बहुत ही चर्चित और अनेक स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के खिलाफ अपनी आवाज़ को बुलंद करने वाली, अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि पर दमदार तरीके से अपनी बात रखने वाली तथा हमेशा विवादों में रहने वाली भारतीय लेखिका, निबंधकार, सजग मानवाधिकार कार्यकर्ता सुज़ेना अरुंधति रॉय किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका जन्म 24 नवंबर 1961 को शिलांग ,मेघालय में को हुआ था, जो ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’, ‘लिसनिंग टू ग्रासहॉपर’, ‘द एंड ऑफ इमेजिनेशन’ और ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ जैसी अपनी रचनाओं के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार उनके पिता एक बंगाली हिंदू थे और माँ केरल की ईसाई थीं, जिसके कारण उन्हें विभिन्न संस्कृतियों को करीब से देखने और उन्हें अपने लेखन में उतारने का मौका मिला।रॉय ने कोट्टायम के कॉर्पस क्रिस्टी में स्कूली शिक्षा प्राप्त की, उसके बाद तमिलनाडु के नीलगिरी में लॉरेंस स्कूल, लवडेल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने दिल्ली के स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर में आर्किटेक्चर की पढ़ाई की। उन्होंने प्रोडक्शन डिजाइनर के तौर पर भी काम किया था। अभिनय के क्षेत्र में भी उन्होंने अपने हाथ आजमाते थे। रॉय ने वर्ष 1988 में इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वन्स के लिए सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अरूंधति रॉय के पहले पति गेरार्ड दा कुन्हा आर्किटेक्ट थे, जिनके साथ वह दिल्ली और गोवा में रहीं और उनसे तलाक के बाद वह फिल्मकार प्रदीप कृष्ण के संपर्क में आईं थीं। जानकारी देना चाहूंगा कि अरुंधति रॉय ने 1997 में अपनी किताब ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार जीता था। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स ‘ लिखने से पहले रॉय टेलीविज़न ड्रामा और फ़िल्मों पर काम करती थीं। रोचक तथ्य यह है कि बुकर पुरस्कार जीतने वाली वह प्रथम भारतीय है। और भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ उनकी पहली किताब है, जिसमें उन्होंने अपने निजी अनुभवों का जिक्र किया है। आत्मकथनात्मक पुस्तक में उन्होंने अपने बचपन केरल के अयमानम में बिताने के बारे में लिखा है। यहां उल्लेखनीय है कि जब ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स” प्रकाशित हुई, तो अरुंधति की आलोचना की गई थी, क्योंकि उसमें केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री के दुराचारों का वर्णन शामिल था। बाद में उनको इसके लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिला। इतना ही नहीं, उनकी पुस्तक ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ को ‘न्यूयॉर्क टाइम्स नोटेबल बुक्स ऑफ द ईयर 1997’ की सूची में भी शामिल किया गया था। रॉय कई सामाजिक और पर्यावरण आंदोलनों में शामिल रही हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि रॉय ने समकालीन राजनीति और संस्कृति पर भी कई निबंध लिखे हैं। उत्पीड़ित लोगों के पक्ष में उनके मुखर प्रचार के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें वर्ष 2002 में लन्नान सांस्कृतिक स्वतंत्रता पुरस्कार और वर्ष 2004 में सिडनी शांति पुरस्कार शामिल हैं। वास्तव में रॉय को सामाजिक अभियानों में उनके काम और अहिंसा की वकालत के लिए सिडनी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।उन्हें वर्ष 2006 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया था, लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया था। दरअसल,उन्होंने भारत में सामाजिक और धार्मिक असहिष्णुता के मामलों के विरोध में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था। अरूंधति टाइम मैगजीन की वर्ष 2014 की 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में भी शामिल रही है। वह इंग्लिश पेन द्वारा दिए जाने वाले 2024 पेन पिंटर पुरस्कार की विजेता भी रहीं हैं। बहरहाल, पाठकों को जानकारी देता चलूं कि उन्होंने गैर-काल्पनिक कहानियाँ भी लिखी हैं। उनकी कुछ गैर-काल्पनिक पुस्तकें हैं, जिनमें क्रमशः ‘द कॉस्ट ऑफ लिविंग’, ‘द ऑर्डिनरी पर्सन्स गाइड टू एम्पायर’, आदि शामिल हैं। पाठकों को बताता चलूं कि शेखर कपूर की ब्लॉकबस्टर फिल्म द बैंडिट क्वीन की आलोचना से अरूंधति चर्चा में आई थीं। उस समय उन्होंने फिल्म में महिलाओं पर दिखाए गए अत्याचारों और दर्शकों पर इसके प्रभाव का कड़ा विरोध किया था और चर्चा में आ गईं । बहुत कम लोगों को ही शायद इस बात की जानकारी होगी कि अरूंधति अमेरिकी विदेश नीति की आलोचक रही है और वह वैश्वीकरण विरोधी या वैकल्पिक वैश्वीकरण आंदोलन की प्रवक्ता हैं। उन्होंने भारत की परमाणु समझौते और औद्योगीकरण की नीतियों की भी आलोचना की है और इसे ‘नरसंहार की क्षमता से भरा हुआ’ बताया है। इतना ही नहीं उन्होंने भारत, श्रीलंका और अमेरिका की कई सरकारी नीतियों के खिलाफ भी लिखा है। सच तो यह है कि साहित्यकार अरुंधति का लेखन एक तरफ जहां पुरस्कृत रहा है, उनकी गतिविधियां और बयान उतने ही विवादित रहे हैं। अरूंधति एक विवादास्पद लेखिका(कंट्रोवर्सियल राइटर) रहीं हैं, फिर भले ही चाहे बात जुलाई 1998 में, उन्होंने भारत की परमाणु नीति की आलोचना पर एक विवादित लेख प्रकाशित करने की हो, 21 अक्तूबर, 2010 को ‘आजादी द ओनली वे’ नामक एक सेमिनार में देश विरोधी भाषण की हो, भारतीय संसद पर आतंकी हमले पर उनके तर्कों की हो, परमाणु परीक्षण के विरोध की बातों की हो, आतंकियों के समर्थन की हो, वर्ष 2013 में नरेंद्र मोदी के नामांकन को ‘त्रासदी’ कहने और मोदी को ‘सबसे सैन्यवादी और आक्रामक’ प्रधानमंत्री उम्मीदवार बताने की हो, नर्मदा आंदोलन में माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की हो, गुजरात दंगों में तथ्यों के साथ तोड़फोड़ की हो, अरूंधति हर नाजुक और संवेदनशील मसलों पर बयान देती आईं हैं और शायद यही कारण है कि उनके खिलाफ अनेक शहरों में कई मुकदमे दर्ज किए गए हैं। बहरहाल, जो भी हो अरूंधति बुकर जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाली भारतीय महिला है। भले ही वह हमेशा विवादों और आलोचनाओं से घिरी रही हों लेकिन यह एक कटु सत्य है कि उन्होंने साहित्य को बहुत कुछ दिया है। नक्सल आंदोलन पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। कुछ लोग उन्हें मात्र लेखिका तो कुछ बेजुबानों की जुबान मानते हैं। कोई यह मानता है कि उनके निबंध और लेख समकालीन भारत में लोकतंत्र के अनेक हिस्सों की पड़ताल करते हैं तो कोई उन्हें विस्थापितों की, आदिवासियों की समस्याओं को दुनिया के सामने रखने की आवाज़ मानता है। कोई उन्हें दलितों, मुस्लिमों की आवाज मानता है तो कोई उन्हें जमीन से जुड़ा तो कोई उन्हें मानवाधिकार की सशक्त कार्यकर्ता मानते हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अरुंधति रॉय भारतीय समाज के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी गहरी पैठ रखती हैं और अपने लेखन के प्रति समर्पित है।