पर
स्वेछा से करती है
अपना सर्वस्व न्यौछावर
एक अपार्टमेन्ट की बीसवीं मंजिल पर
है उनका एक छोटा सा आशियाना
घर को सुंदर रखने के लिए
रहती है वह
हर पल संघर्षरत
पुरुष मित्र के लिए
नदी
बन जाती है वह
और समेट लेती है अपने अंदर
उसके सारे दु:ख – दर्द
घर से बहुत दुर है वह
फिर भी
एकाकीपन से नहीं है खौफ़ज़दा
पुरुष मित्र, कम्प्यूटर और कैरियर में
तलाशती रहती है
अपने जीवन की खुशी
उसका मकसद है
अपने पसंदीदा
जीवन साथी की तलाश
ताकि दु:ख का साया
उसे छू तक न सके
घड़ी की सूई
फिसल रही है
आगे की ओर
हर दुल्हन में
देख रही है
वह अपनी छवि
पर अतृप्त कुंवारी कामना
हर बार रह जाती है अतृप्त
दिल में है हाहाकार
पर होठों पर है हंसी।
क्या खूब लिखा है आपने, कायल कर दिया आपने..
ओह्ह्ह रुला दिया आपने तो…..लेकिन थोड़ा समझाइये उस बच्ची को कि….सूरज के हमसफ़र जो बने हो तो सोच लो, इस रास्ते में रेत का दरिया भी आएगा…आज ही एक बहुत वरिष्ठ पत्रकार बता रहे थे कि अन्य देश और भारत में एक ही फर्क है कि भारत में “घर” भी होता है….किसी पुरुष से ज्यादा इस घर को बचाने की जिम्मेदारी ऐसे बालिकाओं की है…..वो अखते हैं ना कि सांप तो बस सांप है, काटे नहीं तो क्या करे…हम ना क्यू अपनी नज़र आस्तीनों पर रक्खे???
अकेली औरत का सच दिखाया है आपने । बधाई हो