छिनाल के आगे की बहस

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-डा. सुभाष राय

उत्तर भारत के हिंदीभाषी ग्रामीण इलाकों का एक बहुप्रचलित शब्द है छिनाल। इस शब्द ने हाल ही में हिंदी जगत में बड़ा बवाल मचा दिया। इसका प्रयोग अमूमन उन महिलाओं के लिए किया जाता है, जो अपने पति के प्रति वफादार नहीं होती और उसकी जानकारी के बिना तमाम पुरुषों से देह संबंध रखती हैं। सच ये है कि वे उनके प्रति भी वफादार नहीं होती हैं, जिनसे संबंध रखती हैं। ऐसे संबंधों का उद्देश्य या तो दैहिक सुख की प्राप्ति भर होता है या फिर धन ऐंठना। देशज बोली में इन्हें छिनार कहा जाता है। गांवों में इसका प्रयोग धड़ल्ले से होता है। कुछ बड़े कहानीकारों ने, जिनकी कहानियों का परिवेश ग्राम्यांचल रहा है, इस शब्द का अपनी रचनाओं में भी इस्तेमाल किया है। प्रेमचंद की कहानियों में इसे ढूढना बहुत मुश्किल नहीं होगा। दरअसल गांव-गिरांव में इस तरह की कहानियां आम तौर से मिल जाती हैं, ऐसे पात्र भी मिल जाते हैं। जो छिनाल हो, उसे छिनाल कहने में कोई दिक्कत नहीं, कोई विवाद नहीं, कोई एतराज भी नहीं। साहित्य में भी ऐसे पात्रों के लिए अगर इस शब्द का उपयोग किया गया हो तो वह पात्र और परिवेश की अनुकूलता के कारण बेहतर अभिव्यक्ति के लिए प्रशंसित ही होगा। पर अगर किसी सभ्य महिला को छिनाल कह दिया जाय तो यह निश्चित रूप से उसका अपमान होगा, उसे गाली देने जैसा ही होगा।

ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के ताजा अंक में अपने एक साक्षात्कार के कारण वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति और साहित्यकार विभूति नारायण राय विवादों में घिर गये। उनके हवाले से इस पत्रिका में कहा गया था कि हिंदी लेखिकाओं में यह दिखाने की होड़ लगी है कि कौन सबसे बड़ी छिनाल है। यह अंक बेवफाई पर केंद्रित था और राय से हिंदी साहित्य में बेवफाई पर ही विस्तार से बात की गयी थी। महिला लेखिकाओं ने इस पर गंभीर आपत्ति की और राय को तुरंत कुलपति पद से हटाने की मांग की। इस कोरस में तमाम साहित्यकार और राजनेता भी शामिल हो गये। कुछ ही समय पहले ही राय पर दलित विरोधी और जातिवादी होने का आरोप लगाकर भी बवंडर खड़ा किया गया था, पर विरोधियों को कोई कामयाबी नहीं मिली थी, इसलिए वे लोग भी इस हल्ले में शामिल हो गये, जो राय को धर दबोचने के किसी मौके के इतजार में थे। इस बार तीर निशाने पर था क्योंकि कोई भी सभ्य, संवेदनशील और समझदार व्यक्ति लेखिकाओं के लिए छिनाल शब्द के प्रयोग का समर्थन नहीं कर सकता था। राय को भी बहुत जल्द इसकी गंभीरता का अहसास हो गया। इसलिए मामला और तूल पकड़ता, इसके पहले ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि इस शब्द का चुनाव साक्षात्कारकर्ता ने अपनी सुविधा से किया। मूल बातचीत में इसका प्रयोग नहीं किया गया था। उनका कहना है कि उन्होंने बेवफा शब्द का ही इस्तेमाल किया था। उन्होंने स्वयं इस गलती के लिए खेद भी जताया लेकिन फिर भी उन्हें ज्ञानपीठ की पुरस्कार चयन समिति से हटा दिया गया।

अभी भी आग ठंडी नहीं पड़ी है। इस प्रकरण के अनेक पहलुओं पर चिंतन-मनन चल रहा है। एक महत्वपूर्ण सवाल लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और लेखिका रूप रेखा वर्मा ने इंडियन एक्सप्रेस के जरिये उठाया है। उनका कहना है कि हालांकि छिनाल शब्द के प्रयोग से सहमति किसी भी सूरत में नहीं जतायी जा सकती है, क्योंकि यह गाली है। साहित्य की भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। इस पर हल्ला-हंगामा हो रहा है, ठीक है लेकिन किसी का ध्यान इस तथ्य पर क्यों नहीं जा रहा है कि जो इसके प्रकाशन के लिए लिए जिम्मेदार है, वह भी कम दोषी नहीं है। अगर राय को ज्ञानपीठ की समिति से इस गलती के लिए मुक्त किया जा सकता है तो नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया को क्यों नहीं संपादक पद से हट जाने के लिए कहा जाना चाहिए।

साहित्य और लेखन के कई और कोनों से इस तरह की आवाज उठ रही है। और अगर राय ने इस शब्द का प्रयोग अपनी बातचीत के दौरान नहीं किया, जैसा कि वे कह रहे हैं, तब तो मामला और भी गंभीर है, तब तो पूरी जिम्मेदारी रवींद्र कालिया और उनके सहकमिंयों की है। वे स्वयं भी एक जाने-माने साहित्यकार हैं। एक रचनाधर्मी की नैतिकता से उन्हें आखिर क्यों परहेज है? क्या उन्हें स्वयं ही अपना पद छोड़ कर हट नहीं जाना चाहिए?

यह हिंदी की दुर्दशा नहीं तो और क्या है। साहित्य में भी वे आम बुराइयां पहुंच गयी हैं, जिसके खिलाफ रचना और रचनाकार हमेशा से लड़ते आये हैं। साहित्य का यह हाल पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लोभ के कारण हुआ है, छद्म रचनाधर्मियों की अति सक्रियता के कारण हुआ है। हिंदी को इस बात का गर्व हो सकता है कि उसने तमाम बड़े ऊर्जासंपन्न रचनाकार दिये। निराला, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रेणु, दिनकर, अज्ञेय, मुक्तिबोध, दुष्यंत जैसे सैकड़ों नाम गिनाये जा सकते हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध किया, उसे नयी ऊंचाइयां दीं। पर आज हालात बिल्कुल अलग हैं। रचनाकार नेपथ्य में है, आलोचक और संपादक मुखर हैं। वे चाहें जिसे बड़ा कहानीकार, कवि, साहित्यकार बना दें। सबके अपने खेमे हैं, अपनी शिष्यमंडली है। हर गुरु का अपना अखाड़ा है, अपने पहलवान हैं और अपने दांव भी। हर खेमा अपने लोगों का चेहरा चमकाने में लगा हुआ है, चेले अपने गुरु के महिमागान में मस्त हैं। सभी एक दूसरे से डरे हुए भी हैं, इसीलिए मौका मिलने पर विरोधियों को ठिकाने लगाने में कोई चूकता नहीं।

साहित्य भी दलित और स्त्री विमर्श से चलकर अब देह-विमर्श तक आ गया है। स्थिति इतनी गंभीर है कि साहित्य के नाम पर प्रेम और बेवफाई के लिफाफे में शरीर की उत्तेजना ठीक उसी तरह बेचने की कोशिश की जा रही है, जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियां मूर्ख ग्राहकों को खूबसूरत लड़कियों के विज्ञापनों की आड़ में अपना सुपर माल बेच रही हैं। ज्ञान की प्रचंड पीठ से बाहर आ रहा हैं सुपर प्रेम का, सुपर बेवफाई का साहित्य। ढूँढ-ढूँढ कर ऐसी कविताएं, कहानियां, लेख छापे जा रहे हैं, जो सार्वजनिक स्थल पर भी बेडरूम की तरह गुदगुदी पैदा कर सकें। जाहिर है वे खूब बिकेंगे और जब वे बिकेंगे तो पाठकों के हृदय में इस नूतन ज्ञानोदय के लिए ऐसे माल के अन्वेषी संपादक को सब लोग महान समझेंगे। साहित्य के नाम पर शरीर-विमर्श के इसी महायज्ञ की चपेट में वी एन राय भी आ गये।

साहित्य में यह कोई नयी बात नहीं है और ऐसे मसलों पर स्वीकार और अस्वीकार की खेमेबाजी से ऊपर उठकर बहस होनी चाहिए। इसके पहले भी कई साहित्यिक पत्रिकाओं में खुलेपन के नाम पर विशुद्ध गालियां छप चुकीं हैं। शब्द नैतिक या अनैतिक कहां होते हैं, उनके प्रयोग के संदर्भ नैतिक या अनैतिक होते हैं। एक ही शब्द एक खास परिवेश में सहज अभिव्यक्ति के नाम पर अपने समूचे भदेसपन के साथ स्वस्थ मन से स्वीकार किया जाता है जबकि वही शब्द दूसरे संदर्भ में गाली लगने लगता है। यह तर्क साहित्य के नाम पर गालियां और नंगपन परोसने का आधार भी मुहैया कराता है। ऐसे में अगर छिनाल शब्द की प्रेत छाया वी एन राय पर पड़ रही है तो उसे छापने वाले उससे कैसे मुक्त हो सकते हैं।

साहित्य और साहित्यकार किसी सत्ता के अनुशासन से नहीं बंधते, न ही साहित्य के इलाके में छिड़ी बहस के निर्णय का अधिकार किसी हुकूमत को मिलना चाहिए। बोलने या लिखने के अपने सबसे ताकतवर विकल्प का प्रयोग न करके किसी तीसरे से दखल का आग्रह समझ में नहीं आता। आप लेखक हैं, अपना काम कीजिये, सरकार को अपना काम करने दीजिये। एक लेखक के नाते वी एन राय ने जो बातें कहीं हैं, उनका जवाब देने, उन पर एतराज करने या उन्हें खारिज करने से किसी को कोई कैसे रोक सकता है। पर अब राय के स्पष्टीकरण के बाद इससे भी आगे सोचने की जरूरत है। साहित्यकारों और लेखकों को अपनी जमात में निर्मित उन गढ़ों को ध्वस्त करना होगा, जहां कुछ महंत किस्म के लोग पत्थर की कलम लेकर बैठते हैं। यह लड़ाई किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के खिलाफ नहीं है, साहित्य में घुस आये उन सभी घुसपैठियों के खिलाफ है जो अच्छा लिखने की जगह लेखन और संपादन की राजनीति में संलग्न हैं।

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डॉ. सुभाष राय
जन्म जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश में स्थित मऊ नाथ भंजन जनपद के गांव बड़ागांव में। शिक्षा काशी, प्रयाग और आगरा में। आगरा विश्वविद्यालय के ख्यातिप्राप्त संस्थान के. एम. आई. से हिंदी साहित्य और भाषा में स्रातकोत्तर की उपाधि। उत्तर भारत के प्रख्यात संत कवि दादू दयाल की कविताओं के मर्म पर शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि। कविता, कहानी, व्यंग्य और आलोचना में निरंतर सक्रियता। देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं, वर्तमान साहित्य, अभिनव कदम,अभिनव प्रसंगवश, लोकगंगा, आजकल, मधुमती, समन्वय, वसुधा, शोध-दिशा में रचनाओं का प्रकाशन। ई-पत्रिका अनुभूति, रचनाकार, कृत्या और सृजनगाथा में कविताएं। अंजोरिया वेब पत्रिका पर भोजपुरी में रचनाएं। फिलहाल पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय।

9 COMMENTS

  1. अनिल सहगल जी हम विभूति जी के कथन के औचित्य, अनौचित्य पर न जायं क्योंकि उस पर बहुत बातें हो चुकी हैं तो मैं आप से कहना चाहूंगा, यह मैंने लिखा भी है कि कोई शब्द गाली नहीं होता, उसका सन्दर्भ उसका रूप बदल देता है. जैसे आप जब अपनी पत्नी के भाई का किसी से परिचय कराते हैं तो बड़ी गरिमा के साथ कहते हैं कि ये मेरे साले साहब हैं, उन्हें कतई बुरा नहीं लगता पर किसी दूसरे आदमी को आप साला कह देंगे तो क्या होगा, आप समझ सकते हैं. ऐसे तमाम उदाहरण हैं. शादी में हमारे घरों में गाली की एक रस्म है. महिलाएं उत्सवाकार होकर गाती हैं, सभी मुग्ध होते हैं, आनन्द लेते हैं पर क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि वही गालियां सार्वजनिक रूप से किसी को दे तो क्या होगा.
    विनयजी से मेरा निवेदन है कि वे नाराज न हों. क्योंकि ऐसी ही मनोदशा गलत शब्दों के प्रयोग को मज्बूर करती है. झापड़ लगा देना कहना बहुत आसान है पर किसी को लगाकर देखेंगे तो समझ में आयेगा. झापड़ क़िसी समस्या का निदान होता तो कुछ अराजक और अनियंत्रित मानसिकता के लोग देश की सारी समस्याओं का पलक झपकते हल कर देते. शब्द और अपशब्द के बीच फर्क करना इतना आसान नहीं है. आप जानते हैं कभी रोटी के लिये जूझने वालों को लोफर कहा गया पर आज लोफर के मायने क्या हैं. शब्द किस परिस्थिति में डाल दिया गया है, उसी से उसका अर्थ तय होता है. हरिजन शब्द के प्रति बदलती राय को देखिये. किसी को हरिजन कहने का साहस करना अब कितना कठिन होता जा रहा है. एक अच्छे भले शब्द की इस देश के नेताओं वे इतनी दुर्गति कर दी कि अब वह गाली जैसा लगने लगा है. लडाई की दिशा न मोडिये. इसमें हिन्दू मुसलमान की गन्ध कहां से आ रही है आप को.

    • सुभाष जी झापड़ से आशय था की उनको कोई भी ऐसा तरीका जिस से उनको सुधारा जा सके. चाहे वो कानून के अनुसार ही हो. लेकिन होना ऐसा चाहिए जिससे सुधार १०० प्रतिशत हो सके.

      बू आना स्वाभाविक है क्योंकि जो हथकंडे आजकल अपनाये जा रहे हैं. उनसे सिर्फ भोले भले लोगों को ही बेवक़ूफ़ बना सकते हैं (सरकारें और बिक़े हुए दबाव समूह ). समझदार लोंगो को डरा धमका कर चुप कर दिया जाता है. ब्लागेर्स को सोशल मीडिया एक्सपर्ट द्वारा गलत साबित कर दिया जाता है. अखबार मैं प्रकाशित होना असंभव है.

      सरकार भी जानती है की अब कोई पटेल, तिलक, गाँधी तो पैदा हो ही नहीं सकता. न ही वो होने देगी. जैसे कंस ने अपनी म्रत्यु के भय से आठ कन्याओं को मरवा दिया था वैसे ही आज भी हो रहा है. कई भ्रष्टाचार के विरोधी लोगों को और RTI एक्टिविस्ट को मार दिया गया है.

  2. आपका लेख सोचने पर विवश करता है. साहित्य मे इन दिनों अश्लीलता की बाढ़-सी आयी हुई है. अपने भीतर के नीच मनुष्य को बहार निकल कर लोग खुद को सत्यवादी साबित करना चाहते है. इक्का-दुक्क लेखिकाएँ अश्लील कहानियाँ लिख कर खुद को बोल्ड साबित करने की कोशिश मे है. लेकिन समूची महिला बिरादरी को छिनाल कहना ओछापन है. लेकिन दुःख की बात यही है की ओछे-लम्पट लोग अब बहुत मज़बूत है. देखिये, विभूतिनारायण राय अब तक पदासीन है, और ”नया ज्ञानोदय” जैसी पत्रिका की गरिमागिराने वाले संपादक कालिया भी सलामत है..? भारतीय ज्ञानपीठ जैसी सम्मानित संन्स्था की एक पत्रिका लोकप्रियता हासिल करने ने के लिए इतना नीचे गिर जायेगी, किसने सोचा था. बेशरमी के पर्याय बने ये लेखक द्वय साहित्य और समाज दोनों के लिए कलंक है, लेकिन ये हँस रहे है. इनके पक्ष में वे लोग खड़े हुए है. जो इनके अहसानों के तले दबे हुए है. ”बेवफाई” करे तो कैसे? हिंदी साहित्य को गर्त में ले जाने वाले ऐसे कुलपति…ऐसे संपादकों की नई नस्लों से बड़ा नुकसान हुआ है. इसकाविरोध ज़रूरी है. आपका लेख मेरी भवनों को स्वर देने काम कर रहा है. धन्यवाद…बधाई, इस साहसिक लेखन के लिए.

  3. इसके अलावा भी हमारे संस्कृतिक वातावरण को प्रदूषित करने, हमारी नयी पीड़ी के दिमाग मैं अपशब्दों की गहरी पैठ बनाने के लिए भी ये सब किया जा रहा है, ये सब बहुराष्ट्रीय कंपनियां और हिन्दू सभ्यता के विरोधी लोग कर रहे हैं.
    जब रियलिटी सीरियलों मैं गालियों का जितना इस्तेमाल हो रहा है उसने तो सभी सीमाँए पार कर ली हैं…यह सब ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे गाली बकना बहुत ही महान कार्य है, और जो भी जितना गाली बकेगा वो उतना ही मरदाना और उतना ही माचो (अंग्रेजी मैं ) होगा और लड़कियों का सबसे प्यारा होगा. रियलिटी शो मैं लड़कियों को भी गाली देते हुए दिखाया जा रहा है, इनको देख के हमारी लड़कियां भी वही सब करेंगी.

    हम सब इतने लचर है? की इन मुट्ठी भर निर्माताओं और साहित्यकारों को दो झापड़ लगा सकें…गाली बकना न ही आधुनिकता है न ही ये मानवाधिकार की श्रेणी मैं आता है? क्या हम छोटे समूह बनाकर इनका उग्र विरोध नहीं कर सकते? या आंख बंद कर लें और देखे इस सभयता को कराहते हुए? मरते हुए ?

  4. यह सब प्रायोजित है, कोंग्रेस कई बार प्रमुख मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए इस प्रकार के प्रचार करवाती है. ताकि कई मुद्दों जंहा उसकी सरकार की नाक कट रही है, वंहा इस प्रकार की फालतू बहस को तूल दिया जाये.

    इसमें समझने के और भी कई पहलु हैं, जैसे सिर्फ हिंदी लेखिकाओं को ही यह गाली क्यों दी? लेखिकाय और भी भाषाओँ जैसे उर्दू या अन्य मैं भी हैं…हिंदी लेखिकांये अधिकतर हिन्दू हैं और इस तरीके के मुद्दे हमारी महिलाओं (लेखिकाओं के अलावा ) के मन मैं हिन्दू पुरुषों की एक गलत तस्वीर का निर्माण करती है.

  5. जी राय साहब आप ने गजब की समीक्षा भी कर दिया है और एक बड़ी बहस भी छेड़ दिया है .विभूति नारायण राय के वक्तव्य के बाद सब कुछ साफ हो गया है लेकिन एक पुलिस का अधिकारी इमानदार हो और लेखक भी हो ,फिर तमाम तथाकथित साहित्य के माठाधीशो को छोड़ कर देश की महामहिम राष्ट्रपति जे ने उन्हें हिंदी विश्वविधालय का कुलपति भी बना दिया तों इन लोगो को पचे भी तों कैसे .इन लोगो को दो मौके मिल गए १ शिखंडी बन कर हमले करने का २ कम से कम से कम इसी बहाने दो चार अखबारों में छपने और टी वी पर चेहरा चमकाने का .दाव फेका है चल गया तों ठीक नहीं चला तों राय साहब की थोड़ी बदनामी का सुख तों मिल ही गया है .वैसे सरकार को M A से लेकर पी एच दी तक कुछ नए कोर्स शुरू करने चाहिए 1 चमचागिरि का २ चुगलखोरी का ३ दलाली प्रशिक्षण का और ४ सफलता के लिए छिनाली के सही स्थान पर सही उपयोग का .आज सभी छेत्रो में इन तत्वों का बोलबाला है ,सफलता के सारे सोपान उन्ही के कदम चूमते है तों वे थोडा और प्रशिक्षित हो जायेंगे और जिन लोगो को इन कारणों से पीछे रहना अच्छा नहीं लगता या जो इन कलाओ में पारंगत नहीं होने के कारण सभी छेत्रो में पीछे रह जाते है उनकी भी शिकायत दूर हो जाएगी की उन्हें मौका नहीं मिला .सरकार भी दवा कर सकेगी की वो तों सभी को आगे बढ़ते देखना चाहती है .कोई किसी प्रतिभा की कमी से पीछे नहीं रह जाये उसका इंतजाम सरकार ने कर दिया है .यदि ऐसा कोई संसथान बने तों इन विवादों के पीछे खड़े लोगो और अमर सिंह जैसे लोगो को कुलपति से लेकर प्रति कुलपति और डायरेक्टर बनने में विशेस अवसर दिया जाये .

  6. यह शब्द यदि गाली है तो हम इसका प्रयोग लिखने और पड़ने में क्यों बार-बार कर रहे हैं .

  7. छिनाल के आगे और पीछे -या इलाही ये माजरा क्या है डॉ साहब ?

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