खेती-बाड़ी और बोलीभाषा

क्षेत्रपाल शर्मा

खेतीबाड़ी ……

सुर्खरू होता है इन्सां ठोकरें खाने के बाद

रंग देती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद

बहुत समय पहले मैंने प्रोफ़ेसर अली मोहम्मद खुसरो साहब का एक लेख पढा था जिसमें खासतौर पर मैं जो समझ पाया उसमें दो बात बेहद महत्वपूर्ण थीं पहली यह कि कृषि जमीन उतनी ही रहनी हैं और बोझ उस पर आबादी आदि का ज्यादा है .दूसरे यह कि समान काम के लिए समान वेतन हो .

कुछ समय बाद सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष आर्थिक ज़ोन ( सेज) बनाने के संदर्भ में 2007 में कृषि जमीन की इसी हालत को ध्यान में रखकर यह अहम फ़ैसला दिया कि सरकार का यह फ़र्ज बनता है कि वह यह देखे कि जिस भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है कि वह कृषि के उपयुक्त नहीं हो. अर्थात अधिग्रहण उपजाऊ और कृषि भूमि का नहीं हो.यह मामला देवेन्दर सिंह एवं अन्य भू स्वामियों ( होशियारपुर) की अपील पर मुकदमे के खर्च के साथ मंजूर हुई थी (प्र. ख. को. 11.11.2007). हालत यहां तक आ जाएगी कि विशेष कम्पेन्सेसन पर भी अब अन्य कार्यों के लिए कृषि जमीन देना आत्मघाती कदम होगा.

इस तरह के निर्णयों पर सम्यक सोच विचार के बाद ही फ़ैसले लेने चाहिए.कहीं एसा न हो कि पुरानी मसल की तरह पछतावा हो कि कच्चा -लोभ कान कटाता है .

दिल्ली में झुग्गी-झोंपड़ी कोलोनी (जे.जे)बनी तो बंगलादेशी शर्णार्थिओं के लिए लेक्न गरीबी की मार एसी होती है कि वे सब पैसे वालों के हाथ बेच गए.

किसान आज विसंगतियों और अधूरेपन के बीच जी रहा है. एक उप नहर आसना और अहमद्पुर , मथुरा मार्ग पर प्रस्तावित थी जिसके लिए बीस एक साल पहले मुआवजा भी किसानों को बंट गया , लेकिन जो ज्यादा लाभ की चीज थी कि उस नहर में पानी आए आज तक नहीं हुआ.

केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की कई एक जगह फ़ीस में भारी विसंगति है , मसलन आर टी आई के अधीन एक आवेदन की फ़ीस दस रुपए और नकल की दो रुपए लेकिन जब किसान खतौनी की नकल लेने जाता है तो बीस एक रुपए खर्च होते हैं यह फ़ीस गरीब किसानों के लिए ज्यादा है , इसे कम किया जाना चाहिए.

खेती – बाड़ी सच में सहज का मठा नहीं है.

बोली भाषा…

अंग्रेजी भाषा का अब विरोध होने लगा है. विरोध यह है कि संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में इसका अनिवार्य पर्चा न हो . मैं भी इस भाषा का हिमायती नहीं, लेकिन इस पर चर्चा करें कि हमारे लिए आज के हालात में क्या सही होगा. कहीं हम बंगाल की तरह बाद में यह पछतावा न करें कि यह भारी भूल हुई थी कि हमें अपने बच्चों को रोज़गार के मामले में पीछे धकेल दिया.

मैं भी उत्तर प्रदेश (जिसे कुछ लोग गोबर बेल्ट के नाम से जानते हैं , आखिर क्यों?) में जन्मा हूं और शिक्षा भी यहीं हुई, लेकिन शिक्षा में भी फ़र्क है.मैं पहली बार जब यूनिवर्सिटी में गया और एक दिन जब डाक्टर एम .के लोदी को मास्साब संबोधन किया तभी उनसे जाना कि सर बोलना चाहिए.तो सवाल उठता है कि क्या दक्षिण भारतीयों को यह भाषा पढनी पड़ती है कि नहीं? फ़िर इस भाषा को जानने में हर्ज क्या है? प्रतियोगी परीक्षाओं में आखिर प्रतिभाशाली बच्चे ही आते हें , एक उपाय यह है कि हम इस भाषा में भी आत्म विश्वास के साथ आगे बढें, और पढाएं न कि उन्हें डराएं.इतने सारे मल्टी नेशनल आफ़िस और कंप्यूटर और कहां यह कि

उत्तर प्रदेश में ठीक- ठाक हिन्दी जानने वालों के भी टोटे हैं , और हम अंग्रेजी का विरोध करें यह अब ठीक नहीं लगता.हमें इसके कारण और इसे सही करने के उपाय तलाशने होंगे, यह कि शिक्षा का स्तर इतना गिर क्यों गया है?

समाज में इस कदर परस्पर -विश्वास और आदर का अभाव है कि हमारे परिचित और संबंधी जो काम हमारे पीछे कर देते हैं वे जब हमारे सामने आते हैं तो न केवल हमें वे चोंकाते हें वरन पीड़ादायक , पीठ में छुरे भोंकने वाले , होते हैं

यह एक मेरा विनम्र सुझाव है , मैं इस पर बहस और मुबाहिसे में न पड़कर सिर्फ़ इतना एक शेर के जरिए कहूंगा कि

झूठ कहूं तो मेरी आकपत बिगड़ती है

सच कहूं तो खुदी बेनकाब हो जाए.

इसके लिए जिम्मेदार लोगों को अब अपने -अपने गरेबान झांक लेने चाहिए.

2 COMMENTS

  1. I fully agree with Kshetrapal Sharmaji on both the subjects. Since independence our population has grown three times but the land under cultivatrion has reamined the same or reduced.How are we supposed to feed our billion plus population if we go on convertiing our fertile lands into SEZs? It is the mafia mind of the politicians who want to use this land for real estate business in the guise of SEZ or expressways etc.
    Regarding English, it is a language of nattional and international communication and it must be compulsory in UPSC Examination. For us in South India, Hindi and English are both on the same footing but we manage to learn the same along with our mother tongue.Hence it should not be difficult for people from Hindi belt to learn one language i.e. English and it will be to their advantage.

  2. श्री क्षेत्रपाल शर्माजी का लेख “खेती-बाड़ी और बोलीभाषा” पढ़ा. गोबर बेल्ट , गुड गोबर या गोबर गणेश पर चर्चा फिलहाल मूल मुद्दे से विषयांतर की श्रेणी मैं माना जाएगा.मैं सीधे-सीधे मुद्दे पर आता हूँ-
    १) इस देश मैं भाषा की बात करना यानी कवि धूमिल की लाइन गुनगुनाना-
    “इस कदर कायर है कि उत्तर प्रदेश है…..”
    २)राजभाषा अधिनियम,१९६३ गांडूगिरी का जीता जागता प्रमाण है.
    ३)क्या इस देश मैं भाषा के नाम पर अन्नागिरी करने की जरूरत नहीं है ?
    ४)सरकारी सेवा में भाषा की खेराती पढाई बंद होनी चाहिए.
    ५)यदि हिन्दी मैं सरकारी कामकाज जरुरी है (?) तो क्या उसकी हिंदी भाषा योग्यतापरख सेवा में आने से पूर्व आंकी जानी जरूरी नहीं है ? हिंदी का खेराती ज्ञान बांटना (वो भी विगत ५० सालों से),अनमने भाव से (क्योंकि इसे कोई सरकारी मुलाजिम गंभीरता से लेता ही नहीं) सरकारी धन का अपव्यय है.
    ६) है कोई माई का लाल जो CAG की “……में डंडा डाले” ? इस थोथी नीति की पड़ताल होनी चाहिए .हिंदी शिक्षण योजना कागज़ के शेर तैयार करती है ,जो नाकारा हैं.
    -धर्मेन्द्र कुमार गुप्त, इंदौर

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