प्रमोद भार्गव
चुनावी घोषणा-पत्रों को निर्वाचन आयोग द्वारा निगरानी में लेने के फैसले के साथ ही विरोधाभासी हालात पैदा हो गए हैं। इधर आयोग ने राजनीतिक दलों द्वारा लिए जाने वाले वादों के औचित्य पर नजर रखने की कवायद की, उधर अन्नाद्रमुक की प्रमुख जे जयललिता ने वादों की अफलातूनी घूस का घोषणा-पत्र जारी कर दिया। इसके अनुसार यदि जयललिता का दल लोकसभा चुनाव के बाद केंद्रीय सत्ता में भागीदारी करता है तो लोगों को मिक्सी, ग्राइंडर और पंखे जैसे तोहफे तो देगा ही, दुधारू गाय एवं बकरियां भी समूचे देश में मुफ्त बांटी जाएंगी। इस विरोधाभासी स्थिति में आयोग के साथ विडंबना यह है कि वह अधिसूचना जारी होने के पहले किसी दल के विरूद्ध आदर्श आचार संहिता के तहत कोर्इ कार्रवार्इ नहीं कर सकता है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत आयोग के हाथ बंधे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश के आधार पर निर्वाचन आयोग ने वादों पर निगरानी रखने की दृष्टि से अहम पहल की है। इस पहल के तहत चुनावी घोषणा-पत्र आयोग की निगरानी में रहेंगे, लेकिन आयोग को उन्हीं घोषणा-पत्रों को निगरानी में लेने का अधिकार है जो अधिसूचना लागू होने के बाद जारी होंगे। इसके पहले लागू होने वाले घोषणा-पत्रों के औचित्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है ? हालांकि आयोग ने समझदारी का परिचय देते हुए माना है कि घोषणा-पत्र जारी करना दलों का संवैधानिक अधिकार है, उसने तो केवल वादे पूरे होने की उम्मीद पर नजर रखने का काम किया है। लिहाजा अब दल या उम्मीदवार यह बताने के लिए मजबूर होंगे कि वादों पर वे अमल कैसे करेंगे और वादे का औचित्य क्या है ? बादो को पूरा करने के लिए धन कैसे जुटाएंगे, इसका उल्लेख भी घोषणा-पत्र में करना होगा। जाहिर है, मतदाता को लालच महज उन्हीं वादों का दिया जाना चाहिए, जिन्हें पूरा करना मुमकिन हो।
दरअसल, जुलार्इ 2013 में शीर्ष न्यायालय में तमिलनाडू में ही विधानसभा चुनाव के दौरान की गर्इ अनर्गल चुनावी घोषणाओं से संबंधित मामला आया था। इस याचिका में अन्नाद्रमुक द्वारा घोषणा-पत्र में दर्ज चुनावी वादों को असंवैधानिक ठहराने की चुनौती दी गर्इ थी। जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया था। न्यायालय ने दलील दी थी कि घोषणा-पत्रों में दर्ज प्रलोभनो को भ्रष्ट आचरण नहीं माना जा सकता है। चुनाव का नियमन जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिए होता है। इसमें ऐसा कोर्इ प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इसे गैरकानूनी या भ्रष्ट कदाचरण ठहराया जा सके। लिहाजा ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। वादों पर नियंत्रण का कारगर उपाय विधायिका ही कर सेती है। अलबत्ता न्यायालय ने आयोग को जरूर इसी फैसले में निर्देश दिया था कि वह चुनावी घोषणा-पत्रों को मर्यादित बनाए रचाने की दृष्टि से अतिवादी व लोक लुभावन घोषणाओं को रेखांकित करे, उनके औचित्य की निगरानी करे, जिससे आदर्श वुनाव संहिता का अधिकतम पालन संभव हो सके।
इसी निर्देश के पालन में आयोग ने कुछ समय पहले राजनीतिक दलों को घोषणा-पत्र तैयार करने के परिप्रेक्ष्य में तीन बिन्दुओं का ध्यान रखने को कहा था। जिनमें पहला था, चुनावी घोषणा-पत्र संविधान के आदर्शो और सिद्धांतों के अनुरूप हों। वह आदर्श आचार संहिता की भूल भावना और प्रावधानों के अनुसार भी हों। दूसरा, घोषणा-पत्रों में जन कल्याण की योजनाएं चलाने के वादे
शामिल करने पर आयोग को आपत्ति तो नहीं होगी, लेकिन ऐसे वादों से बचना होगा, जिनसे चुनावी प्रक्रिया की शुचिता प्रभावित होती हो और मतदाता पर विपरीत असर पड़ता हो। तीसरा, घोषणा-पत्रों में जो वादे किए जाएं वे न्यायसंगत हों तथा यह भी साफ करना होगा कि घोषित योजनाएं चलाने के लिए धन की आपूर्ति कैसे होगी।
चुनावी घोषणा-पत्र की मर्यादा तय होने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि राजनीतिक दल अब अनर्र्गल वादे नहीं करेंगे। लेकिन देश की प्रधानमंत्री बनने की अतिवादी महत्वाकांक्षा के चलते जयललिता ने आयोग के मंसूबों पर पानी फेर दिया। उन्होंने अपनी नीतियों और योजनाओं से जुड़ा घोषणा-पत्र जारी करते हुए कहा भी कि इन पर केवल तमिलनाडू में ही नहीं पूरे देश में अमल किया जाएगा। जयललिता ने गाय-बकरियों के अलावा अन्य उपकरण बतौर उपहार देने के वादे तो किए ही, तमिल मतदाताओं को भावनात्मक रूप से भुनाने की दृष्टि से श्रीलंका में एक अलग ‘र्इलम देश के गठन जैसे असंभव वादे की घोषणा भी कर दी। इसके लिए उन्होंने तमिलों और विस्थापितों के बीच जनमत संग्रह कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाने का वादा भी किया। अन्नाद्रमुक ने तेल कंपनियों से डीजल, पेट्रोल के दाम तय करने के अधिकार वापस लेने और समुचे देश में 69 फीसदी सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का वादा भी किया। जाहिर है आयोग की चुनावी वादों को नियंत्रित करने की पहल को शुरूआती दौर में ही जयललिता ने ठेंगा दिखा दिया है। वस्तुत: नए सिरे से सवाल खड़ा हुआ है कि आयोग वादों पर नियंत्रण करे तो कैसे ? यह मुददा अब इसलिए भी विवादित हो गया है कि अन्नाद्रमुक ने अपने घोषणा-पत्र में जो वादे किए हैं, उनमें किस वादे को संभव माना जाए और किसे असंभव, यह किस पैमाने से तय होगा ? जयललिता ने जिस तरह से क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय वादों का पिटारा खोला है, उसके तइर्ं छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवारों के पास तो हाथ मलने के अलावा कोर्इ चारा ही शेष नहीं रह गया है। जाहिर है, बिना विधायिका के हस्तक्षेप के अफलातूनी वादों को कानून और संवैधानिक दायरे में रखना संभव नहीं होगा ?
शीर्ष न्यायालय ने संभवत: दलों की लालची मानसिकता भांप लिया था, इसीलिए तमिलनाडू की जयललिता सरकार के चुनावी वादों से जुड़े एक मसले के परिप्रेक्ष्य में ही न्यायालय ने कहा था कि ‘घोषणा-पत्र पर कानून बनाने का अधिकार विधायिका को ही है। यहां विडंबना है कि विधायिका और दल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रलोभन के जिन वादों के मार्फत मतदाता को बरगलाकर राजनीतिक दल सत्ता के अधिकारी हुए हैं, उन वादों को घोषणा-पत्र में नहीं रखने का कानून बनाकर वे अपने ही हाथ, पैरों में कुल्हाड़ी क्यों मारने लगे ? यहां एक मौजूं सवाल यह भी उठता है कि दल जो घोषणाएं करते हैं, उनका लाभ बिना किसी वर्ग भेद के जरूरतमंद लोगों को मिलता है। चाहे वह छात्रवुत्ति, लैपटाप पंखे, टीवी या साइकिल हो ? मुफ्त बिजली या सस्ता राशन हो। इनके बांटने में कोर्इ जातीय या वर्गीय भेद नहीं किया जाता है। लेकिन जयललिता ने जिस तरह तमिलों के भावनात्मक मुददे को छूते हुए श्रीलंका में अलग राष्ट्र की मांग उठार्इ है, वह जरूर वोट सुरक्षा की दृष्टि से अतिवादी वादा है। अंतरराष्ट्रीय नीति को प्रभावित करने व दो देशों में जातीय भावना को उक्साने का वादा है। ऐसे वादे पर लगाम लगाने के उपाय होने ही चाहिए।
लेकिन इस परिप्रेक्ष्य आयोग की दुविधा यह है कि वह दलों के घोषणा-पत्रों पर अनुशसनात्मक कार्रवार्इ अधिसूचना जारी होने के बाद कर सकता है, जबकि अन्नाद्रमुक ने अपने चुनावी वादों का दृष्टि-पत्र अधिसूचना जारी होने के पहले ही कर दिया है। इस पर विडंबना यह भी है कि आदर्श आचार संहिता में दंड का कोर्इ प्रावधान नहीं है। आयोग यदि संहिता को लागू कर पाता है तो इसलिए कि राजनीतिक दल उसका सहयोग करते हैं और जनमत की भावना आयोग के पक्ष में होती है। तय है, यदि राजनैतिक दल अन्नाद्रमुक की तरह आयोग के नीति-निर्देर्शों की अवहेलना करने लग जाएंगे तो आयोग के पास हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के अलावा कोर्इ उपाय नहीं हैं ? वैसे भी संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक आयोग की जवाबदेही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की है, न कि दलों के चुनावी वादों का औचित्य सुनिशिचत करने की ? बावजूद आयोग जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत मामले संज्ञान में लेता है और दल व उम्मीदवारों को चेताता भी रहता है। लेकिन दल व उम्मीदवार जानते हैं कि उनकी राजनीतिक मान्यता और उम्मीदवारी को खारिज करने का कोर्इ तात्कालिक अधिकार आयोग के पास नहीं है, इसलिए वे अन्नाद्रमुक और उसकी मुखिया जयललिता की तरह बेफिक्र रहते हैं और प्रलोभन की चटनी चटाकर मतदाता की नीयत को लुभाने का काम करते हैं। जबकि इन्हीं जयललिता ने विधानसभा चुनाव में किए 70 फीसदी वादों को पूरा नहीं किया है। बावजूद उन्होंने अखिल भारतीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुनावी वादों का पिटारा खोल दिया है।
और अब फिर तमिलनाडु से उसी अन्ना द्रमुक ने वादों की शुरुआत कर दी है,बेशक चुनाव घोषणा से पहले की हो पर जनता तो विश्वास करेगी ही चाहे कुछ अंशो में ही क्यों न हो.हो सकता है चुनाव बाद जयललिता के सत्तानशीं हो जेन पर फिरकोई यह वाद खड़ा कर दे