ताँगे वाला 

प्रभुदयाल श्रीवास्तव 

     

                                                    मन बड़ा चंचल और चलायमान होता है इस पर‌ बड़े- बड़े देवता, ऋषि मुनि और‌ साधु संत तक‌ नियंत्रण नहीं कर सके तो इंसान बेचारा तो हाड़ मांस का पुतला ही है जो  किसी अज्ञात की डोरी से बंधा उसी के इशारे पर जिंदगी भर नाचता रहता है। फिर भी कभी- कभी ऐसी घटनायें हो जातीं हैं जो मन मस्तिष्क पर अमिट और गुदगुदाने वाली छाप छोड़ जातीं हैं। बात कोई पच्चीस  साल पहले की है। दिन के बारह बज चुके थे। मैं अपनी पत्नी सविता और बड़ी दीदी के साथ ताँगे में बैठा स्टेशन की ओर बढ़ा जा रहा था।  ताँगे का वह मरियल सा घोड़ा अपने मालिक की तरह सुस्त सा सड़क पर टक- टक-  टक- टक करता चला जा रहा था। मेरे मुहल्ले धरमपुरा से   दमोह शहर का रेलवे स्टेशन कोई तीन किलोमीटर के लगभग था। ताँगेवाला हमारे लिये अपरचित था। धरमपुरा में हमारा पुश्तैनी  घर है। शहर से जुड़ा हमारा यह गाँव अब शहर की गोद में समाकर उसका एक मोहल्ला बन गया है। पहले यह एक मालगुजार के अधीनस्थ चालीस -पचास गाँव की मालकियत का केन्द्र था। हमारा यह गाँवनुमा मोहल्ला राजसी मर्यादाओं और परिपाटियों में  बँधा  था। हिन्दू मुसलमान और सभी छोटी बड़ी जाति के लोग एक विशाल  परिवार की तरह रहते थे।कितने भी निम्न वर्ग  के लोग हों हम सबको सम्मान देते थे | बुजुर्गों को दद्दा, अम्मा, बऊ,  कक्का, काकी,चच्चा ,चाची और भैया इत्यादि कहकर ही सम्बोधित करते थे ।

                                               गाँव में जैसा कि प्रतिष्ठित घरों के लिये चलन होता था,नाई, धोबी, अहीर, कुम्हार, ढीमर ये सभी  नियमित कर्मचारियों जैसे होते थे। धोबी नियमित तौर पर  धोने के लिए कपड़े ले जाता था। सप्ताह में तीन दिन उसे आना ही था,कपड़े मिले तो ठीक नहीं मिले तो ठीक। नाई भी सप्ताह में एक बार अपनी पेटी लेकर आ जाता था। दाड़ी, कटिंग, मालिश, चंपी ,सबको उसका इंतजार रहता। हमारा खानदानी नाई जग्गू खबास पेटी लेकर आया नहीं कि हम सब बच्चे चिल्लाते खबास कक्का आ गये, खबास कक्का आ गये ओ -ओ……..। जिन बच्चों को कटिंग कराने में डर लगता वे भीतर कमरों मे जाकर दुबक  जाते, किंतु आखिर कब तक, घर के बुज़ुर्ग उन्हें पकड़ लाते और जग्गू कक्का  के हवाले कर देते। जग्गू बड़ी बेरहमी से अपने दोनों घुट्नों के बीच सिर दबाकर उनकी कटिंग कर देता।अगर घुटनों के बीच  सिर न दबाये तो कटिंग  करना संभव ही नहीं हो पाता  था  गोली बरौआ को जिन्हें हम गोली कक्का कहते थे कभी नहीं भूल सकते। अपने बरौआ कर्म के अतिरिक्त वे एक अनुभवी और कुशल वैद्य भी थे। हमारा बचपन उन्हीं के चूर्ण और भस्में खाकर स्वास्थ्य की पायदानें चढ़कर युवावस्था में प्रविष्ट हुआ।

                    हमारा   ताँगे वाला भी खानदानी  था, दौआ  ताँगेवाला। हमारे परिवार को कहीं जाना होता तो दौआ को सूचना मिलते ही वह तुरंत हाजिर हो जाता। कभी भी कहीं भी जाना होता वह इनकार नहीं करता था और भाड़ा ताँगे से उतरने के बाद जो भी दे दो सब कबूल कर लेता था। आठ आने दो तो ठीक एक रुपये दो तो ठीक, कहता ‘मेरे बच्चे सो आपके बच्चे आपको ही पालना है। ‘भला ऐसे में दौआ को मेहनताना कम मिले कैसे संभव था| डोल ग्यारस के दिन बनेटी खेलते [आग के पलीते] अखाड़े में हलकी पतली तलवारों के करतब दिखाते हमारे मित्रों की न्योछावर उतारते, अट्ठन्नियाँ चवन्नियाँ लुटाते लोग कितनी मस्ती में झूमते गाते चलते थे, आंखों के सामने चित्र सा खिंच जाता है। डोल ग्यारस का रथ पीछे -पीछे चलता,बाजे बजते और रथ में बिराजमान भगवान विष्णु चंदन तलैया तक ले जाये जाते |लक्ष्मीजी  सहित वे जल बिहार करते| बुर्जों से तलैया में कूदते, इत्तन- इत्तन पानी, घोर- घोर रानी का खेल खेलते, एक दूसरे पर पानी उछालने वाली, हमारी मित्र मंडली के लोग न मालूम अब कहाँ- कहाँ हैं। 

                                         उस दिन हमें बाहर जाना था। दौआ के यहाँ सूचित किया कि स्टेशन जाना है, साढ़े बारह की ट्रेन पकड़ना है, किंतु मालूम पड़ा कि दौआ बीमार है। मजबूरन हमें दूसरे मोहल्ले से ताँगा मंगाना पड़ा। ताबड़ तोड़ ताँगे में सामान रखा, पेटी बिस्तर नाश्ते की डलिया सहित , और उस मरियल से घोड़े वाले ताँगे में हम बैठ गये। सविता और दीदी पीछे की तरफ और मैं ताँगेवाले के पास आगे बैठ गया।

 ‘काकी सीताराम, चच्चा राम राम,

“भैया कहाँ चले? “

“बस सागर तक, थोड़ा फुआ के यहाँ तक शादी में जा रहे हैं। “बातों का आदान प्रदान करते हम अपने मोहल्ले की सरहद पार कर चुके थे। ताँगा धीरे -धीरे चल रहा था, शायद घोड़ा बीमार था और  ताँगे के अस्थि पँजर भी  ढीले थे।

                              हमें जल्दी थी। ट्रेन न छूट जाये इसलिये मैंने    ताँगेवाले से कहा “थोड़ा जल्दी चलो। “मेरी बात सुनकर ताँगेवाले ने चाबुक फटकारा और  ताँगा चर्र- चूं , चर्र- चूं की आवाज करता हुआ थोड़ा तेजी से आगे बढ़्ने लगा। अचानक ऐसे लगा जैसे भूचाल आ गया हो, ताँगा एक तरफ झुकता हुआ चरमराकर गिर पड़ा। उसका एक चका  टूट गया था  घोड़े को रोकते- रोकते ताँगेवाला ताँगे में लुढ़क गया। मैं  ताँगे के पटिये से लटक गया। सविता और दीदी सम्हलते- सम्हलते भी ताँगे से बाहर गिर पड़ीं । मैं क्रोध से पागल सा हो गया।नीचे उतरकर मैंनें खुद को सम्भाला ,फिर  दीदी को उठाया और  सविता को उठाया । दीदी के हाथ में खरोंचें और खून की लकीरें देखकर  तो मैं आपा खो बैठा। ताँगेवाले को ताँगे से बाहर खींचकर तीन- चार चाँटे मार दिये। वह चुपचाप अपराधी निगाहों से देखता हुआ पिटता रहा जैसे चका  उसी ने तोड़ा हो।

                                  “जब ताँगा सड़ियल है तो क्यों चलाते हो, नालायक कहीं के, थोड़ा भी तमीज नहीं है, सड़ा हुआ घोड़ा लिये हैं और चले  हैं ताँगा  चलाने” मेरा क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया था। टेंप्रेचर इतना बढ़ा की पारा थर्मामीटर फोड़्कर बाहर आ गया।

ताँगेवाला कोई साठ- पैंसठ साल का कमजोर सा आदमी था। मेरा हाथ फिर उठने को हुआ कि दीदी ने पकड़ लिया’ अरे यह क्या कर रहे हो चका  टूट गया तो वह बेचारा क्या करे’ वह जोर से चिल्लाईं।

                                      ट्रेन आने का समय हो चुका था। हमें वैसे भी बहुत देर हो चुकी थी |अब क्या करें समझ में नहीं आ रहा था |तभी पास से  एक रिक्शा निकला }ऊपरवाले की कृपा कि वह खाली था | रिक्शे को मैंने रोका ,जल्दी से उसमें सामान रखा और स्टेशन  पहुँच गये। गाड़ी आ चुकी थी। सामान प्लेट फार्म पर पहुँचाने के लिये मैंने एक कुली बुला लिया। टिकिट की खिड़की पर लम्बी लाइन लगी थी। पुरुषों की लाइन लम्बी हो तो नारियों की सहायता लेना ही बुद्धिमानी होती है,{उन दिनों महिलाओं की कतार टिकिट लेने के लिए अलग लगती थी } ऐसा सोचकर मैंने सविता से   कहा “तुम टिकिट ले लो मैं सामान गाड़ी में रखवाता हूँ|” मेरे कहने पर वह लाइन में लग गई। लाइन में चार- पाँच महिलायें ही थीं। मैंने दीदी को साथ लिया और सामान लेकर प्लेटफार्म पर आ गया। बहुत भीड़ थी। ट्रेन करीब आधा घंटे रुकती थी। अभी भी पन्द्रह मिनिट बाकी थे चलने में। एक डिब्बे में कुली की मदद से सामान रखवाया और सीट तलाशने लगा। कुछ परिचितों के मिल जाने से कोई परेशानी नहीं हुई। दीदी को सीट पर बिठाकर मैं लगभग दौड़ता सा बाहर आया। टिकिट विंडो की तरफ बढ़ा तो देखा कि सविता परेशान सी एक तरफ खड़ी है।

मैंने पूछा “टिकिट ले ली?”

“नहीं”

“क्यों क्या हुआ !”

“पर्स नहीं है”

मैं भौंचक्का रह गया “कहाँ गया तुम्हारे पास ही तो था ?”

“शायद ताँगे में रह गया, रिक्शे में सामान रखते समय भूल गये। “

मैं परेशान हो गया। पेंट में इतने पैसे तो थे कि टिकिट ले लें,पर अन्य कार्यों के लिये शादी वाले घर में किससे माँगेंगे। फिर पर्स में एक हज़ार रुपये के लगभग थे। मैं किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया। सविता को दो चांटे मारने की इच्छा हो आई। दीदी ट्रैन में बैठी थीं ,सामान ट्रैन में था और हम बाहर टिकिट घर के पास।  ताँगेवाले की निरीह आँखें मेरी आँखों में झूलने लगीं। शायद उसी की बददुआओं का असर हो। गाड़ी छूटने में पाँच सात मिनिट ही बचे होंगे। इतना समय भी नहीं था कि कहीं से पैसों की व्यवस्था की जा सके।

सविता पर क्रोध उतारने लगा “भगवान ने बुद्धि तो दी ही नहीं, पर्स हाथ में रखना चाहिये था, क्यों ताँगे में रखा, फिर सामान उठाते समय कैसे भूल गईं, होश ही नहीं रहता। वह चुपचाप मेरा भाषण सुन रही थी, पतिव्रता नारियों की तरह गुमसुम।

“चलो केंसिल करो, सामान उठा लाओ दीदी को बुला लेते हैं बाद में कभी  चलेंगे” वह बोली।

“क्या खाक..” मेरे मुँह से आगे के  शब्द निकलते इससे पहले ही मैंने देखा कि सामने से वह बूढ़ा ताँगेवाला पसीने से लथपथ हाँफता हुआ सायकिल से चला आ रहा है। पलक झपकते ही वह सायकिल से उतरकर सीढ़ियाँ चढ़कर मेरे पास आ गया “बाबूजी आपका पर्स ताँगे में छूट गया था” हाँफने के कारण वह मुँह से ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था। पर्स मेरे हाथ में देकर जैसे उसकी आत्मा को शांति मिल गयी हो।

मुझे ऐसा लगा जैसे वह मानवता की मंजिल की ओर बढ़कर कई    सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ गया हो।

सविता के चेहरे पर फिर से प्रसन्न्ता झलकने लगी, जैसे कोई अपराध करते करते बच गई हो।

उसने दस रुपये निकालकर ताँगेवाले को देना चाहे। “नहीं बेटा इसका मैं क्या करूँगा, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, तुम लोगों को स्टेशन नहीं पहुँचा सका। चका  कमजोर था, तंगी के कारण नहीं बनवा सका। आप लोगों को कहीं चोट तो नहीं आई” यह कहकर वह हमारी तरफ निरीह आँखों से देखने लगा।

“तुम्हारी अमानत तुम तक  पहुँचादी  मन को तसल्ली हो गई। मेरी गलती को माफ कर देना, मुझको भी अपना दौआ समझ लेना। “

शायद उसे पता था कि दौआ हमारा खानदानी ताँगे वाला था।

                                                        मेरा दिमाग झनझना गया। हम ट्रेन में बैठ चुके थे। ट्रेन चल चुकी थी “मुझे भी अपना दौआ समझ लेना” ताँगेवाले  के यह शब्द मेरे कलेजे को चीरकर बार- बार भीतर प्रवेश कर  रहे थे। मैं इतना निर्दयी कैसे हो गया। एक कमजोर निरीह आदमी पर कैसे में हाथ उठा सका। गाँवं में कक्का, काकी, दद्दा, चाचा, अम्माजी जैसे संबोधन देने वाला मेरा कंठ गालियाँ कैसे दे गया। डिब्बे के सब बूढ़े जैसे मुझे तिरस्कार की नजरों से देख रहे थे। पत्नी व्यंग्य से जैसे ताना मार रही थी कि मेरी बहादुरी के किस्से अपनी सहेलियों को अवश्य सुनायेगी। दीदी जैसे बचपने से निकलने की सीख दे रहीं थीं। मैं सोच रहा था कि यह वीर रस मेरे शरीर में कहाँ से प्रवाहित हो गया ।

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

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