-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्यों के दो प्रकार के पुत्र होते हैं। एक औरस और दूसरे मानस पुत्र कहे जाते हैं। हम ऋषि दयानन्द के मानस पुत्र हैं।
हमारी ही तरह ऋषि दयानन्द स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के मानस पुत्र वा साक्षत् शिष्य भी
थे। स्वामी विरजानन्द जी ने ऋषि दयानन्द को जो प्रेरणा की थी उसे उन्होंने अपने प्राणपण से
पूरा करने का प्रयत्न किया था। ऋषि दयानन्द की स्वामी विरजानन्द जी की ही तरह अपने
मानस पुत्रों से भी उसी प्रकार की अपेक्षायें थी। क्या ऋषि दयानन्द की मृत्यु के बाद उनके सभी
अनुयायियों ने उनकी ही तरह उसे पूरा करने का प्रयत्न किया है? यह प्रश्न हमारे सम्मुख
उपस्थित हुआ तो हमने इसी पर अपने कुछ विचार प्रस्तुत करने का निर्णय किया। हम यह
समझते हैं कि ऋषि दयानन्द के कुछ शिष्य ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने ऋषि दयानन्द के अवशिष्ट
कार्यों को पूरा करने का पूरी निष्ठा व सामर्थ्य से प्रयत्न किया। ऐसे ऋषिभक्तों में हमें स्वामी
श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम तथा पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी के नाम शीर्ष पर दिखाई देते हैं। महात्मा
हंसराज जी शिक्षा जगत से जुड़े रहे और इस क्षेत्र में उन्होंने सर्वात्मा समर्पित होकर देश में अंग्रेजों
व ईसाईयों द्वारा दी जा रही शिक्षा का विकल्प प्रस्तुत किया था। डी0ए0वी0 आन्दोलन ने देश से
अज्ञान व निरक्षरता को दूर करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। एक व्यक्ति ऋषि दयानन्द के
स्वप्नों को पूरा नहीं कर सकता। इसमें तो ऋषि जैसे भी सहस्रों लोगों की आहुतियों की आवश्यकता है। इस दृष्टि से सभी आर्य
महापुरुषों के कार्य श्लाघनीय हैं।
ऋषि दयानन्द के बाद अन्य आर्य महापुरुषों में स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं0 गणपति शर्मा, पं0 कालूराम जी,
महात्मा नारायण स्वामी जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द आदि
अनेक योग्य जुझारू ऋषि भक्त धर्म प्रचारक एवं देश की आजादी के लिये अपना जीवन आहुत करने वाले वीर सेनानी हुए हैं।
इनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर विचार करें तो उनकी स्मृति में श्रद्धा से हमारा सिर झुक जाता है। वस्तुतः आज आर्यसमाज
जिस रूप में भी है उसमें इन महापुरुषों सहित अनेक अन्य ज्ञात व अज्ञात महापुरुषों का योगदान है। वर्तमान में हमें अपने
पूर्वज उक्त महापुरुषों के समान कोई ऋषिभक्त दिखाई नहीं देता जिसके हृदय में वह अग्नि जल रही हो जो स्वामी
विरजानन्द जी तथा ऋषि दयानन्द सहित स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम और पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि के भीतर
दिखाई देती थी। हम इन विद्वानों व महापुरुषों की परम्परा को आर्यसमाज में जारी नहीं रख पाये, यह हमारी बहुत बड़ी
असफलता कही जा सकती है। वर्तमान में तो हम आर्यसमाज को महासम्मेलनों, वार्षिकोत्सवों तथा कुछ पर्वों आदि को मनाता
हुआ एक संगठन ही देखते हैं। हमारा आर्यसमाज मन्दिरों से बाहर वेद-प्रचार कार्य तो प्रायः बन्द व ठप्प प्रतीत होता है।
आजकल हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज के सत्संग, वेद कथा, वार्षिकोत्सव तथा महासम्मेलनों को ही वेद-प्रचार
माना जाता है जबकि विचार करने पर हमें यह काम वेद प्रचार नहीं लगते। इन कामों में तो पुरुषार्थ एवं बड़ी मात्रा में धन का
व्यय ही दिखाई देता है। जिस आयोजन से ऋषि भक्तों की संख्या में वृद्धि न हो, जिससे नये व्यक्तियों तक वेद की ज्योति न
पहुंचे और वह ऋषि दयानन्द व वेद के चरणों में अपना सिर न झुकाये वह काम हमें वेद-प्रचार के अन्तर्गत कुछ-कुछ तो हो
सकता है परन्तु सम्पूर्ण वेद-प्रचार कदापि नहीं कहा जा सकता।
ऋषि दयानन्द के जीवन का मुख्य उद्देश्य एवं लक्ष्य वेदों का जन-जन में प्रचार तथा उनको सत्यासत्य से परिचित
कराकर सत्य को मानना-मनवाना और असत्य को छोड़ना-छुड़वाना था। आर्यसमाज उनका उत्तराधिकारी संगठन है।
परोपकारिणी सभा और आर्यसमाज दोनों ही समान रूप से ऋषि दयानन्द की बौद्धिक सम्पदा व लक्ष्यों को देश-देशान्तरों के
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लोगों द्वारा ग्रहण कराने वाले उनके उत्तराधिकारी संगठन हैं। ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” हमारा चरम लक्ष्य है। हम इस लक्ष्य
तक नहीं पहुंच पाये अर्थात् विश्व के लोगों से वैदिक विचारधारा को मनवा नहीं पाये, यह तो हम सब भलीभांति जानते हैं।
इसमें हमारा वश नहीं है। हमें देश व विश्व के प्रत्येक व्यक्ति तक वेदों की विचारधारा व सत्यासत्य को पहुंचाना था, इसमें हम
सफल नहीं हो सके, यह हमारा चिन्ता का कारण है व होना चाहिये। कर्म करना मनुष्य के हाथ में होता है और उसका फल
मिलना विधि व ईश्वर के हाथ में होता है। हम अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सके। कर्तव्य पूरा करने से हमारा अभिप्रायः है कि
हम देश व विश्व के जन-जन तक पहुंच कर ऋषि ईश्वर, वेद और ऋषि दयानन्द की विचारधारा, सिद्धान्तों एवं मान्यताओं
को नहीं पहुंचा सके। इसके प्रमुख कारणों में हमारे संगठन के दोष व हमारे लोगों की कुछ वेद विरुद्ध प्रवृत्तियां हैं। हम और कुछ
न भी करें, हम पदों व स्वार्थों से मुक्त तो रह ही सकते हैं। अच्छे व योग्य लोगों को आगे बढ़ा सकते हैं। एषणाओं से युक्त
महत्वाकांक्षी लोगों को संगठन से दूर रखकर हम संगठनात्मक रूप व निजी साधनों से आर्यसमाज को आगे बढ़ाने के लिये
अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार यथासम्भव योगदान तो कर ही सकते हैं। बहुत से लोग ऐसा कर भी रहे हैं परन्तु देश की
जनसंख्या और उसमें आर्यसमाज के अनुयायियों की संख्या पर जब दृष्टि डालते और विचार करते हैं तो हमें निराशा हाथ
लगती है और देश में वेद विरोधी प्रवृत्तियों की वृद्धि को देखकर दुःख व निराशा होती है।
हम जानते वह समझते हैं कि हमें निराश व दुःखी नहीं होना चाहिये परन्तु असफलता हमें सुखद अनुभूति कराने से
वंचित करती है। हम समझते हैं कि वर्तमान में हमारे पास वेद प्रचार के अवसर हैं। भविष्य में शायद यह अवसर भी उपलब्ध
नहीं होंगे। आर्यसमाज का प्रधान व मंत्री पद हमारी दृष्टि में कोई महत्व नहीं रखता यदि हम इसके साथ न्याय नहीं करते। हमें
यथासम्भव पद की एषणा से मुक्त होकर ऋषि दयानन्द और अन्य ऋषियों व विद्वानों के स्वप्नों व लक्ष्यों को अपना लक्ष्य
बनाना चाहिये। ऐसा करके हम अपने निकटवर्ती मित्रों, कुटुम्बियों तथा सामाजिक बन्धुओं को वेद और आर्यसमाज के सत्य
के ग्रहण व असत्य के त्याग का सन्देश तो दे ही सकते हैं। हम यह भी देखते हैं कि सत्यार्थप्रकाश का वितरण करने पर भी लोग
इसका स्वाध्याय कर लाभ नहीं उठाते और न ही अपने अविद्यायुक्त सिद्धान्तों का त्याग कर सत्य को अपनाते हैं। ऐसी
स्थिति में आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वानों को वेद प्रचार के तरीकों व विधियों से सामान्य जनों को शिक्षित, प्रशिक्षित व
प्रेरित करना चाहिये। ऐसा करने पर ही हम अपने विचारों का प्रचार व प्रसार कर पायेंगे और अपनी संख्या में भी वृद्धि कर
पायेंगे। वैदिक धर्म और आर्यसमाज चिरजीवीं हों, इसके लिये यह आवश्यक है कि हम अपने वृहद आर्य परिवार को अधिक से
अधिक बढ़ायें। ऐसा करना ही हमें वैदिक धर्म की रक्षा का पर्याय प्रतीत होता है।
हमें नगरों तक ही सिमटना नहीं है अपितु देश के गांवों में भी पहुंचना है। हम अशिक्षित व अल्पशिक्षित लोगों को यह
भी बता सकते हैं कि हम सब सदाचारी बने। स्वार्थ, मांसाहार, धूम्रपान, अण्डों आदि का सेवन न करें। स्कूली शिक्षा सहित
सत्यार्थप्रकाश और सत्यार्थप्रकाश के अनुकूल व पूरक ग्रन्थों का जीवन भर स्वाध्याय करें तो इससे हमारा, हमारे परिवार व
समाज का उत्कर्ष व उन्नति होगी। हम सरल जीवन तथा सगठन के महत्व का प्रचार करें और लोगों को आर्यसमाज से
जोड़कर उनके सुख-दुःख को बांटे व उनके सहयोगी बनें। हम आर्थिक व सामाजिक आधार पर ऋषिभक्तों से भेदभाव न करें।
हमने बहुत से मित्रों को देखा है कि जो बड़े पदों पर होने के कारण सामान्य ऋषिभक्तों से दूरी बना कर रखते हैं। यह प्रवृत्ति
उचित प्रतीत नहीं होती। हमने अनेक आर्य विद्वानों से इस सम्बन्ध में अनेक प्रेरणादायक महत्वपूर्ण घटनायें सुन रखी हैं।
एक घटना को प्रस्तुत करने का मन हो रहा है। यह घटना बहुत प्रसिद्ध है। इसमें बताते हैं कि एक कोर्ट में जज महोदय और
उनका चपरासी दोनों आर्यसमाजी थे। चपरासी प्रत्येक रविवार को अपने परिवार में सत्संग का आयोजन करता था और
सत्संग के बाद सत्संग में सम्मिलित सभी लोगों को भोजन कराता था। वह जज महोदय को भी सत्संग में आमंत्रित करता था।
जज महोदय ऋषिभक्त व सिद्धान्तों के जानकार थे। वह सत्संग में जाते और वहां सबके साथ समान रूप से बैठकर एक
सत्संगी व श्रोता की भूमिका में होते थे। भोजन के समय जज महोदय सभी सामान्य जनों को भोजन वितरण करते थे। बताते
हैं कि इस विषयक समाचार स्थानीय समाचारपत्रों में प्रकाशित हुए तो जज महोदय के मित्रों ने उनके आचरण व व्यवहार पर
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आपत्ति की। जज महोदय ने उनको उत्तर दिया कि कोर्ट में मैं जज होता हूं तथा सत्संग आयोजित कराने वाला व्यक्ति मेरा
चपरासी मेरा धर्मबन्धु व सहधमी। हम दोनों एक आचार्य के शिष्य समान धार्मिक व सामाजिक विचारों के हैं। सत्संग में हम
दोनों ऋषि दयानन्द के भक्त, दोनो आर्यसमाजी, सत्संग-प्रेमी एवं स्वधर्म-बन्धु होते हैं। मेरा धर्म व कर्तव्य अपने उस
धर्मबन्धु के घर पर सत्संग में जज, चपरासी व इतर भेदभावों के व्यवहार की अनुमति नहीं देता। इस बात को सुनकर जज
महोदय के मित्र निरुत्तर हो गये थे, ऐसा बताया जाता है। इस घटना को हमने कई बार सुना तो आत्मा में इसका अनुकूल प्रभाव
हुआ। आर्य बन्धुओं, विद्वानों, नेताओं, समाज के प्रधान व मंत्रियों व धन-सम्पन्न लोगों को इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिये।
हम ऋषि दयानन्द के अनुयायी हैं। हमें वेदों का सन्देश वा आर्य विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाना व उसे सब
मपुष्यों से मनवाना है। पं0 लेखराम एवं पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी के जीवन में हम इस भावना को उत्कृष्ट रूप में पाते हैं। हमें
इन महापुरुषों से प्रेरणा लेकर ऋषि दयानन्द की भावनाओं के अनुरुप वेद-प्रचार द्वारा अपने जीवन को सार्थक करना है।
विद्वान इस विषय में अधिक चिन्तन व विचार दे सकते हैं। हमें उनके परामर्श व मार्गदर्शन की अपेक्षा है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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