भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और पाकिस्तान के जनरल नसीरखान जेंजुआ की बैंकाक में हुई मुलाकात का मैं हार्दिक स्वागत करता हूं।
जो काम अब डेढ़ साल बाद बैंकाक में हुआ है, वह पहले ही दिल्ली या इस्लामाबाद में भी हो सकता था लेकिन जिस आदमी में जरुरत से ज्यादा आत्म-विश्वास होता है, वह दूसरों के अनुभवों को फिजूल समझता है। वह खुद जब ठोकरें खाता है, तब ही उसे काम करने की अक्ल आती है। ‘सर्वज्ञ’ होने की यही फीस चुकानी पड़ती है लेकिन यहां संतोष का विषय है कि डेढ़ साल की इस देरी में दोनों देशों का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है।
बैंकाक में किस मुद्दे पर बात नहीं हुई? हर उस मुद्दे पर भी बात हुई, जिसके कारण बात टूटी थी। कश्मीर, आतंकवाद, सियाचिन, व्यापार, आवागमन आदि। बैंकाक में कौन-कौन लोग मिले? वे सब असली लोग मिले, जो विदेश नीति बनाते और चलाते हैं। दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकार, विदेश सचिव, संयुक्त सचिव, आतंकवाद के विशेष दूत आदि! इन लोगों की भेंट ने डेढ़ साल से बंद हुए दरवाजे खोल दिए। अब इनमें पहला प्रवेश किसका होगा? सुषमा स्वराज का होगा। वे 8-9 दिसंबर को आयोजित अफगान-सम्मेलन में भाग लेने इस्लामाबाद जा रही हैं। बैंकाक की वजह से ही उनकी यात्रा अधर में लटकी हुई थी। अब बैंकाक हुआ तो आगे के सिलसिले भी शुरु हो गए। पेरिस में जिस दिन मोदी-नवाज़ भेंट हुई थी, उसी दिन मैंने लिखा था कि सुषमा इस्लामाबाद क्यों न जाएं? अब वे अफगानिस्तान के बहाने भारत-पाक संबंधों के टूटे तारों को जोड़ सकती हैं।
मैं कई बार लिख चुका हूं कि हमें कश्मीर पर आगे होकर बात करनी चाहिए। मुशर्रफ के जमाने में अटलजी और डाॅ. मनमोहनसिंह कश्मीर के हल तक लगभग पहुंच गए थे लेकिन आंतरिक कारणों से वह सुनहरा मौका खोया गया। अब फिर मौका है। यदि वर्तमान भारत सरकार कुछ नरमी दिखाएगी और उस पर यदि विपक्ष यह आरोप लगाएगा कि यह देशद्रोही सरकार है तो उसमें कोई दम नहीं होगा। एक मजबूत राष्ट्रवादी सरकार ही बेहतर समझौता कर सकती है। बैंकाक की अद्भुत सफलता पर कांग्रेस का रवैया वही है, जो एक हताश-निराश विपक्षी दल का हो सकता है। यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाएं तो भारत के लिए पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और यूरोप के थल-मार्ग खुल जाएंगे। सारे दक्षिण एशिया की गरीबी दूर हो जाएगी।
दक्षिण एशिया के देशो में आपसी सद्भाव न पनपने पाए इसके लिए कुछ शक्ति राष्ट्र विशेष प्रबन्ध करते रहे है। भारतीय और पाकिस्तानी कूटनीति तन्त्र और मीडिया के अंदर भी उन शक्ति राष्ट्रों की गहरी पकड़ है। जब तक उन शक्ति राष्ट्रों के ग्रहण से नही बचेंगे तब तक शान्ति और सद्भाव कठिन है।