
हालांकि राहुल गांधी के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं रहने वाला। बहुमत की सरकार के अलावा अन्य क्षेत्रीय दल भी उनकी राह में कांटें बिछाने को तैयार हैं। यही राजनीति है और जो इस राजनीति की काट ढूंढ लेता है, वही सिकंदर होता है। राहुल के पास यूं तो वापसी का और नेहरू-गांधी परिवार की प्रासंगिकता बचाने का बेजोड़ मौका है मगर वे इसे कितना भुना पाते हैं, इसमें संशय है। राहुल को नजदीक से जानने वाले कहते हैं कि वे शुरुआत को बड़ी क्रांतिकारी करते हैं किन्तु वक़्त के साथ क्रांति की लौ मद्धम पड़ने लगी है और देर-सवेर वो बुझ जाती है। राहुल के तथाकथित सलाहकार उन्हें असली भारत से रूबरू होने का मौका ही नहीं देते। वे जिस चश्मे से देश के हालात दिखाते हैं, राहुल वही देखकर निर्णय ले लेते हैं। २०१२ में ब्रिटेन की द इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने राहुल की काबिलियत पर सवाल उठाते हुए उन्हें एक समस्या तक करार दे दिया था। द राहुल प्रॉब्लम शीर्षक से लिखे लेख में संसद में उनकी भागीदारी और बोलने से बचने का जिक्र करते हुए उन्हें भ्रमित व्यक्ति भी बताया गया। पत्रिका ने मनमोहन सरकार में कोई बड़ी जिम्मेदारी लेने में दिलचस्पी नहीं दिखाने की राहुल की आदत को उनकी योग्यता से जोड़ दिया था। पत्रिका का दावा था कि एक नेता के तौर पर राहुल अपनी योग्यता साबित करने में नाकाम रहे हैं। वह शर्मीले हैं और पत्रकारों व राजनीतिक विरोधियों से बात करते हुए झिझकते हैं। संसद में आवाज बुलंद करने में भी राहुल पीछे हैं। कोई नहीं जानता कि राहुल गांधी के पास क्या क्षमता है? हालांकि राहुल की योग्यता को लेकर अब भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं कि उन्होंने अभी तक यूथ विंग और विधानसभा चुनावों में ही पार्टी का नेतृत्व किया है। यही नहीं, दोनों ही मोर्चो पर उन्हें खास सफलता भी नहीं मिली है। ऐसे में अब राहुल क्या कर पाएंगे जबकि मोदी का करिश्मा और उनका जादू देश की सरहदों से पार वैश्विक स्तर तक जा पहुंचा है। अपने इर्द-गिर्द ठाकुर लाबी को रखना और उनपर हद से ज्यादा आश्रित होना ही राहुल को राजनैतिक सच्चाई से विमुख करता रहा है और राहुल को जब यह बात समझ आई तो उन्होंने समाजवादी बनने के चक्कर में पार्टी का नुकसान कर दिया। देखा जाए तो राहुल की नाकामयाबियों की फेरहिस्त में कांग्रेसियों के अनुचित बयानों से लेकर बुरे समय का योगदान अधिक रहा है लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का वारिस होने के नाते उनसे इतनी तो उम्मीद थी ही कि वे राजनीतिक समझबूझ का परिचय देते हुए परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे बढाते, मगर यहां वे असफल ही हुए। राहुल के साथ सबसे बड़ी दिक्कत उनकी वह सोच है जो भारत की अधिसंख्य जनसंख्या की सोच से मेल नहीं खाती और राहुल शायद उसी सोच को बदलने की राह पर चलने को इच्छुक हैं। किसानों के मुद्दे पर सरकार और मोदी पर हमलावर राहुल यदि लंबे समय तक यही तेवर बरक़रार रख पाते हैं तो राजनीति में बदलाव देखने को मिल सकता है वरना तो फिलहाल मोदी के मुकाबले राहुल को खड़ा होने में और अधिक समय लगेगा जो कांग्रेस के लिए और बुरा हो सकता है।