कमलेश पांडेय
आखिर हिंदुओं की पार्टी ‘भाजपा’ गाजियाबाद में वैश्यों और ब्राह्मणों के ही इर्दगिर्द क्यों घूम रही है, गाजियाबाद विधानसभा उपचुनाव के बहाने एक बार फिर से पूछ रहे हैं लोग! कुछ यही सवाल लोकसभा चुनाव 2024 में भी उठ चुका था! क्योंकि महानगरीय जनपद में अपने हिन्दू जनाधार को ज्यादा से ज्यादा तवज्जो देने में भाजपा जातीय समीकरण को संतुष्ट करने में एक बार फिर मात खा चुकी है, इसके बावजूद कि यह पार्टी का अभेद्य किला है।
आखिर ऐसा क्यों? कहीं वैश्यों के ‘मनी पॉवर’ और ब्राह्मणों के ‘प्रशासनिक व संगठनात्मक कौशल’ के आगे अन्य जातियों के नेता फिसड्डी तो साबित नहीं हो रहे! या फिर कोई और बात है! वैसे तो क्षत्रिय समाज से आने वाले जनरल वी के सिंह ने गाजियाबाद में बीते 10 सालों में अच्छी पकड़ बना ली थी और अपनी जाति के पार्षदों को भी खूब प्रोमोट किया। लेकिन अचानक उन्हें सियासी हाशिये पर इसलिए धकेल दिया गया, क्योंकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पीएम नरेंद्र मोदी के बीच बेहतर समन्वय स्थापित नहीं कर पाए।
हाल ही में जिस तरह से उन्होंने अपना टिकट काटे जाने को लेकर पीएमओ से साजिश होने की बात कही है, उससे गाजियाबाद सदर उपचुनाव में उनकी रही सही संभावनाएं भी खत्म हो गईं! दरअसल, राजनीति में कहा जाता है कि बड़े नेता सिर्फ दो ही तरह के लोगों को पसंद करते हैं- या तो आप समर्पित और स्वामिभक्त कार्यकर्ता हैं, या फिर धन्नासेठ। क्योंकि पार्टी विस्तार से लेकर चुनावी जीत तक में इनकी ही प्रत्यक्ष व परोक्ष भूमिका रहती है।
इसके अलावा, पार्टी में ऊंचे पदों पर बहुधा होते रहने वाली पतंगबाजी में भी उपर्युक्त दोनों प्रकार के नेता ही भरोसे के काबिल निकलते हैं। क्योंकि पार्षद क्षेत्र, विधानसभा क्षेत्र या संसदीय क्षेत्र में थोड़ा भी जनाधार रखने वाले नेता स्वभाव वश ही सही पर बड़े नेताओं को गाहे-बगाहे आंख दिखा ही देते हैं, जिससे उन्हें आगे-पीछे करते रहने वाला नेता ही बड़ा बना रहता है।
भाजपा की सियासत में चाहे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह हों या फिर केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, इसके अपवाद नहीं हैं। इसलिए गाजियाबाद भाजपा के शह-मात के खेल को समझते रहिए, जिसका असली एम्पायर आरएसएस से जुड़ा कोई छुपा रूस्तम होता है। कहने को यूपी की राजधानी भले ही लखनऊ हो, लेकिन ‘सियासी कार्यकर्ताओं की राजधानी तो गाजियाबाद-गौतमबुद्धनगर को ही समझा जाता है, जहां से अंदरखाने में खूब चंदा मिलता है और प्रशासनिक एप्रोच भी, जो राजनीति के लिए खाद पानी समझा जाता है।
समझा जाता है कि दिल्ली से करीब होने के कारण यहां जिस नेता की जड़ जम जाती है, वह पूरे देश में अपने आप पसर जाता है, क्योंकि दिल्ली-एनसीआर को छोटा हिंदुस्तान समझा जाता है। चूंकि इन दोनों शहरों पर राजनाथ सिंह की मजबूत पकड़ रही है, इसलिए 10 साल बाद ही सही पर अमित शाह अब सबको संतुलित कर रहे हैं, वो भी अपने हिसाब से, ताकि पोस्ट मोदी पीरियड में उनकी बादशाहत को कोई चुनौती नहीं मिल सके।
इसलिए भाजपा की राजनीति में प्रयोगशाला बन चुके उत्तरप्रदेश में टिकट बंटवारे पर सवाल उठना लाजमी है। बताया जा रहा है कि यहां लिए जा रहे हर फैसले का मकसद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कमजोर करना है, जो आरएसएस को साधकर भाजपा का काफी बड़ा चेहरा बन चुके हैं और 2029 में पीएम पद के प्रबल दावेदार हैं, जिससे अमित शाह की आंखों में वो खटक रहे हैं। उन्हीं के इशारे पर उपमुख्यमंत्री केपी मौर्य योगी की राह में जबतब रोड़ा अटकाते रहते हैं। खासकर उस गाजियाबाद जनपद में जिसे भाजपा का किला करार दिया जाता है।
चर्चा है कि पहले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव 2022, फिर गाजियाबाद नगर निगम चुनाव 2022, उसके बाद लोकसभा चुनाव 2024, और अब विधानसभा उपचुनाव 2024 में जिस तरह से टिकट बांटे गए हैं, उससे पार्टी कार्यकर्ताओं के दिलोदिमाग में यह सवाल कौंध रहा है कि आखिरकार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कमजोर करने के चक्कर में केंद्रीय भाजपा नेतृत्व कहाँ तक गिरेगा! सभी हिंदुओं को बंटोगे तो कटोगे का पाठ पढ़ाने वाले नेता टिकट या पार्टी दायित्व के बंटवारे में सवर्ण, ओबीसी और दलित समाज को समान प्रतिनिधित्व या दायित्व क्यों नहीं देते? एक ही जाति से केंद्र में पीएम और जनपद में महापौर और सांसद देने का क्या औचित्य है? जबकि राज्य में एक ही जाति के सीएम होने के चलते गाजियाबाद संसदीय सीट से उनकी जाति के पर कतरे गए।
आरोप तो यह भी है कि गाजियाबाद में सांसद का पद जहां क्षत्रिय और वैश्य समाज के इर्दगिर्द घूम रहा है, वहीं, पार्टी के पांच विधायकों में एक जाट, एक गुर्जर के अलावा दलितों, यादवों, लवकुश आदि को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, जबकि दो ब्राह्मण विधायकों (ब्राह्मण और त्यागी ब्राह्मण) के रहते हुए तीसरे ब्राह्मण नेता संजीव शर्मा, महानगर अध्यक्ष, गाजियाबाद भाजपा को भी गाजियाबाद विस उपचुनाव का टिकट थमा दिया गया।
कहा जा रहा है कि उन्हें सांसद अतुल गर्ग, कबीना मंत्री सुनील शर्मा के अलावा सभी विधायकों का विश्वास हासिल है। संजीव शर्मा भी कभी पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री व गाजियाबाद के पूर्व सांसद जनरल वी के सिंह के खासमखास रह चुके हैं और उन्हीं के आशीर्वाद से पहलीबार महानगर अध्यक्ष के पद तक पहुंचे थे। लेकिन तत्कालीन सांसद और विधायकों के बीच बढ़ती दूरियों के चलते उन्होंने विधायकों का साथ दिया, जिससे न केवल दूसरी बार महानगर अध्यक्ष बने, बल्कि विधायक चुनाव का टिकट हासिल करने में भी सफल रहे। गाजियाबाद में भाजपा का टिकट मिलने को ही जीत की गारंटी समझी जाती है।
सवाल है कि पहले लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान गाजियाबाद के सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे जनरल वी के सिंह, पूर्व थल सेनाध्यक्ष को जिस तरह से निपटाया गया, उससे राजपूत समाज में भारी रोष है। लेकिन यूपी विस उपचुनाव में गाजियाबाद सदर सीट से उनकी पुत्री मृणालिनी सिंह को टिकट नहीं दिए जाने से क्षत्रिय समाज अब जनपद की राजनीति में पूरी तरह से खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है।
वहीं, चर्चा है कि इससे पूर्व गाजियाबाद नगर निगम चुनाव 2022 में तत्कालीन महापौर आशा शर्मा का टिकट काटकर वैश्य नेत्री सुनीता दयाल को दिए जाने, लगभग दो दर्जन तत्कालीन भाजपा पार्षदों के टिकट काटे जाने से जो संगठनात्मक रोष बढ़ा और जनअसंतोष हावी हुआ, उसे संतुलित करने का प्रयास भाजपा केंद्रीय नेतृत्व क्यों नहीं कर रहा है, यह समझ से परे है।
स्थानीय भाजपा नेता दबी जुबान में बताते हैं कि औद्योगिक नगरी गाजियाबाद की सियासत ‘थैलीशाहों’ के कब्जे में चले जाने से पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता भी परेशान हैं, क्योंकि उन्हें उनका भविष्य अब अंधकारमय नजर आ रहा है। बताया जाता है कि गाजियाबाद में भाजपा के फैसले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाराज नहीं हो, इसके डैमेज कंट्रोल के लिए पार्टी के कोर वोटर्स रहे वैश्यों और ब्राह्मणों पर विशेष कृपा बरसायी जा रही है, जिससे क्षत्रिय समाज खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है।
यही नहीं, दलित और ओबीसी वर्ग के नेताओं में भी इससे अंदरूनी रोष है, लेकिन महानगर क्षेत्र होने, वैश्य-ब्राह्मण वर्ग के संख्याबल में भारी होने से वो लाचार हो जाते हैं। यूँ तो अल्पसंख्यक और दलित वर्ग की आबादी भी यहां ठीकठाक है, लेकिन प्रतिनिधित्व नदारद! भले ही एक बार दलित को राष्ट्रपति बनाया गया और केंद्र व राज्य में मंत्रिपद दिया गया। जबकि दलित सिर्फ पार्षद बनकर संतुष्ट हैं। क्योंकि वो मायावती के वोटबैंक समझे जाते हैं। शायद इसलिए उन्हें गाजियाबाद से सांसद व विधायक बनाने में पार्टी कोई दिलचस्पी नहीं लेती।
वहीं, ओबीसी उपराष्ट्रपति, ओबीसी पीएम और केंद्र व राज्य में दर्जनों ओबीसी मंत्रियों के होने के चलते गाजियाबाद जैसे महानगर में पार्टी उन्हें सांसद या विधायक के पदों पर ज्यादा तरजीह नहीं देना चाहती, क्योंकि मूल रूप से ओबीसी वोटर्स सपा प्रमुख अखिलेश यादव के समर्थक समझे जाते हैं। वहीं, अल्पसंख्यक कांग्रेस समर्थक हैं, इसलिए भाजपा उन्हें घास नहीं डालती। बावजूद इसके, एक ओबीसी नेता नरेंद्र कश्यप को कबीना मंत्री स्वतंत्र प्रभार बनाकर पार्टी ने उन्हें संतुष्ट कर दिया, क्योंकि डिप्टी सीएम केपी मौर्य भी ओबीसी ही हैं, लेकिन दलित नेतृत्व तो यहां पूरी तरह से ठगा महसूस करता है। बता दें कि गाजियाबाद सदर सीट पर दलित-अल्पसंख्यक वोटरों की एकजुटता ही तय करती है कि अगला विधायक कौन होगा?
जानकार बताते हैं कि वैश्य नेत्री महापौर सुनीता दयाल के रहते हुए वैश्य नेता और सांसद अतुल गर्ग को जिस तरह से आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे खुद पंजाबी समुदाय चिढ़ा हुआ है, जिसे भाजपा का कोर वोटर समझा जाता है। गाजियाबाद लोकसभा क्षेत्र व गाजियाबाद सदर विधानसभा सीट पर इनकी अच्छी खासी संख्या है। वहीं, गाजियाबाद विस उपचुनाव में बनिया कोटे की सीट को काटकर ब्राह्मण उम्मीदवार संजीव शर्मा, भाजपा महानगर अध्यक्ष को दे दिए जाने से अब बनिया वर्ग ने भी नाखुशी जाहिर की है। उनकी शिकायत है कि साहिबाबाद विधायक सुनील शर्मा, जिन्हें सूबे में कैबिनेट मंत्री स्वतंत्र प्रभार भी बनाया गया है, मुरादनगर विधायक अजीतपाल त्यागी, जिला पंचायत अध्यक्ष ममता त्यागी, विधान परिषद सदस्य बसंत त्यागी और श्रीश चंद के होते हुए भी एक और ब्राह्मण को टिकट थमा दिया गया। वहीं, पूर्व महापौर आशा शर्मा भी ब्राह्मण ही हैं। वहीं, दर्जनों ब्राह्मण पार्षद गाजियाबाद में सक्रिय हैं और पार्टी संगठन पर भी हावी हैं। सूबे में एक ब्राह्मण उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक हैं, जिनका वरदहस्त यहां के नेताओं को प्राप्त है।
वहीं, अपने बचाव में ब्राह्मणों का कहना है कि महापौर सुनीता दयाल, सांसद अतुल गर्ग, एमएलसी दिनेश गोयल के अलावा दर्जनाधिक निगम पार्षद वैश्य समाज से आते हैं। जबकि, पूर्व राज्यसभा सदस्य अनिल अग्रवाल भी वैश्य समाज से ही हैं। दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री कैप्टन मनोज गुप्ता की सक्रियता भी परोक्ष रूप से गाजियाबाद में ज्यादा रहती है। ऐसे में शहरी सीटों पर ब्राह्मणों को आगे बढ़ाने से बनिया समाज को नाराज नहीं होना चाहिए, बल्कि साथ देना चाहिए, जैसे ब्राह्मणों ने गाजियाबाद संसदीय चुनाव में अतुल गर्ग का साथ दिया है, जबकि विपक्ष कांग्रेस से एक मजबूत ब्राह्मण प्रत्याशी डॉली शर्मा भी मैदान में थी।
ऐसे में क्षत्रियों की शिकायत लाजमी है कि उनके समाज से सांसद का एक पद छीन लिया गया और उनके हिस्से में अब केवल एक विधायक धर्मेश तोमर हैं, जो हापुड़ जनपद के धौलाना विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह विधानसभा क्षेत्र गाजियाबाद लोकसभा क्षेत्र में पड़ता है। वहीं, कुछ पार्षद क्षत्रिय समाज से हैं। लेकिन इन्हें गाजियाबाद सदर सीट से एक प्रतिनिधित्व चाहिए, जो नहीं मिला। चूंकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह क्षत्रियों पर मजबूत पकड़ रखते हैं, इसलिए उनकी नाराजगी दूर कर लेते हैं।
चर्चा है कि पहले भाजपा रणनीतिकार अमित शाह ने क्षत्रियों को आगे बढ़ाकर ब्राह्मणों को सियासी हाशिये पर डालने का प्लान बनाया था, लेकिन जिस तरह से क्षत्रिय नेता उनकी महत्वाकांक्षाओं की राह में रोड़े बनने लगे, उससे उन्होंने फिर से ब्राह्मणों को आगे बढ़ाने की रणनीति अपना ली है। वैसे भी भाजपा को बनियों और ब्राह्मणों की ही पार्टी कहा जाता है, जिसके साथ राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ के चलते क्षत्रिय भी कोर वोटर के तौर पर जुड़ गए। इससे पहले इसका श्रेय भैरो सिंह शेखावत और दिग्विजय सिंह को जाता था।
वैसे तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में मिली दूसरी जीत के बाद ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गाजियाबाद के ब्राह्मण और वैश्य विधायकों की नाराजगी मोल लेते हुए भी ओबीसी समाज से आने वाले नरेंद्र कश्यप को राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार बनाकर सबको चौंका दिया था। हालांकि, जब वैश्यों और ब्राह्मणों ने अंदरूनी तौर पर संगठनात्मक नाराजगी जताई तो कूटनीतिक रूप से अतुल गर्ग, पूर्व राज्यमंत्री की जगह सुनील शर्मा को मंत्री बना दिया गया। बाद में अतुल गर्ग को सांसद बनाकर उनको मंत्री पद से हटाए जाने का मलाल दूर किया गया। वहीं, अचानक सुनील शर्मा को मंत्री बनाये जाने से गुर्जर विधायक नंदकिशोर गुर्जर और जाट विधायिका डॉ मंजू सिवाच के सपने अधूरे रह गए।
पार्टी के अनुभवी नेता बताते हैं कि गाज़ियाबाद का सांसद और विधायक पीएम, सीएम की जाति का कतई नहीं होना चाहिए, बल्कि अन्य जातियों से होना चाहिए। इसी प्रकार का फॉर्मूला विधायकों पर भी लागू होना चाहिए, जो सीएम और डिप्टी सीएम की जाति का नहीं हों। वहीं, एक जनपद में एक ही जाति-उपजाति से ज्यादा विधायक नहीं हों। जबकि पार्षद पद पर पार्टी के नाम पर उन जातियों को तवज्जो दिया जाए, जिन्हें पीएम, सीएम, सांसद, विधायक और मंत्री पद पर तवज्जो नहीं मिल पाई। ऐसा करके ही भाजपा पूरी तरह से हिन्दू समाज को एकजुट रख सकती है और सपा-बसपा जैसी जातीय जनाधार वाली पार्टियों का हवा निकाल सकती है, अन्यथा नहीं! गाजियाबाद लोकसभा चुनाव 2024 में विपक्ष को मिले थोक भाव में वोट से स्पष्ट है कि जातीय गोलबंदी से भाजपा का किला दरक सकता है, इसलिए वह कीप एंड बैलेंस बनाकर चले।