विकास कुमार गुप्ता
सीमा पर तैनात सैनिकों के लिए घटिया खरीद पर उच्चतम न्यायालय ने तीखी प्रतिक्रिया करते हुए कहा कि ”हम परमाणु क्षमता रखते हैं। मंगल पर यान भेज रहे हैं, फिर जूते जैसी छोटी-छोटी चीजें विदेश से क्यो मंगा रहे हैं और वह भी खराब क्वालिटी के“। विदेशी सामग्रियों की बिक्री, आयात और उपभोग से न सिर्फ हमारे उद्योग चरमराते जा रहे हैं वरन् इससे बेरोजगारी में भी ईजाफा हो रहा है जोकि भारत के लिए एक विकराल समस्या बन चुका है।
2004 के विश्व विकास रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘भारतीय अर्थव्यवस्था असंतुलित अर्थव्यवस्था है।’ भारतीय अर्थव्यवस्था निर्धनता से ग्रस्त हैं। आज प्रतिव्यक्ति आय के मामलें में विश्व में हमारा स्थान 142वां है। द हेरिटेड फाउण्डेशन एण्ड वाल स्ट्रीट जर्नल के इंडेक्स ऑफ इकोनॉमिक फ्रीडम में हम 119वें स्थान पर है। यहां धनवानों और निर्धनों के बीच अन्तराल बढ़ता ही जा रहा है जोकि समता के सिद्धान्त को चिढ़ा रहा है। ऐसे विसंगतियों के बीच समाहित है भारतीय अर्थव्यवस्था में उच्च तकनीक आधारित औद्योगिकरण का अभाव। अभाव इसलिए है कि क्योंकि हमारे स्कूल और तथाकथित सिस्टम उस लायक शिक्षा देते ही नहीं जिससे पढ़कर हमारे होनहार उस काबिल हो पायें कि कुछ तकनीकि निर्माण कर पायें। आज भी हमारे स्कूलों में दशकों पुराने पाठ्यक्रमों को घसीटा जा रहा है। कागजों पर पर चल रहे स्कूलों के बीच अंग्रेजी से अन्य भारतीय भाषाओं के ट्रांसलेशन की विकट समस्या भी काफी हद तक इसके आड़े आ रही है। यह सर्वविदित हैं कि मातृभाषा में ही कोई खोज हो सकती हैं। जितने भी विश्वस्तर के सफल वैज्ञानिक हुये हैं उन सभी ने मातृभाषा में ही कार्य करके अपने आविष्कार किये। इसके इतर कोई भी भाषा, तकनीक यकायक विकसित नहीं हो जाती। यह निरन्तर निर्माण स्वरूप परिष्कृत होती है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। जब हमारी आवश्यकतायें विदेशी कंपनीयां सुलभ ही पूरा कर रही हैं तब विचारणीय है हमारा लोकल उद्योग अपनी तकनीकी और स्थिति कहां से परिष्कृत कर पायेगा। फिर भी कुछ उद्यमियों ने प्रयास किया ताकी वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला कर सके लेकिन वे अन्ततः विफल रहे। हमारे घरेलू उद्योग निर्माण क्षेत्र में जबतक निरन्तर नहीं जुट जाते तब तक वे बहुराष्ट्रीय कंपनीयों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हो पायेंगे। वैश्विकरण के बाद से हमने बहुराष्ट्रीय कंपनीयों को अपने बाजार पूर्व की अपेक्षा कई गुणा अधिक सौंप दिये जिससे ये बहुराष्ट्रीय कंपनीयां अपने पास उपलब्ध बजट, कर्मचारी और शोधपरक निर्माण के दम पर हमारे उद्योगों को निरन्तर नष्ट करती जा रही हैं। उदाहरण के तौर पर जूता उद्योग को ही लिया जाये तो जब हमारी कांग्रेसी सरकार जिसकी पार्टी के संविधान तक में लिखा है कि पार्टी कार्यकर्ता स्वदेशी का प्रयोग करें, जब विदेशी जूते मंगायेगी तो हमारा जूता उद्योग कहां तक टिकेगा स्वतः समझा जा सकता है। जूता उद्योग ही क्यों लगभग इसी प्रकार का स्थिति अन्यत्र भी व्याप्त है। हमारे यहां के अधिकतर बड़े उद्योग अंग्रेजों के समय ही लगाये गये थे चाहे वह हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्ल लिमिटेड, चीनी मिले अथवा रेल के कारखानें हों। आज विदेशी कंपनीयां तकनीक और निर्माण के बल पर हमारे यहां के लगभग डेढ़ अरब की जनसंख्या के लिए रोज की मूलभूत सामग्रीयां से लेकर इलिट क्लास तक के निर्माण कर बेच रही हैं। आज हम तकनीक में यूरोप से दशकों पीछे हैं। हमारा सरकारी तंत्र कहने को योजनायें चलाता है लेकिन ये योजनायें सरकारी तंत्र में घूस, अकर्तव्यपरायणता और टालमटोलता की बली चढ़ जाते हैं। सरकार द्वारा चालू योजनायें बस कागजों तक सिमट के रह गयी है। तकनीक, शिक्षा और सरकारी तंत्र के आगे हमारा उद्योग दम तोड़ रहा है। जिसका फायदा विदेशी कंपनीया उठा रही है। सरकार अगर ऐसे ही विदेशों से छोटी-छोटी वस्तुओं को आयात करती रही तो हमारे स्वदेशी लघु उद्योग निश्चय ही अपना अस्तित्व खो देंगे।
मूर्खो के देश मे धुरहतो का राज hai
फिर अरबों खरबों का घपला घोटाला कैसे होगा.
देसी सामानों की खरीद से लाखों में ही घोटाला हो सकता है ना……
फौजी जवान तो मरने के लिए ही फ़ौज में जाते हैं, मौज के लिए नहीं न ???
जय जवान जय किसान तो पचासों बरस पुरानी बात हो चुकी है..
ऐसी नेतागिरी से अपना पेट तो भर सकता है, स्विस बैंक खाते का पेट नहीं……..