गजेंद्र सिंह
उत्तराखंड सरकार ने हाल ही में राज्य के चार ज़िलों — हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और उधम सिंह नगर — में स्थित कुल 18 स्थानों के नामों में बदलाव किया है। सरकार का कहना है कि यह नाम पहले मुस्लिम शासकों या आक्रांताओं से जुड़े थे। इस पहल को सांस्कृतिक पुनर्जागरण और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है। सरकार का तर्क है कि यह कदम राज्य की सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करने और नागरिकों में सकारात्मक भावनात्मक जुड़ाव बढ़ाने की दिशा में है। नाम परिवर्तनों की सूची में हरिद्वार जिले के औरंगजेबपुर को शिवाजी नगर, गाजीवाला को आर्य नगर, चाँदपुर को ज्योतिबा फुले नगर, महमदपुर जाट को मोहनपुर जाट, खानपुर खुर्सली को अंबेडकर नगर, इदरीसपुर को नंदपुर, कानपुर को श्रीकृष्णपुर और अख़बारपुर-फ़ज़लपुर को विजयनगर शामिल हैं। देहरादून में मियाँवाला को रामजीवाला, पीरवाला को केसरी नगर, चाँदपुर खुर्द को पृथ्वीराज नगर और अब्दुल्लापुर को दक्ष नगर का नाम दिया गया है। नैनीताल में नवाबी रोड को अटल मार्ग और पंचाकी से आईटीआई मार्ग को गुरु गोलवलकर मार्ग नाम मिला है। वहीं, उधम सिंह नगर में सुलतानपुर पट्टी का नाम बदलकर कोशल्या पुरी रखा गया है।
हालांकि सरकार द्वारा इसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है परंतु इस प्रक्रिया में उठाए गए कुछ सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन नए नामों को चुना गया है, वे अधिकांशतः उत्तराखंड की मूल सांस्कृतिक, भौगोलिक या ऐतिहासिक पहचान से नहीं जुड़े हैं। इनमें अधिकतर प्रख्यात हिन्दू, मराठी या राष्ट्रीय नेताओं और अन्य राज्यों की सांस्कृतिक हस्तियों के नाम शामिल हैं । जिनका उत्तराखंड की परंपरा और इतिहास से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। इससे स्थानीय जनता में यह भावना उभर रही है कि यह नाम परिवर्तन सांस्कृतिक पुनर्जागरण के बजाय राजनीतिक या वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की एक कवायद है।
उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध और विशिष्ट है। गढ़वाल और कुमाऊं अंचलों में अनेक लोकनायक, वीर सपूत, साहित्यकार और लोकदेवता हुए हैं जिनका इस भूमि से गहरा संबंध रहा है। उदाहरणस्वरूप, चंद्र सिंह गढ़वाली, जिन्होंने अंग्रेजों की सेना में रहते हुए गोली चलाने से इंकार कर दिया था, गब्बर सिंह नेगी, जिन्हें मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस मिला, गोविंद बल्लभ पंत, स्वतंत्रता सेनानी और भारत के पहले गृहमंत्री, सुमित्रानंदन पंत, हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवि, नैनी देवी और अनगढ़ देवता जैसे स्थानीय धार्मिक प्रतीक — ये सब उत्तराखंड की अस्मिता के वास्तविक प्रतिनिधि हैं। यदि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्देश्य स्थानीय पहचान को पुनर्स्थापित करना है, तो इन जैसे स्थानीय प्रतीकों और नायकों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण केवल नाम बदलने भर से नहीं होता. वह तब प्रभावशाली होता है जब वह लोगों की बोली, परंपराओं, लोककथाओं, पर्व-त्योहारों, और जीवनशैली से जुड़ा हो। यदि बदलाव थोपे गए प्रतीकों के माध्यम से किया जाए तो यह न केवल सांस्कृतिक अपवर्जन को जन्म देता है बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा दे सकता है, विशेष रूप से तब जब इस बदलाव में स्थानीय जनभागीदारी का अभाव हो और निर्णय एकतरफा तरीके से लिए जाएं।
इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक हो जाता है कि नाम परिवर्तन जैसी संवेदनशील प्रक्रिया जनसुनवाई, ऐतिहासिक शोध और स्थानीय सहमति पर आधारित हो। अगर सरकार वास्तव में सांस्कृतिक जागरूकता और सामाजिक एकता को बढ़ाना चाहती है, तो उसे उत्तराखंड की भूमि से जुड़े हुए नामों को प्राथमिकता देनी चाहिए। उदाहरण के लिए गाजीवाला को “गब्बर सिंह नेगी नगर”, कानपुर को “चंद्र सिंह गढ़वाली पुर” और मियाँवाला को “गोविंद बल्लभ नगर” नाम दिए जा सकते हैं। इससे न केवल क्षेत्रीय गौरव बढ़ेगा, बल्कि यह नई पीढ़ी को अपने इतिहास से जुड़ने का अवसर भी देगा।
अंततः, सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्देश्य तभी सार्थक होगा जब उसमें स्थानीयता, भागीदारी और ऐतिहासिक सच का सम्मान हो। उत्तराखंड जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राज्य के लिए यह जरूरी है कि उसकी अस्मिता बाहरी प्रतीकों के बजाय अपनी जड़ों से जुड़ी हो। सरकार को चाहिए कि वह एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाकर लोगों की भावना और सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए कोई भी परिवर्तन करे। तभी यह पहल वास्तविक सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दिशा में सार्थक सिद्ध होगी।
गजेंद्र सिंह