मनोज ज्वाला

मोर एक ऐसा प्राणी होता है जिसके सौन्दर्य के सामने इन्द्रधनुष की छटा भी फीकी पड़ जाती है। बादल घिर जाने पर जंगल में जब वह नाचता है तो अपने पंखों की बहुरंगी मोहकता देखकर फूले नहीं समाता। लेकिन अपने पांवों को देखते ही वह लज्जित हो जाता है। क्योंकि, उसके पांव बड़े कुरुप होते हैं। वनांचल कहे जाने वाले झारखण्ड प्रदेश में सत्तासीन रही भाजपा और उसके नेताओं की हालत विधानसभा चुनाव के बाद उसी मोर के समान हो गई है। चुनावी बादल उमड़ने-घुमड़ने के दौरान अपने बहुरंगी पंखों की मनमोहक छटा पर इतराती रहनेवाली भाजपा और प्रदेश के निवर्तमान मुख्यमंत्री रघुवर दास की नजर जब अपने पांव पर पड़ी तो लज्जा के मारे शर्मसार होना पड़ गया। न केवल पांव की कुरुपता के कारण, बल्कि इस कारण भी कि पांव तले से सत्ता की जमीन ही खिसक चुकी है।मुख्यमंत्री रघुवर दास भी चुनाव हार गए। वैसे इस वन प्रदेश में मुख्यमंत्रियों के चुनाव हारने की तो परम्परा ही रही है। इससे पहले मुख्यमंत्री रहते शिबू सोरेन और अर्जुन मुण्डा भी चुनाव हार चुके हैं। लेकिन रघुवर दास की हार के खास मायने हैं। वे दोनों तो विरोधी दलों से परास्त हुए थे, किन्तु दास जी को अपनी ही भाजपा के कद्दावर नेता रहे सरयू राय से चुनाव हारना पड़ा है, जो उनकी सरकार में मंत्री रहते हुए समय-समय पर उनकी कार्यशैली व रीति-नीति के बाबत चेताते रहे थे। इसी कारण चुनाव में पार्टी द्वारा टिकट नहीं दिए जाने पर उन्होंने बागी होकर चुनौती दे डाली थी। ऐसे में अब यह समझा जा रहा है कि प्रदेश में पार्टी की लुटिया डुबोने का काम रघुवर दास की कार्यशैली तथा पार्टी के भीतर जड़ें जमा चुकी उनकी लॉबी और निष्ठावान भाजपाई नेताओं-कार्यकर्ताओं की बगावत के कारण हुआ। बीते पांच वर्षों के भाजपा शासन से प्रदेश का चहुंमुखी विकास अथवा आम हो चुकी नक्सली वारदातों को घटाने-मिटाने तथा चर्च-मिशनरियों की अवांछित गतिविधियों पर नकेल कसने का श्रेय भी निश्चय ही उसे ही जाता है। बावजूद इसके भाजपा सरकार की पुनर्वापसी नहीं हुई तो यह विचारणीय है।ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रवादिता व राजनीतिक शुचिता के लिए जानी जाने वाली भाजपा सत्तासीन हो जाने के बाद राष्ट्रवाद के विरोधियों को तो पुचकारने लगती है, किन्तु अपनी ही पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं से दूरी बना लेती है। सत्ता के गलियारों में घुसकर अपनी राह बना लेने की कला आजमाते रहने वाले अवसरवादी लोग तो भाजपा के राज-दरबार में भी घुसपैठ कर मलाई चाभने लगते हैं। मगर भाजपा की नीतियों और संघ की वैचारिकताओं के लिए जीते-मरते रहने वाले उसके कार्यकर्ता पूरे पांच साल घूंटते रहते हैं। फलतः अगले चुनाव के समय उसके विरोधी लोग तो पूरी ताकत से एकजुट हो जाते हैं, जैसा कि इस बार खूब हुआ, किन्तु राष्ट्रवादी भाजपाइयों में उदासीनता छा जाती है। पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता पार्टी नेतृत्व को कोसने में लग जाते हैं। रही-सही कसर पार्टी के भीतर व्याप्त अन्तर्कलह से पूर्ण हो जाती है। सरयू राय जैसे पुराने नेता की उपेक्षा और उन्हीं के मुकाबले रघुवर दास की करारी पराजय इसका प्रमाण है। जमशेदपुर (पूर्वी) क्षेत्र सहित प्रदेश कई क्षेत्रों में संघ के स्वयंसेवकों ने भी भाजपा के विरुद्ध जाकर मतदान किया-कराया तो इसे क्या समझा जाए?झारखण्ड में भाजपा की हुई इस करारी हार के बाद मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा है कि यह भाजपा की नहीं, उनकी व्यक्तिगत हार है। असल में रघुवर दास की यह स्वीकारोक्ति ही झारखण्ड में भाजपा की हुई इस दुर्गति का कारण है। पांच साल अगर कोई अहंकारी नेता राष्ट्रवाद की बहुरंगी छटा (अनुच्छेद-370, राम मंदिर, तीन तलाक, नगरिकता संशोधन अधिनियम) बिखेरते रहने वाली किसी अखिल भारतीय राष्ट्रवादी पार्टी अथवा कार्यकर्ता-आधारित व्यापक संगठन को अपनी निजी दुकान की तरह चलाए, तो उसका परिणाम पराजय के सिवाय दूसरा कुछ नहीं हो सकता।मालूम हो कि झारखण्ड राज्य बनने के पहले से दक्षिण बिहार कहा जाने वाला यह क्षेत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बहुआयामी कार्यों व सांगठनिक विस्तार के कारण भाजपा का गढ़ रहा है। इसी कारण अलग राज्य बनने के बाद सर्वाधिक समय तक भाजपा ही यहां सत्तासीन रही। किन्तु, आज वही भाजपा अपनी ही अन्तर्कलह के कारण सत्ता से बेदखल होकर अब इसका दोष जनता के मत्थे मढ़ रही है। लेकिन सच यह है कि इसके लिए असली दोषी तो पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व है। झारखण्ड को गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री देने के लिए सन 2015 में पार्टी की ओर से रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाना उतना गलत नहीं था। लेकिन पांच साल तक दास के द्वारा पार्टी के भीतर व्यक्तिवादी तानाशाही चलाते रहने, जातिवाद का नंगा नाच करते रहने, निष्ठावान नेताओं को धकिया कर आयातित नेताओं को स्थापित करने और पांच साल बाद पार्टी के ही एक पुराने कद्दावर नेता द्वारा उसे चुनौती दिए जाने के बावजूद पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा जनभावना की अनदेखी करते हुए मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बदलना वास्तव में केन्द्रीय नेतृत्व का बहुत बड़ा गुनाह है। केन्द्रीय भाजपा नेतृत्व की इस चुप्पी के कारण ही इस वन प्रदेश की सत्ता उन दलों को उपलब्ध हो गई, जिन्हें यहां की जनता आज तक मन से कभी नहीं स्वीकार सकी है। इसके लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और सर्वोपरि नेता नरेन्द्र मोदी को झारखण्ड के लोग दोषमुक्त नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उन दोनों की शह से ही तो रघुवर दास शाह बने रहे थे। वर्षों से झारखण्ड के भाजपाई जनप्रतिनिधि राज्य में मुख्यमंत्री के तौर-तरीके की शिकायत दिल्ली में इन दोनों से करते रहे थे। लेकिन दोनों नेता उन शिकायतों को एक ईमानदार शासन का विरोध बताकर खारिज करते रहे। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व अगर झारखण्ड में सत्ता की एक भी नाली का ढक्कन उठा कर देखा होता तो जान लेता कि भीतर कितनी सड़ांध भरी है। समय-समय पर कई घटनाएं भी सुर्खियों में आती रही हैं जिनसे यह जाहिर होता रहा कि सरकार के ‘पांव’ कुरुप होते जा रहे हैं। लेकिन रघुवर दास बड़ी चालाकी से केन्द्रीय नेतृत्व को अपने ‘सुनहरे पंख’ दिखा-दिखाकर भ्रमित करते रहे।झारखंड सहित कई प्रदेशों में भाजपा की हार का मुख्य कारण पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं की अनदेखी ही रही है। भाजपा की यह बड़ी त्रासदी है। सच तो यह है कि झारखण्ड में भाजपा नहीं हारी है, बल्कि भाजपा की इस नई आयातित प्रवृति की हार हुई है। प्रदेश भाजपा के नेता संघ-संस्कारों से संस्कारित अपने जमीनी कार्यकर्ताओं को प्रश्रय देना उचित नहीं समझते। जबकि, सच यह है कि भाजपा के व्यवहार में संघ का संस्कार होने के कारण ही यह पार्टी दूसरों से भिन्न कही जाती रही है। किन्तु बीते वर्षों में यह भिन्नता सिर्फ कहावत बन कर रह गई है। भाजपा की यह पराजय पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की लापरवाही और संगठन में बढ़ती लालफीताशाही का खामियाजा है। पार्टी के भीतर नेताओं-कार्यकर्ताओं में अपनत्व के क्षरण का परिणाम है यह पतन। इसके नेताओं ने स्वयं को ‘सर’ कहलवाने और अपने ‘पांव’ पकड़वाने की जो परिपाटी विकसित कर रखी है, उसी के कारण पार्टी के पांव जमीन से उखड़कर ऐसे कुरुप हो गए हैं कि अब उसे देख कर लज्जित होना पड़ रहा है।