देवी दुर्गा और देवी काली की आरति में ’’आगम निगम’’ बखानी तुम शिवपटरानी’’ ये पंक्तियॉ मुझे आन्दोलित करती रही और मेरे बालसुलभ मन में आज तक यह जिज्ञासा बनी रही कि ये आगम और निगम क्या है, कौन है ? मेरे मन में जागृत इस जिज्ञासा के प्रति नर्मदाक्षेत्र के मंदिरों के संतों-महन्तों सहित नर्मदातट पर प्रवास पर आने वाले अनेक विद्वानों से ’’आगम-निगम’’ को लेकर मेरी चर्चाये होती रही और प्रतिउत्तर में समाधान न होने पर ’’आगम-निगम ’ मेरे लिये शब्दमात्र बन कर रह गये। जैसे मैं अब तक ’’आगम-निगम’’ शब्द से अनभिज्ञ रहकर अंधकार में था, उसी प्रकार समाज की भी यही दशा रही है। छात्र जीवन में वर्ष 1980 से संतशिरोमणि रामजी बाबा समाधि सहित नगर के अन्य स्थलों पर प्रसिद्ध संत पूज्यपाद राजेश्वरानंद राजेश के अमृतमय प्रवचनों को मैं सतत सुनता रहा हॅू किन्तु ’’आगम-निगम’’ शब्द के गूढ़ रहस्य को जानने समझने हेतु पहली बार ब्रम्हलीन पूज्यपाद राजेष्वरानन्द सरस्वती राजेष जिज्ञासा होने पर पण्डित रामलाल शर्मा की स्मृति में होने वाले पॉच दिवसीय प्रवचनमाला में वर्ष 2018 में संत राजेश्वरानन्द जी राजेश के नर्मदातट पर उनके प्रवचन के पश्चात उत्पन्न अड़चनमयी परिस्थियों में किये गये मेरे विनम्र निवेदन कि ’’आगम-निगम’’ क्या है? प्रश्न करने पर उन्होंने डपट लगाते हुये आक्रोश व्यक्त कर अन्य भक्तों से चर्चा में लीन हो गये, परन्तु मैं बिना जबाव प्राप्त किये उनका पीछा छोड़ने वाला नहीं था तब उन्होंने मेरे कारूणिक निवेदन पर बताया कि ’’आगम-निगम’’ सनातन धर्म सहित भारतीय संस्कृति की कंुजी है तथा वेदों की समस्त विद्याओं का मूल इन्हें माना जाता है तथा पुराणों को आगम के ज्ञान बिना समझना असंभव है।
संत राजेश्वरानन्द जी राजेश ने प्रतिउत्तर में कहा कि आगम-निगम पर बहुत कुछ कहने को हेै, आगम शिवमुख की वाणी है और निगम पार्वती के मुख की वाणी है। भक्तों और श्रद्धालुओं की भीड़ में मुझे उनके मुख से आगम निगम की व्याख्या मिलने के पश्चात तत्समय उनसे और ज्यादा चर्चा नहीं हो सकी और वे अन्य महानुभावों की ओर मुखरित हुये तब मैं उनका उतना उत्तर गागर में सागर समझते हुये लौट आया तथा तभी से मेरा पूरा ध्यान इसे जानने समझने, पठन-पाठन करने के आरंभिक अध्ययन में लग गया तब वेद-पुराणों से पाया कि देैवी ज्ञान को ’’आगम’’ माना है जो गुरू शिष्य परम्परा से चला आ रहा है जिसमें काश्मीर शैव मत का आधार वसुगुप्त के शिवसूत्र में आगम दर्शन के मूल सिद्धान्त सन्निहित है जो परमतत्व के साक्षात्कार का मुख्य मार्ग भी है।
शिवसूत्र भगवान शिव के द्वारा भगवती पार्वती को कहे बतलाये है। मान्यता है कि आचार्य वसुगुप्त को ईसा की नवीं शती मंें शिव के अनुग्रह से स्वप्न में दिये गये आदेश से शिवसूत्र की प्राप्ति हुई,जिसमें मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है वे ही मलिनी विजयोत्तर तंत्र,स्वच्छन्द तंत्र, विज्ञान भैरव, मृगेन्द्र तंत्र, रूद्रयामल एवं शिवसूत्र के रूप में त्रिक दर्शन, परमाद्वेत, महाद्वेत तथा ईश्वराद्वयवाद नाम से विख्यात हुये। ’’आगम-निगम’’ के शास्त्रसम्मत आधारभूत मौलिक भाव को आप तक रखने हेतु मेरे लक्ष्य का श्रीगणेश पूज्यपाद राजेश्वरानन्द जी के श्रीचरणों से होने के पश्चात उनके देवलोकगमन के पश्चात मैं पूज्यपाद महामण्डलेश्वर माधवानन्द जी से भी अपनी जिज्ञासा व्यक्त कर आगम निगम के रहस्य को उदघाटित करने का निवेदन कर चुका था और वे मौन रहकर मुस्कुरा जाते और इस ज्ञान के लिये मुझे अपात्र बताकर अपनी चुप्पी बरकरार रखते तथा प्रकाशन हेतु कुछ भी व्यक्त करने से इंकार कर देते।
9 फरवरी 2021 को उन्होंने मेरी तीव्र जिज्ञासा को शांत करने के लिये अपने गुरू द्वारा प्रदान किये ज्ञान का कहकर आगम-निगम पर मुझे लिखने को कहा और बताया कि इस सृष्टि के मूल में भगवान शिव है और वे ही सृष्टि का सृजन करते है और यह सृष्टि का सृजन उनका आनन्द है। सृष्टि की रचना करके वे इससे अछूते है और सृष्टि प्रक्रिया में शिव की सक्रियता शिव की लीला कही गयी है जिसमें वे जीवों के प्रेमवश यह करते दिखते है, इसलिये शिवभक्त जगत को जगतरूप में नहीं बल्कि शिवरूप में देखते है। सृष्टि में अप्रतिम सौन्दर्यता है किन्तु पाप और दुख के रूप में कुरूपता भी है, जिसके लिये जीव स्वयं जिम्मेदार है, परमात्मा नहीं। सम्पूर्ण विश्व में परमशिव का सौदर्य अभिव्यक्त है। पूज्यपाद महामण्डलेश्वर माधवानन्द जी ने कुछ मौन साधा फिर मुझे कहने लगे कि परमशिव स्वयं प्रकाशरूप है और शिव में ही सारा जगत समाहित है तथा चित्त शक्ति, आनन्द शक्ति, इच्छा शक्ति , ज्ञान शक्ति एवं क्रिया शक्ति के प्राधान्य शिव है तथा इनसे अभिन्न जो वेदान्त आदि दर्शन है वह शिव ही है जो आगम, निगम और मंत्र व तंत्रों के अधिष्ठाता स्वामी है। आगम की प्रमाणिकता को सत्यापित करने के लिये शिवज्ञान प्राप्त करना प्रथम सौपान है, जो सामान्य आनुभविक ज्ञान व इन्द्रिय ज्ञान है वह अपूर्ण है।
ब्रम्हलीन पूज्यपाद महामण्डलेष्वर माधवानन्द जी
जिस दिन मैं पूज्यपाद राजेश्वरानन्द जी से आगम-निगम का रहस्योदघाटन करने हेतु उनके चरणों में नत था तब उन्होंने जबाव देने से पूर्व मुझसे कहा था कि इस गूढ प्रश्न का जबाव जागृत अवस्था में आये लोगों के लिये है तुम और यह समाज जागृत दिखते हुये भी सुश्रुप्त है। पूज्यपाद राजेश्वरानन्द जी के यह अमृतवचन मेरे हृदय में एक चिंगारी बनकर रह गये थे तभी से मैंने अपना लक्ष्य तय करके उसकी प्राप्ति में जुट गया तथा अनेक वर्षो के अध्ययन में मैंने पाया कि जहॉ आगम-दर्शन में अनेक विद्वानों के विचारों में भिन्नतायें है वहीं जैन एवं बौद्ध दर्शन के तत्वों का समावेश भी है तथा आगमशास्त्र का प्रचार केवल शैवों एवं शाक्यों में होने पर इसकी लोकप्रियता तत्समय चरम पर रही है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जो आगम तंत्र वैदिक साधना पद्धति से शुद्ध और साधक सिद्धि में फलदायी थे उनका आसुरी तंत्र में प्रचार प्रसार होने से अर्थ का अनर्थ होकर ये विद्या विस्मृत कर दी गयी। आगम ग्रन्थों में अनेक पारिभाषिक शब्दों ने पंचमकार तथा नर-नारी सम्बन्ध में शक्तिपूजन के प्रसंग में साधकों द्वारा अपने मनोरथ सिद्धि हेतु भ्रम पैदा कर शक्तिसाधना का उद्देश्य व्यभिचार उद्धृत करते हुये धर्म की घोरक्षति कारित की है।
तंत्रशास्त्र को दो वर्गो में विभक्त कर ’’आगम और निगम’’ कहा गया है जिसके ओर भी नाम मिलते है। तंत्रग्रंथ में डामर, यामल, उडडीस आदि नामों की श्रेणिया के अतिरिक्त उपतंत्रों का विपुल भण्डार है किन्तु अधिकांश ग्रंथ आजादी के पश्चात विलुप्त प्रायः है ओर जो आगम तंत्र उपलब्ध है वे पठन-पाठन की निरन्तरता से उपेक्षित है, परिणामस्वरूप ’आगम’ किसे कहते है, इससे आज के लोग अंजान है जबकि शैव सम्प्रदाय में आगन-निगम गागर में सागर की तरह गणितीय सूत्रों के समान अपना गौरव अक्षुण्य बनाये रखने के लिये पर्याप्त है।
आगम का अर्थ है-आगच्छति बुद्धिमारोहति यस्मादम्भुदयनिः श्रेयसोपायः स आगमः। जिसके द्वारा इहलौकिक और पारलौकिक कल्याणकारी उपायों का वास्तविर्क ज्ञान हो वह आगम शब्द से निरूपित होता है। वेदान्त का सिद्धान्त है कि-’’ जीव ही ब्रम्ह है,दूसरा नहीं।’ उसी प्रकार तंत्र आगमों का सिद्धान्त है-आनन्द ब्रम्हणों रूपम’’ आनन्द ही ब्रम्ह का रूप है।’’आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्भिसंविशन्ति, आनन्दं ब्रम्हेति व्यजानात’’ आदि श्रुतियॉ भी इसी आगम सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है। वेदान्त के समान ही तंत्र आगमों के भी दार्शनिक सिद्धान्त है। वेदों में परमेश्वर परब्रम्ह के रूप में है। वहॉ पूर्ण ब्रम्ह कहते है ’’एकोहं बहुस्याम्’-मैं अकेला हॅू बहुत हो जाऊॅ। तंत्र-आगम मे ंब्रम्ह को शिव नाम से जाना जाता है।
सनातन काल से भारत में श्री दस महाविद्या शक्तिपीठों में दशमहाशक्तियों, दस महाश्रीयों और नवग्रहों को स्थापना भी शिवलिंग को मध्य में स्थापित करके की गयी है और बताया है कि शिवत्व की रक्षा बिना महाविद्याओं जिसमें ज्ञान-विज्ञान, महाशक्तियॉ जिसमें बल-शौर्य, महाश्रीयों जिसमें धन-ऐश्वर्य और नवग्रहों के समन्वय के बिना ही मानी गयी है। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान भगवान परमशिव स्वयं संसाररूपी क्रीडा करने के लिये अपनी शक्ति को संकुचित करके मनुष्य शरीर का आश्रयण करते है-’’मनुष्यदेहमाश्रित्य छन्नास्ते परमेश्वराः’। तंत्र ग्रन्थ संवाद रूप में जिसमें वक्ता का स्थान स्वयं शिव ने और श्रोता का स्थान पार्वती ने ग्रहण किया है उन्हें आगम कहा जाता है और जिनमें वक्ता का स्थान पावती ने ओर श्रोता का स्थान शिव ने ग्रहण किया है उन्हें निगम कहा जाता है। तंत्र अनुयायी आगम निगम और डामर-यामल की श्रेणी वाले ग्रंथों को ’ईशवाक्य’ मानते है और वेदों के समान उन्हें पवित्र और पूज्य मानते है। तंत्र शास्त्रों की महत्ता का वर्णन करते हुये ’’महानिर्वाण तंत्र’’ घोषणा करता है कि- ’’कलिदोष के कारण द्विज’ लोग पवित्र-अवित्र का विचार नहीं करेंगें। अतएव वे ’वैदिक’कृत्यों द्वारा ’’मुक्तिलाभ’’ करने में समर्थ नहीं होगे।’’ ऐसी स्थिति में ’स्मृतियॉ’ और ’संहितायें’ मनुंष्य ज्ंााति को कल्याण की ओर नही ले जा सकेंगी।शिव ऐसी स्थिति में पार्वती को सम्बोधित कर कहते है कि हे प्रिये् मैं तुमसे सत्य कहता हॅू कि ’’कलिकाल’’ में ’’आगम-सम्मत’ धर्म को छोडकर दूसरा मार्ग नहीं है। वस्तुतः तंत्र शास्त्र सार्वजनिक और सार्वदेशिक शास्त्र है उसमें शेवों वैष्णवों शाक्यों आदि भिन्न भिन्न सम्प्रदायों की अलग-अलग उपासना विधियों का वर्ण है और यह ’अपौरूषेय’ शास्त्र सम्पूर्ण आस्तिक समाज पर आज भी अपना विशिष्ट प्रभाव रखता हैं।
मैंने एक लेख मे पढ़ा कि नेपाल दरवार लाइब्रेरी में प्राचीन गुप्तलिखि में लिखी आठवी शताब्दी की प्रचलित ग्रन्थ ’’निश्वासतंत्रसंहिता’’ में लौकिक धर्मसूत्र, मूलसूत्र, उत्तरसूत्र, नयसूत्र और गुहसूत्रका उल्लेख मिलता है जिसमें उत्तरसूत्र में अठारह प्राचीन शिवसूत्र है जो भिन्न-भिन्न आगमों के नाम कहे गये है जबकि 64 आगम तंत्रों का उल्लेख श्रीकण्डीसंहिता में अदैतभावप्रधान भैरवागम में उल्लेखित है। श्री शंकराचार्य की सौन्दर्यलहरी में भी इन 64 तंत्रों का उल्लेख है जिसके टीकाकार लक्ष्मीधर इन्हें अवैदिक बताते है, ं इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध लेखक भास्करराय इनके वैदिक होने पर बल देते है वहीं सर्वानन्द के सर्वोल्लास तंत्र में इन 64 तंत्रों की भिन्न भिन्न सूचियॉ दी गयी है। ’’आगम’’ शब्द के मूल में ’’परम्पराख्याति’’ की प्रधानता है और स्वच्छन्दोद्योत,पटल में परमेश्वर के रूप का पूर्णतया, अभेद रूप से विमर्शन करने वाली परशक्ति को आगम माना है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विवृतिविमर्शिनी के अध्याय 2,वि0 3,पृष्ठ 102 में ’’आगम’’ की व्याख्या कर उसके चार प्रकार कहे है जिनमें 1/आप्तोपदेशात्मक आगम, 2/अनिबद्धप्रसिद्धि रूप आगम, 3/निबद्धप्रसिद्धि रूप आगम एवं 4/प्रतिभात्मक आगम है।
आचार्य रामचन्द्र द्विवेदी ने काश्मीर की दर्शन परम्परा के मूल स्त्रोत को आगम माना है, उनके अनुसार आगम, तंत्र, संहिता आदि शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये जाते है तथा शैव पदार्थो का व्युत्पादक शास्त्र ’’तंत्र’’ है कि धारणार्थक’तंत्रि’ धातु से निष्पन्न है जिसे कामिकागम कहा गया है- तनोति विपुलान अर्थात तत्वमंन्त्रसमन्वितान। ज्ञान च कुरूते यस्मात तत तंन्त्रमधिभधीयते।। ’’तंत्र’’ ’तंत्रति’’ यः सः’’ विग्रह के अनुसार शासन, नियंत्रण, पालन-पोषण आदि अर्थो का उदभावन करता है । तंत्र का व्यवहार सभी क्षैत्रों में है जन्म से लेकर मृत्यु तक सहित बुने गये सभी ताना-बाना के अलावा वंश परम्परा, कर्मकाण्ड परम्परा, रूपरेखा संस्कार, मुख्य सिद्धान्त आदि भी इसके अर्थ है। आयुर्वेद शास्त्र में शल्य, शालाक्य, पाचन और उपचार के साथ तंत्र के प्रयोग का महत्व रहा है। शासन पद्धतियों में भी राजतंत्र, प्रजातंत्र, लोकतंत्र आदि इसके प्रशासनिक प्रयोग है जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं है। देश की रक्षा प्रणाली में सेनाओं के मध्य साजसज्जा, मंत्र की रचना के विभिन्न पक्ष और अर्थ सभी को आकर्षित करते है एवं विभिन्न वित्त सम्बन्धी कार्यप्रणाली को तंत्र कहा गया है। संगीत शास्त्र में तंत्री के तारों की रागिनियों के स्वर तंत्र की विविध रसधाराओं का आनन्द देते है, जो तंत्रशास्त्र का एक अंग है।
’’तंत्र’’ संस्कृत के दो शब्द ’तनोति’’ यानि विस्तार और ’’़त्रायति’’ यानि मुक्ति से बना है जिसमें साधक के त्राण हेतु ज्ञान का विस्तार आगम भी कहा गया है। तंत्र का सहज अर्थ तकनीक, प्रविधि, प्रणाली, प्रक्रिया अथवा विद्या होता है। तांत्रिक साधनाओं का मुख्य उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर सहस्त्रार में पहुॅचाना है इसलिये इन साधनाओं की सिद्धि से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अर्थात चारों पुरूषार्थो की प्राप्ति होती है जबकि अन्य तंत्रों से केवल धर्म, अर्थ और काम अर्थात तीन की प्राप्ति की जाती है।
कुण्डलिनी जागरण में ब्रम्हाण्ड के सभी रहस्यों का ज्ञान संभव है, इसलिये तंत्र की व्यापकता, विशिष्टता के कारण प्राचीन काल में शास्त्र और विज्ञान को गुरूकुलों के द्वारा जनव्यापी बनाया गया था। तंत्र शब्द में अनेक उपखण्डों के नाम है जिसमें शल्य तंत्र, शालक्य तंत्र, राजतंत्र, जनतंत्र आदि अनेक को गंभीरता से लिया गया है। तांत्रिक धर्म वास्तव में तंत्र आगमों का दार्शनिक सिद्धान्त है जहॉ ब्रम्ह का शिव नाम से व्यपदेश किया गया है। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान भगवान परमशिव स्वयं संसाररूपी क्रीडा करने के लिये सर्वज्ञता और सर्वकर्तृता-शक्ति को संकुचित करके मनुष्य देह का आश्रयण करते है -’’मनुष्यदेहमाश्रित्य छन्नास्ते परमेश्वराः।’ मनुष्य देह में प्रच्छन्न रूप में परेश्वर ही निवास करता है स्वयं श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात अर्जुन से कही है-’’अवजानन्ति मॉ-मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।अध्याय-9 श्लोक ग्यारह। यह चराचरात्मक समस्त विश्व उन शिव की क्रीडा है, यह केवल लीलामात्र है- क्रीडात्वेनाखिंल जगत’, लीलामात्रं तु केवलम।’’ अतः सिद्ध होता है कि परमशिव अपनी सर्वज्ञता एवं सर्वकृता शक्ति को संकुचित करके मनुष्यदेह में अल्पज्ञता और अल्पकर्तृता धारण करके क्रीडा कर रहे है। जब वह अपनी शक्ति को संकुचित करते है, तब सुख-दुख, राग-द्वेष आदि सांसारिक धर्मो से जीव अभिभूत होता है। इसी कारण जीव आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता, दरिद्रता, अहंता, ममता, संकल्प-विकल्प आदि आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक संतापों से संतप्त-दुखित हो भय-विहवल होकर मुक्ति चाहता है।
ऋग्वेद में ’’तारा विद्या’’ का उल्लेख मिलता है जो दश महाविद्याओं में द्वितीय और तंत्र की मुख्य शक्ति है इस कारण ’तंत्र’ को वेदात्मक भी कहा जा सकता हैं । तांत्रिक धर्म वास्तव में ’वैदिक कर्मकाण्ड’ का ही विकसित स्वरूप है। तंत्र तत्वों के द्वारा जो उपासना क्रम इसमें विहत माना गया है वह ’वैदिक कर्मकाण्ड’ के अनुकूल है, परन्तु वास्तविक पथ से विचलित हुये तांत्रिकों एवं तंत्र विरोधियों ने ’पंच-मकार’ को आगे करके लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न कर दिया है। यही कारण है कि लोग ’’तंत्र’ का नाम सुनते ही अर्नगल बातें करने लगते है। महाभारत युद्ध के बाद से बौद्ध धर्म के प्रारम्भ होने तक अर्थात करीब दो हजार वर्ष तक भारत में ’तंत्र-धर्म’ की प्रबलता रहीं है।’ रामायण और महाभारत में भी तांत्रिक उपासना का पूर्ण समर्थन किया गया है। जैनग्रन्थों में भी तंत्रशास्त्र की ’’रहस्य-पूजा’’ का उल्लेख आया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तंत्र शास्त्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है और अति प्राचीन भी। वास्तव में ’’तंत्र’ का महत्व उसकी ’’साधना’’ की विधि में हैै। वह ’’साधना’’ की विधि मात्र उपासना, पूजा, प्रार्थना, स्तवन या अपने इष्ट के समक्ष दुखना रोने या अपने कर्मो का पाश्चाताप से नहीं है बल्कि वह ’’साधना-पुरूष और प्रकृति को एक करने की क्रिया है।’’ यह देह के भीतर ’’पुरूष-तत्व’’ और ’’मातृ-तत्व’’ का संयोग करती है और सगुण को निर्गुण करती है। तांत्रिक साधना का उद्देश्य है-स्वराट को विराट में मिला देना जिसके लिये कुण्डलियों को जाग्रत करके षडचक्र भेदन किया जाता है। यही कारण है कि तंत्र गर्व के साथ उदघोषणा करता है कि -सदगुरू के निरीक्षण में अभ्यास करके देख लो,यदि शीघ्र ही कोई फल प्राप्त न हो तो छोड़ बैठना।
श्रीशिव निर्मित तंत्र-आगम-शास्त्रों में स्वात्मबोध एवं स्वरूप ज्ञान तथा सांसारिक संतापों की निवृत्ति के लिये मंत्र साधना को सर्वोत्तम स्थान मिला हुआ है ’’अ’ से लेकर ’क्ष’ तक अक्षरों को ’मातृका’ कहा गया है जिनसे समस्त मंत्रों का निर्माण हुआ है और समस्त मंत्र वर्णात्मक एवं शक्तिस्वरूप है। यही मातृका शक्ति अर्थ माता या जननी होने से वह शक्ति भी है, यह शक्ति शिव की है, जो समस्त मंत्रों में साक्षात शिवस्वरूप है जिसे शिव स्वयं पार्वती से कहते है- सर्वे वर्णात्मका मंत्रास्ते च शक्त्यात्मकाः प्रिये। शक्तिस्तु मातृका ज्ञेया सा च शेया शिवात्मिका।। परशुराम कल्पसूत्र में कहा गया है- मन्त्राणाम् चिन्त्यशक्तिता’’ ’’ अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रोैषधिप्रभावः, इन्हीं मंत्रात्मक वर्णो से समस्त विश्व का सृजन हुआ है- ’वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे’ इस प्रकार श्रुति वाक्य भी है। इन्हीं तत्वों से दृश्यमान समस्त चराचरात्मक विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि होती है।
चार युगों के आधार पर हमारे शास्त्रों को चार भागों में विभक्त किया गया है पहला-श्रुति, दूसरा स्मृति तीसरा-पुराण और चौथा-तंत्र। सतयुग में वेद, त्रेतायुग में स्मृति, द्वापर युग में पुराण तथा कलियुग में तंत्र शास्त्र प्रभावी है। श्रुति का स्थान अपोैरूषेय होने से सर्वोच्च है, क्योंकि इनका कोई रचयिता नहीं है। जबकि स्मृति,पुराण और तंत्र इन सबका आधार श्रुति है। विद्वानों के मत में तंत्र पंचम वेद है और श्रुति शब्द का व्यवहार तंत्र के अर्थ में होता है, कहीं कहीं तंत्र को निगम भी कहा गया है।
आज के समय में रामायण, गीता, महाभारत, वेद पुराण आदि ग्रंथों के पढ़न-पाठन करने वाले तथा इन सभी के कुशल विषयमर्मज्ञ टीका टिप्पणी व व्याख्यायें करते दिख जायेंगे परन्तु ’’तंत्र’’विषय को पढ़ने या उसके जानने वाले न के बराबर है। जो कुछ ’’तंत्र’’ के विषय में जानते समझते है वे खामोश बने रहकर अपनी पहचान गुप्त रखना चाहते है, यही कारण है कि समाज में ’तंत्र’ को लेकर एक भय व्याप्त है और धारणा है कि तंत्र जादू-टोने की विद्या है,पंचमकार की विद्या है जिसे गंदी विद्या भी माना गया है और समझा जाता है कि इसमें शवसाधना एवं श्मशान आदि कि क्रियाये संपादित की जाती है। यही कारण है कि साधारण लोगों की बात तो छोड़िये विद्वान और संस्कृत के उत्कृष्ट ज्ञानी भी तंत्रशास्त्रों का अध्ययन करना उचित नहीं मानते है जिससे यह विद्या विलुप्तप्राय होती जा रही है। तंत्र विद्या को अति गोपनीय मानने के कारण इस विद्या को गुरूमुखी के रूप में इसका प्रयोग होता रहा है जिसमें गुरू अपने शिष्य को यह तांत्रिक विद्या देते आये है इसलिये इसका प्रचार-प्रसार जनसामान्य में न रहकर इस विद्या से लाभान्वित होते आने वाले या गुरूओं से शिष्यों तक पाने वालों के अलावा यह दम तोड़ती गयी। ’’तं़त्र’’ शास्त्रों का अध्ययन एवं उक्त ज्ञान से ज्ञानीजन खुद को बचाये है, परिणामस्वरूप जो ’तंत्र’ में परिपक्य है उन ’’तांत्रिकों’’ के विषय में समाज उचित धारणा नहीं रखने से भी देश में ’तंत्र’’ विद्या अपना अस्तित्व तलाश रही है।
संदर्भ ग्रंथ ‘ (1) वेदान्त (2)’’महानिर्वाण तंत्र’’ (3) निश्वासतंत्रसंहिता(4) सौन्दर्यलहरी के टीकाकार लक्ष्मीधर (5) सर्वानन्द रचित सर्वोल्लास तंत्र (6) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विवृतिविमर्शिनी (6) कामिकागम (7) श्रीमद्भागवत गीता (8) ऋग्वेद (9) परशुराम कल्पसूत्र।
आत्माराम यादव पीव