मेट्रो पर भी ब्‍लूलाईन का रंग चढ़ रहा है

metrobluelineमेरे मित्र पवन चंदन ने आज सुबह वेलेंटाईन डे आने से पहले और रोज डे यानी गुलाब दिन जाने के बाद जो किस्‍सा सुनाया, उससे मेरे नथुने फड़कने लगे और तब मेरी समझ में समाया कि मेट्रो और ब्‍लूलाईन बसें भी हद दर्जे का दिमाग रखती हैं। वे शुरू हो गए। कहने लगे कि चार महीने पहले मेट्रो के दरवाजे ने सबसे पहले एक बंदी जोगिन्‍दर को धर दबोचा। वो बात दीगर है कि जिस रस्‍सी से दो बंदी बंधे हुए थे, वही पकड़ में आई और बाहर रह गये बंदी को मेट्रो ने खूब घसीटा जबकि तीन पुलिस वाले भी इन बंदियों के साथ मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे, वे अपनी स्‍वाभाविक आदत के अनुसार मौजूद रहते हुए भी कुछ नहीं कर पाए। और जब वेलेंटाईन की खुमारियों में डूबने के लिए एक सप्‍ताह ही बचा है कि इसने अपने ही एक कर्मचारी सतेन्‍द्र को मौका देख दबोच लिया। सावधान हो जाएं वे सब जिनके नाम के आगे इन्‍द्र जुड़ा है। पहले जोगेन्‍द्र, अब सतेन्‍द्र तो अगली बार जितेन्‍द्र, वीरेन्‍द्र, नरेन्‍द्र जैसे किसी पर भी कयामत आ सकती है। अब मेट्रो के अधिकारी मेट्रो की नालायकी को छिपाने पर तुले हुए हैं, अंतुले की तरह। कभी बयान देते हैं कि मेट्रो ने सिर्फ ऊंगली ही पकड़ी, कभी कहते हैं कि कलाई ही जकड़ी। इससे जाहिर है कि अपने आकाओं से इसकी पूरी मिलीभगत है, मेट्रो चालक से भी, वो कान आंख बंद करके मेट्रो दौड़ाता रहता है। वो तो शुक्र मनाओ कि चालक अपनी जान की सलामती के लिए अगले स्‍टेशन पर कूद कर नहीं भाग गया, ब्‍लू लाईन बस के सतर्क चालक की तरह। मेट्रो पर तो बसों का असर आ रहा है, पर न जाने क्‍यूं ड्राईवर बचा जा रहा है। जरूर कोई विवशता रही होगी, ऐसे ही कोई वफादार नहीं होता। वो अपने अगले नियत स्‍टेशन पर ही रूका। अपने काम में कोताही उसे पसंद नहीं है। मेट्रो लेट नहीं होनी चाहिए, नहीं तो बस और मेट्रो में क्‍या अंतर रह जाएगा। बाद में अधिकारिक बयान आ जाता है कि सेंसर खराब हो गया था। अब तकनीक के उपर तो किसी का बस नहीं है, वैसे तकनीक से उपर तो मेट्रो भी नहीं है। इसलिए सेंसर फेल हो सकता है। केवल विद्यार्थी ही सदा फेल थोड़ी होते रहेंगे। मेट्रो की इस मिलीभगत की तारीफ करनी होगी। पुलिस और अपराधियों की मिलीभगत के बाद इसी का रिकार्ड बन रहा है।

बाद में एक ब्‍लू लाईन बस से मेट्रो ट्रेन की बातचीत भी उन्‍होंने सुनाई, जिससे हमारी आंखें और कान-नाक फैल फूल कर होली से पहले ही गुब्‍बारा हो गए। मेट्रो का कहना था कि हम पहले अपने कर्मचारियों को ही दबोचेंगी जिससे कोई हमारे उपर भाई भतीजावाद का आरोप न लगा सके। कर्मचारी कम ही होते हैं, वैसे कम नहीं होते हैं, पब्लिक की तुलना में कम होते हैं इसलिए उन्‍हें पहले दबोचना जरूरी है। हम भी दिमाग रखती हैं इसलिए पहले एक मुजरिम पर झपट्टा मारा और दूसरी बार अपने ही कर्मचारी को। अब हम दबोचने में एक्‍स्‍पर्ट हो गई हैं और जनता जनार्दन को गाहे बगाहे नित्‍यप्रति दबोच लिया करेंगी। हमें पता है कि एकाध को दबोचने के बाद भी फिर हमें पटरियों से उतारना इतना आसान न होगा जिस तरह अभी ब्‍लू लाईन बसों को तुरंत बंद नहीं किया जा सका है। उसी प्रकार हमें बंद करने या हटाने के लिए खूब गहराई से विमर्श करना होगा और विमर्श ही होता रहेगा पर हमें बंद नहीं किया जा सकेगा। मेट्रो की इस सोच का मैं कायल हो गया, जरूर ब्‍लू लाईन बस भी हो गई होगी। मैं क्‍या पूरी पब्लिक ही कायल हो गई है, इसी वजह से वो पूरी तरह कायम है। पब्लिक कायल बहुत जल्‍दी हो जाती है जिस प्रकार डीटीसी की बसों से पीडि़त हुई तो रेडलाईन की कायल हो गई, रेडलाईन ने हर समय लाल रंग बिखेरना शुरू कर दिया फिर भी चलाया तो उन्‍हीं बसों को गया। सिर्फ उनको रेडलाईन की जगह ब्‍लूलाईन का तमगा दे दिया जिससे अब वे मग भर भर कर सड़कों पर पब्लिक का रेड खून बहा रही हैं और धड़ल्‍ले से बहा रही हैं। किसी दिन न बहा पायें तो अगले दिन और जोर शोर से सक्रिय हो जाती हैं और बकाया हिसाब भी निपटा कर भी दम नहीं लेती हैं क्‍योंकि और अधिक दम ले लिया तो फिर सारी पब्लिक ही बेदम हो जाएगी। सारी पब्लिक को बेदम थोड़े ही करना है।

अविनाश वाचस्‍पति
साहित्‍यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर, नई दिल्‍ली 110065 मोबाइल 09868166586 ईमेल avinashvachaspati@gmail.com

14 COMMENTS

  1. मेट्रो और मेट्रो कल्चर दो अलग बातें है। हम मेट्रो ले आए और उसका जाल बिछा करके दौड़ा दिया, लेकिन उन दिल्ली वासियों को मेट्रो पर कैसे सहूलियत होगी जो ब्लू लाइन और डीटीसी के बसों के दरवाजों पर लटक करके यात्रायें करते थे । अब मेट्रो के दरवाज़े पर जो लटकेगा वह तो काम से जायेगा और हम मूढ़ प्राणी दोष देने लगेंगे मेट्रो की । मैंने कई देशो की मेट्रो ट्रेन देखि है लेकिन उन सब देशो में मुझे ऐसी कोई घटना नही देखने सुनने को मिली की मेट्रो के दरवाज़े से कोई घसीटता हुआ घायल हो गया । मेरी समझ से लोगो को दुर्घटना से देर भली का भान नही है उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए ।

  2. मेट्रो पर भी ब्‍लूलाईन का रंग चढ़ रहा है……..ये हकीकत है! तों क्या समझे भाईओं??? मट्रो में जरा सम्हाल के चलो कही मट्रो भी किलर लाइन न बन जाये…….

  3. मुझे आधिकारिक तौर पर तो नहीं मालूम, लेकिन इधर-उधर से मैंने सुना है कि दिल्ली मैटो में कुछ पदों पर नियुक्त स्टाफ ठेकेदारी-प्रथा के अन्तर्गत कार्यरत है यानी कि वह स्टाफ मैट्रो का नहीं बल्कि मैट्रो द्वारा नियुक्त ठेकेदार का है। अगर वाकई ऐसा है तो किसी भी गलती के लिए मैट्रो नहीं, ठेकेदार के द्वारा नियुक्त कर्मचारी जिम्मेदार हैं। यह बिल्कुल वैसा ट्रीटमेंट है जै्से कि प्रत्याशी अगर जीत गया तो पार्टी-अध्यक्ष का कमाल है और अगर वह हार गया तो कमजोर था। बहरहाल, मेट्रो देश की शान है। देखो, अच्छा या बुरा पक्ष तो हर चीज का होता है; लेकिन मेट्रो में बुराइयाँ कम, अच्छाइयाँ अधिक हैं। भूखे से भूखा आदमी भी इसमें सफर कर सकता है क्योंकि ट्रेन में कुछ भी खाना या पीना अपराध है। बहरे से बहरा और नीरस से नीरस आदमी भी इसमें सफर कर सकता है क्योंकि ट्रेन में संगीत बजाना मना है। गरीब से गरीब आदमी भी कह सकता है कि भरपूर परेशानी के बावजूद मेट्रो में उसने खड़े रहकर इज्जत के साथ सफर किया क्योंकि उसके फर्श पर बैठना अपराध है। अगर वे अपने परिसर में सुलभ-इंटरनेशनल को प्रवेश की अनुमति न देते तो दबाव न झेल सकने वाले कितने स्त्री-पुरुषों को गीले कच्छे में घर पहुँचना पड़ता,इसका अन्दाजा है? और फिर, इस गुट्खा-प्रधान नगरी में अपनी काया को मेट्रो परिसर ने किस-किस जतन से उसके कुल्लों से बचाया हुआ है यह भी तो सोचो!

  4. avinash ji hamari sab ki vyatha aap ne prastut kar di . ye dilli hai yahan kuch bhi hota hai . kab kahan kaise kiska mood ban jaye aur hum na rahen . in khamiyon ko hum jaise logon k liye hi bnaya gya hai . kyon ki hindi blogger ki sankhya jo aadhik ho rahi hai . bahut accha likha aap ne.

  5. मेट्रो देश की शान है और शान हमेशा ही शान से आगे रहती है.. इतने बड़े संगठन में कुछ कमियां तो रह ही जाती हैं पर क्या हम भारतीय इस लायक हैं कि मेट्रो जैसे अत्याधुनिक साधन का उपयोग कर सकें ? क्षमा सहित यही कहना चाहता हूँ कि हम लोगों को कुछ तो सीखना होगा. कभी बंद होते दरवाजों में घुसने का प्रयास करने वालों को भी देखिये.. आखिर सभी तो नहीं फँस रहे हैं… जो व्यवस्था का सम्मान नहीं कर सकते वे कहीं न कहीं तो चोट खायेंगें ही.

  6. अब इसमें कौन सी बड़ी बात है?….बड़े बुज़ुर्ग पहले से ही तो कह गए हैँ कि “दुर्घटना से देर भली”
    अब ब्लू लाईन वालों ने इसका उल्टा याने के “देरी से दुर्घटना भली” समझ लिया तो इसमें उनका क्या कसूर है?..
    अब कईयों के लिए “आठ दूनी सोलह” होता है तो कुछ के लिए “सोलह दूनी आठ” भी तो होता ही है ना?
    रही बात मैट्रो की…तो थोड़ी-बहुत कमी-बेसी तो हर जगह चलती ही रहती है लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी उस्ताद जी कि मैट्रो से नुकसान के मुकाबले फायदे ज़्यादा हैँ।

  7. ब्‍लू लाइन जितनी दुर्घटना तो मेट्रो नहीं करती है। क्‍योकि मैने मुंबई में दिल्‍ली के ये समाचार नहीं पढे कि मेट्रो ज्‍यादा एक्‍सीडेंट करती है। मैं प्रयास की टिप्‍पणी से पूरी तरह सहमत हूं।

  8. मैट्रो रेल की ब्लू लाईन बस से तुलना करना सरासर गलत और बचकानी बात है.

    जरा मैट्रो की उपलब्धियों पर ध्यान दें:-

    1. मैट्रो ने अपने पहले चरण में 65 किमी. की पटरी बिछाने में आठ साल का समय लिया. लेकिन दूसरे चरण में 122 किमी की पटरी मैट्रो ने केवल साढे तीन साल में बनाई है.

    2. दिल्ली मैट्रो रेल परियोजना, पहली रेल परियोजना है जिसे युनाईटिड नेशन्स ने कार्बन क्रेडिट के लिये पंजिकृत (Registered) किया है. दिल्ली मैट्रो रेल ने करीब (2004 से 2007 के बीच) 90,000 टन कार्बन ऑक्साईड को वातावरण में घुलने से रोका है.

    3. क्या आपको पता है कि हर बार जब भी मैट्रो ट्रेन ब्रेक लगाती है तब ट्रेन में लगी तीन फ़ेज़ की मोटरें एक जनरेटर की तरह कार्य करती हैं और बिजली का उत्पादन करती हैं. और वह बिजली ऊपर लगी तारों के द्वारा अन्य ट्रेनों को पहुँचा दी जाती है.

    4. दिल्ली मैट्रो रेल को बेहतर पर्यावरण प्रबंधन के लिये ISO 14001 व OHSAS 18001 प्रमाणपत्र मिला है.

    और बहुत सारी उप्लब्धियाँ हैं दिल्ली मैट्रो रेल की लिखने बैठ गया तो सारा दिन निकल जायेगा. हाँ, इसमें संदेह नहीं है कि कुछ दुर्घटनाएं भी हुईं हैं लेकिन फिर भी भाई साहब कहाँ मैट्रो और कहाँ ब्लू लाईन बसें.

  9. मेट्रो में यह सुविधा एक ख़ास बात को ध्यान में रखते हुए दी गई है. असल में उसके दरवाजों पर एक सेंसर लगाया गया है. जैसे ही लोग उस पर अपना पैर रखते हैं, वह सूंघ लेता है कि कहीं यह ब्लू लाइन का भूतपूर्व यात्री तो नहीं है. अगर वह भूतपूर्व ब्लू लाइनर निकला तो वह उसके साथ वैसा ही बर्ताव करता है, जैसे कि ब्लू लाइन में होता है या होता रहा है. उन्हें पता है कि इन्हें दूसरा बर्ताव पसन्द नहीं आएगा. ख़ास तौर से कवियों और व्यंग्यकारों को. आखिर उन्हें रचनात्मक प्रेरणा कहाँ से मिलेगी और मेट्रो जैसी ज़िम्मेदार यातायात सेवा दिल्ली की रचनाधर्मिता मारने के लिए कभी भी ज़िम्मेदार नहीं होना चाहेगी.

  10. अजी जब आप जैसे लोग मेट्रो पर चढेंगे तो और क्या होगा? असल में मेट्रो में ख़ुफिया तौर पर एक सेंसर लगा है. जैसे आदमी दरवाजे के पास पहुंचता है, वह सूंघ लेता है कि यह पहले ब्लू लाइन में चलता रहा है या नहीं. फिर अगर वह ब्लू लाइन में चलने वाला हुआ तो उसे मेट्रो वैसे ही ले जाती है. क्योंकि उसे पता है कि ब्लू लाइन के यात्रियों को सोफिस्टिकेटेड तरीक़े से यात्रा करने में मज़ा नहीं आएगा. हमें तो इसके लिए मेट्रो का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने हमारे सफ़र का लुत्फ़ पहले की ही तरह बरक़रार रखा है. वरना हम लोग व्यंग्य कैसे लिखते!
    🙂

  11. वर्तमान यातायात व्‍यवस्‍था पर करारा व्‍यंग। सभी व्‍यवस्‍थाएं केवल उपभोक्‍ताओं से पैसे वसूलने में जुटे हैं, सुविधाएं उपलब्‍ध कराने और सावधानियां बरतने में वे कोताही बरत रहे हैं। इस लेख के लिए अविनाश वाचस्‍पति जी को बधाई।

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