हरिकृष्ण निगम
हाल के कुछ राज्यों की विधानसभा के चुनावों में एक नया, गंभीर और चिंता जनक संकेत केरल और असम में मुस्लिम दलों का धार्मिक आधार पर बढ़ता वर्चस्व कहा जा सकता है। केरल में मुस्लिम लीग और असम में बद्रुद्दीन अजमल के अखिल भारतीय यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ए आई यू डी एफ की सफलता ने देश की राजनीति में फिर से उभरती सांप्रदायिकता के नए रूप द्वारा लोगों के सशंकित कर दिया है। धर्म पर आधारित संकीर्ण राजनीतिक दलों को देश की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग कहना नादानी कहा जा सकता है। देश के संघीय ढांचे के लिए उसका सिर फिर से उदय नए खतरों की ओर इशारा करता है। उपर्युक्त सफलता के दो उदाहरणों द्वारा देश में विघटनकारी प्रवृतियां फिर से सिर उठा सकती है।
हमें यह विस्तृत नहीं करना चाहिए कि अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिक कुछ कारणों से ज्यादा खतरनाक सिध्द हुई है। भूतकाल में इसी प्रवृति के परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ था। भारत का मूल रूप से बंटवारा इसीलिए हुआ था क्योंकि मुस्लिम सर्वसाधारण में मुस्लिम लीग ने यह भय कूट-कूट कर भर दिया था कि इस देश में उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है और उनकी मूलपहचान भी पृथक है। मुस्लिम लीग को कांग्रेस की सारी कोशिशों के बाद भी उन क्षेत्रों में अपार सफलता मिली थी जहां मुस्लिम जनसंख्या केंद्रीभूत थी। आज का रूझान फिर उसी तरह का है क्योंकि ऐसे छोटे व अल्पज्ञात अल्पसंख्यक दल उन स्थानों पर सफलता पा रहे हैं जहां वे जनसांख्यिकी दबावों का धर्म के नाम पर खुलकर उपयोग कर सकें।
ए आई यू डी एफ जैसे दल जिसने पहली बार सन् 2006 में विधानसभा का चुनाव 10 सीटों के साथ जीता था इस बार अपनी सीटों के बढ़त 10 कर चुकी है तथा असम के दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। इसका मुख्य चुनावी एजेंडा संकीर्ण था – ‘मुसलमानों का आए हुए अप्रवासी के रूप में कल्याण एवं संरक्षण।’ इसी तरह केरल में मुस्लिम लीग अल्पसंख्यकों के बहुमत वाले 24 चुनावों क्षेत्रों में से 20 में विजयी हुए। मुस्लिम केवल मुस्लिम दलों को वोट दें – इस नारे के व्यापक नशे में असम और केरल का राजनीतिक वातावरण प्रदूषित कर दिया है। आज जब हमारा देश सर्वसमावेशवादी आर्थिक विकास की बहुजन हिताय की भावना से छोटी पहचानों के एहसास से परे आगे बढ़ रहा है। सांप्रदायिक दलों का संकीर्ण एजेंडा एक नया खतरा बन सकता हैं। यह एक क्रूर विडंबना है जहां एक ओर हम पंथनिरपेक्ष संविधान की हर मौके पर आदर्शवादी दुहाई देते हैं और मुस्लिम लीग जैसे दलों को धार्मिक पहचान और अलगाववाद की राजनीति खेलने के लिए खुला छोड़ देते हैं।
इस प्रकरण में बुध्दिजीवियों के अपने कुतर्क भी अनूठे है जिसे हमारे अंग्रेजी प्रेस का एक वर्ग बैसाखियां देने को तैयार है। उनके अनुसार यदि असम और केरल के उपर्युक्त दोनों दल अपने-अपने क्षेत्रों की विधानसभाओं में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं तो उससे चुनावी प्रक्रिया का एक स्वाभाविक और गत्यात्मक अंग मानना चाहिए। उनकी सलाह के अनुसार धर्म और राजनीति के बीच के संवेदनशील संबंध को हमें समझना होगा। अल्पसंख्यक जैसा भी सोचें उनका रूख औचित्यपूर्ण है पर यही यदि दूसरा कोई दोहराए तो वह ‘सांप्रदायिक’ कहलाकर कोसा जाएगा। आज के कुछ अंग्रजी समाचार-पत्रों की व्याख्या तो जितनी ही रोचक है, उतनी ही कुटिल मंतव्यों वाली है। उदाहरण के लिए ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने इस विषय पर टिप्पणी करते हुए इस मुस्लिम सांप्रदायिक के उभारत पर यूं लिखा – ‘चुनाव मूल रूप से मंडीतंत्र की व्यवस्था है। यहां की मांग और अपूर्ति का सिध्दांत लागू हो सकता है। अगर आप संभावित उपभोक्ता कम उसका मनचाहा उत्पाद मुहैया नही करा सकते या ऐसा उत्पाद देते हैं जो त्रुटीपूर्ण है तब वह कहीं और जाएगा। यदि जातीय समूहों को मेनस्ट्रीम राजनीतिक दलों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा तब वे उस दल को चाहे वे धार्मिक हो, पर यदि उनकी मांग पूरा करा देते हैं, तो वे उन्ही से जुड़ेंगे। बाद में ऐसे सांप्रदायिक घटक बड़े दलों से सुविधानुसार गठबंधन कर अपने हितों को बचाएंगे। अंग्रेजी पत्रों के कु तर्कों की बलिहारी है क्योंकि यह तर्क वे किसी दूसरी स्थिति में प्रयुक्त नहीं करते हैं और उन्हें तो मात्र यही दीखता है कि बहुसंख्यक समाज के औसत आदमी का हर आग्रह मुसलमानों के हित में नहीं है और उन्हें अपने धर्म के आधार पर संगठित होने का कोई अधिकार नहीं है। जो भी अल्पसंख्यकों की संकीर्ण मानसिकता को हवा देते हैं वे ही आज उत्तरपूर्व के कुछ राज्यों कश्मीर या केरल में जो कुछ हो रहा है उसके जिम्मेदार कहे जा सकते हैं।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई की जिद से परे सम्पूर्ण भारत वासियों और खास तौर से मेहनतकशों -मजदूरों -किसानो की आवाज बन चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ को हरवाने में मुस्लिम तत्वादियों ,ईसाई मिशनरीज का हाथ है ये तो आपने मान लिया है निगम साहब!अब ये भी मान लीजिये कि वामपंथ कि केरल में जो दो सीटें कम हुईं उसमें तो बहुसंख्यक हिन्दुओं का ही हाथ है न! बंगाल में कभी भाजपा और कभी कांग्रेस के कंधे पर चढ़कर सत्ता में पहुंची ममता दीदी ने तो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गोय्वाल्स को भी मात कर दिया अब पछताने से क्या फायदा..कहावत है कि चींटियाँ घर बनाती हैं और सांप रहने आ जाते हैं.
लेखक महोदय, मुस्लिम दलों पर तो आपने चिंता व्यक्त करदी, लेकिन धर्म निरपेक्षता को खंडित करने वाली भाजपा को भूल गए. जो इस देश में सिर्फ एक धर्म की बात करती है और जिसका सञ्चालन संघ करता है. जबकि सारे दलों का संचालन वे दल खुद करते हैं और बीजेपी का अध्यक्ष संघ नियुक्त करता है. क्या भारत में ऐसे दलों पर प्रतिबन्ध नहीं लगना चाहिए जो देश ने नफरत फैलाकर और दंगे कराकर राजनीती करते हैं.