अगर ऐसा नहीं किया गया तो सामाजिक न्याय को कभी भी हासिल नहीं किया जा सकेगा। यह देश हित में नहीं होगा।

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