हिन्दुत्व की रक्षा, भाग १ – एक सन्देश

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ॐ श्रीगणेशाय नमः ।

विशेष : यह त्रिभागीय शृङ्खला का प्रथम भाग है ।

 

११ सितम्बर एक विशेष ऐतिहासिक दिन है । इस दिन एक अभूतपूर्व घटना घटी थी अमेरिका में, और विश्व में । अमेरिका की भाषा में यह तिथि ९/११ (नाइन्-एलेवन) इति नाम से कही जाती है । शायद आप इस घटना के बारे में जानते होंगे । यह बात है सन् १९८३ की । शिकागो नगर में आधुनिक विश्व की प्रथम औपचारिक सर्वधर्मीय बैठक, जो कि १७ दिन तक चली थी, का शुभारम्भ इसी दिन हुआ था । इस बैठक का नाम था, “World’s Parliament of Religions” इति, और इस में पूर्व और पश्चिम के प्रायः सभी धर्मों और सम्प्रदायों के प्रतिनिधि एक छत्र के नीचे एकत्रित हुए थे । प्रतिवर्ष यह ९/११ “विश्व बन्धुत्व दिवस” (World Brotherhood Day) के नाम से मनाया जाता है ।

इस बैठक में भारत का प्रतिनिधित्व करने गए थे स्वामी विवेकानन्द । बैठक के पहले दिन के प्रथम चरण में उनका भाषण था । वे मञ्च पर गए, और बोले, “अमेरिका के बहनों और भाइयों (sisters and brothers of America)” इति । बैठक मे प्रायः ७००० जन थे । स्वामी जी के उपर्युक्त शब्द उस विशाल भवन में जब गूँजे, तो मानो कि स्वामीजी के हृदय के भाव ने एक साथ उन ७००० जनों के हृदय का स्पर्श किया हो । फलस्वरूप सभी ने खड़े होकर २ निमेष (मिनट) पर्यन्त जम कर करताडन किया (ताली बजाई) । फिर से कह दूँ, ’७००० जनों ने’, ’खड़े होकर’, ’२ मिनट तक’, ’ताली बजाई’ ।

किसी भी प्रवक्ता का प्रवचन तभी सार्थक होता है जब श्रोता उसे उत्साहपूर्वक व कुतूहल से सुनें । उपर्युक्त शिकागो बैठक में अधिकतम श्रोता ऐसे थे जो अपने अपने धर्म सम्प्रदायों का प्रचार करने आये हुए थे । आप अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसी सर्वधर्मीय बैठक में सभी की अपेक्षा क्या होती है । मेरे मत में, ऐसे में सभी यही चाहते हैं कि एक अच्छा भाषण देकर अपने अपने धर्म का सुप्रचार करें । किसी अन्य मत के वक्ता को ऐसे में लोग दोषदृष्टि के साथ ही सुनते-देखते हैं, गुणदृष्टि के साथ नहीं । अतः भाषण का दोषरहित व परिपूर्ण होना अत्यन्त आवश्यक होता है । एक भी दोष भाषणकार के लिए बहुत महँगा सिद्ध हो सकता है । ऐसे परिसर में स्वामी विवेकानन्द, जो कि अमेरिका में ’बाहर’ से आए हुए थे, ’अन्य’ संस्कृति में पले हुए थे, ’अन्य’ मातृभाषा बोलते थे, ’अन्य’ धर्म का प्रचार करने हेतु बोलने वाले थे, के लिए श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट करना कितनी विशाल चुनौती होगी, यह विचार करने योग्य है । और वो भी तब, जब कि पूर्व कितने ही शतकों से उनके देश भारत में स्वाधीनता नहीं थी, बाह्य आक्रान्ताओं की सत्ता थी । परन्तु जो अध्यात्म से ’हिन्दू’ होता है, वह किसी भी भौतिक परिस्थिति में पराधीनता का लेश मात्र भी अनुभव नहीं करता । आत्मविश्वास सदा उसके अधीन ही होता है, जो एक वक्ता के लिए अनिवार्य गुण है ।

 

परन्तु यह अवश्य विचारणीय है, कि ’अमेरिका के बहनों और भाइयों’ इति बोले जाने से क्यूँ सभी का हृदय हरा गया । प्रायः इसलिए, क्यूँकि यही सत्य है कि ईश्वर की बनाई इस संसार नामक व्यवस्था में हम सब वस्तुतः बन्धुजन ही हैं ? क्या ये ’वसुधैव कुटुम्बकम्’ इति सूत्र का स्पष्ट उदाहरण या व्यवहार तो नहीं था ? एक कुटुम्ब क्या केवल रक्त के सम्बन्ध से ही कुटुम्ब होता है, या अपनेपन की अनुभूति से ? और यदि अपनेपन की अनुभूति ही अनिवार्य है, तो यही तो स्वमीजी ने ७००० श्रोताओं को एक साथ करा दी थी ! “मेरे भाइयों और बहनों, मैं तुम्हीं में से एक हूँ” इति सन्देश सम्यक् ही देकर अपने श्रोताओं की उत्सुकता और कुतूहल उन्होंने एक पल में ही उजागर कर दिए थे !

आप कल्पना कीजिए, यदि स्वामीजी सभी को “लेडीज़ एण्ड जेण्टलमैन्” इति कह कर सम्बोधित करते । फिर कहते कि केवल हमारा हिन्दुधर्म “वसुधैव कुटुम्बकम्” इति मत को मानता है, जो कि श्रेष्ठ मत है । इसलिए आप इसे अपनाइए । क्या प्रभाव होता श्रोताओं पर ? क्या इस विधि से कभी हम किसी को भी धर्म का पाठ पढ़ा सकते हैं ? अब हम में से जो भी हिन्दू होने का गर्व करता है, वह भी सोच कर देखे, कि क्या वह वस्तुतः ’वसुधैव कुटुम्बकम्’ इति सूत्र को अपना व्यवहार बना चुका है, या केवल इस सूत्र को रटने पर गर्व करता है ?

 

विज्ञान के किसी भी विषय को सीखने के लिए सर्वप्रथम उसके सिद्धान्त (थियोरी) पढ़े जाते हैं । परन्तु विषय आत्मसात् तब तक नहीं होता जब तक पढ़े गए सिद्धान्तों को व्यवहार में नहीं लाया जाता (’प्रैक्टिकल’ नहीं किया जाता) । तो समझ लीजिए कि हिन्दुशास्त्र “वसुधैव कुटुम्बकम्” इति जो सिद्धान्त हमें पढ़ाते हैं, उसी सिद्धान्त का व्यवहार (प्रैक्टिकल) स्वामीजी ने विश्व को कर के दिखाया । क्यूँकि भाइयों और बहनों, हिन्दुशास्त्र के सिद्धान्तों को सिद्धान्त रूप में यह विश्व स्वीकार करे न करे, उन सिद्धान्तों के व्यावहारिक प्रमाण को नकार पाने की क्षमता किसी में नहीं है । क्यूँकि ये सिद्धान्त सत्य हैं, और सत्य का न तो निर्माण किया जा सकता है, और न ही नाश । सत्य तो वह है, जो है । और क्यूँकि ये सिद्धान्त सत्य हैं, इसीलिए ये हिन्दुशास्त्रों में पाए जाते हैं । हिन्दुशास्त्रों में पाए जाने के कारण इनका सत्यत्व नहीं है, वरन् इनके सत्यत्व के कारण ही ये हिन्दुशास्त्रों में पाए जाते हैं ।

 

२ निमेष के करताडन के बाद स्वामीजी नें अपने श्रोताओं को वेदान्त दर्शन के मुख्य सिद्धान्त भी पढ़ाए । क्या है हिन्दुधर्म, इससे विश्व को अवगत कराया । बैथक के अन्तिम दिन के भाषण में उन्होंने सबको कहा, “मैं तुम्हारा धर्मान्तरण कराने नहीं आया हूँ । मैं एक मैथोडिस्ट को उत्तम मैथोडिस्ट, प्रैस्बैटेरियन को उत्तम प्रैस्बैटेरियन और यूनिटेरियन को उत्तम यूनिटेरियन बनाना चाहता हूँ” इति (मैथोडिस्ट, प्रैस्बैटेरियन और यूनिटेरियन ईसाई धर्म के अनेक सम्प्रदायों में से कुछ हैं) । इसके बाद अगले ४ वर्षों में स्वामीजी ने अमेरिका, इङ्ग्लैण्ड् और अन्य यूरोप् के बहुत से नगरों में जाकर हिन्दुधर्म का प्रचार किया और विश्व में हिन्दुधर्म को एक मुख्य धर्म के रूप में स्थान प्राप्त कराया ।

 

स्वामीजी स्वयं को “घनीभूत भारत” (condensed India) बताते थे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्मज्ञान से अधिक महत्त्व धर्मकर्म को दिया था । यही उनकी विशेषता भी थी । नोबल् पुरस्कार विजेता श्रीरवीन्द्रनाथ टैगोर् ने एक अन्य नोबल् पुरस्कार विजेता रोमेन् रोलैण्ड् को कहा था, “यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकनन्द को पढ़िए । उनमें सब कुछ सकारात्मक है, और कुछ भी नकारात्मक नहीं है” इति ।

 

अपने इस लेख के माध्यम से मैं अपने हिन्दू भाइयों और बहनों को यही सन्देश देना चाहता हूँ कि –

 

“हिन्दुत्व की रक्षा करने के लिए यह ‘अनिवार्य’ है कि हमें अपने वैभवशाली अतीत पर गर्व हो, पर यह ‘पर्याप्त’ नहीं है । यदि हम हिन्दुत्व के ज्ञान को अपना ’व्यवहार’ नहीं बना सके, तो हम अवश्य ही अपने लक्ष्य से चूक जाएँगे । और यदि हिन्दुत्व हमारा व्यवहार बन गया, तो स्वतः ही उसकी रक्षा हो जाएगी । इस प्रकार अपनी मानसिकता को परिवर्तित करके जब हम आगे बढते हैं, तो हमें समस्याएँ वही दिखाई देती हैं जो पहले भी दिखती थीं, परन्तु समाधान अन्य दिखाई देने लगते हैं । उन समाधानों में ’धर्म’ की रक्षा स्वतः हो जाती है ।”

 

एक सुभाषित को उद्धृत करके मैं लेख के प्रथम भाग का समापन करता हूँ –

 

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः

यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।

सुचिन्तितं चौषधमातुराणां

न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥

 

तात्पर्य – उत्तम पढ़ाई लिखाई करने के बाद भी बहुत से जन अपने व्यवहार से मूर्ख ही लगते हैं । विद्वान् तो वह है जिसके व्यवहार में, कर्म में गुण दिखाई देते हैं । ऐसे विद्वान् जन सर्वत्र सम्मानित होते हैं । विद्वत्ता व्यवहार पर निर्भर करती है, मात्र पढ़ाई लिखाई पर नहीं । ये वैसे ही है, जैसे कि केवल एक अच्छे चिकित्सक से अच्छी औषधि लिखवाने मात्र से ही रोगी स्वस्थ नहीं हो जाते, स्वस्थ होने के लिए उन्हें औषधि का सेवन भी करना होता है ।

 

सन्दर्भ –

१. www.wikipedia.com

२. सुभाषित संस्कृत भारती के दूरस्थ शिक्षण पाठ्यक्रम की एक पुस्तक से लिया है ।

मानव गर्ग

 

 

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मानव गर्ग
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नवदेहली से विद्युत् अभियन्त्रणा विषय में सन् २००४ में स्नातक हुआ । २००८ में इसी विषय में अमेरिकादेसथ कोलोराडो विश्वविद्यालय, बोल्डर से master's प्रशस्तिपत्र प्राप्त किया । पश्चात् ५ वर्षपर्यन्त Broadcom Corporation नामक संस्था के लिए, digital communications and signal processing क्षेत्र में कार्य किया । वेशेषतः ethernet के लिए chip design and development क्षेत्र में कार्य किया । गत २ वर्षों से संस्कृत भारती संस्था के साथ भी काम किया । संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन के साथ साथ क्षेत्रीय सञ्चालक के रूप में संस्कृत के लिए प्रचार, कार्यविस्तार व कार्यकर्ता निर्माण में भी योगदान देने का सौभाग्य प्राप्त किया । अक्टूबर २०१४ में पुनः भारत लौट आया । दश में चल रही भिन्न भिन्न समस्याओं व उनके परिहार के विषय में अपने कुछ विचारों को लेख-बद्ध करने के प्रयोजन से ६ मास का अवकाश स्वीकार किया है । प्रथम लेख गो-संरक्षण के विषय में लिखा है ।

8 COMMENTS

  1. विशेष : माननीय डा. मधुसूदन झवेरी जी ने लेख में एक लेखनदोष (typo) दर्शाया है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ । शिकागो सर्वधर्मीय बैठक, जिसका इस लेख में उल्लेख है, वह सन् १८९३ में हुई थी, १९८३ में नहीं । लेखनदोष के लिए सभी पाठकों से क्षमायाचना करता हूँ ।

    धन्यवाद,
    मानव ।

  2. यह भारत का दुर्भाग्य हैं के स्वतन्त्रता के पश्चात सत्ता उन लोगो के हाथ में आई जिनका स्वतन्त्रता प्राप्त करने में कोई विशेष योगदान नहीं था। शासक पार्टी में ज्यादातर ऐसे लोग थे जिन्हो ने हिन्दुओ , हिन्दू नेताओ और संतो की अवहेलना ही नहीं की बल्कि उन्हें साम्प्रदायिक कह कर भी निँदा भी की। और उनमे से कई लोगो पर कई प्रकार के आरोप भी लगाये और कुछ संतो को तो जेल में डाल दिया। स्वामी विवेकानंद ने विश्व में हिन्दू धरम को सम्मान दिलाया था और हिन्दू धर्म को गैर हिन्दुओ से एक प्रमुख धरम भी स्वीकार करवाया था। स्वतंत्र भारत की सरकार ने कभी भी स्वामी विवेकानंद को कभी कोई सम्मान नहीं दिया। स्वतंत्र भारत की सरकार ने गैर हिन्दुओ को बहुत ज्यादा सुबिधाये और अनुदान दिए जो हिन्दुओ को भी उपलब्ध नहीं हैं. सरकार द्वारा हिन्दू संतो और नेताओ की अवहेलना का परिणाम यह हुआ के हिन्दू विरोधी नेताओ और धर्मो ने स्वामी विवेकानंद के ज्ञान और भाषणो पर अपना अधिकार ज़माना आरम्भ कर दिया हैं। राजीव मल्होत्रा जी ने अपने कई लेखो, भाषणो और पुस्तको में यह बात स्पष्ट की हैं कई बातो पर जो स्वामी विवेकानद जी ने कही थी , उन बातो पर कई अमेरिकन लोगो ने कहना आरम्भ कर दिया के यह बाते उन लोगो की मोलिक खोज हैं। सोनिआ गांधी और राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी को ईशाई और मुसलमानो के हितो की पार्टी बना दिया। हिन्दू लोग भारत राष्ट्र की एक प्रकार से रीड की हड्डी हैं जिसका कांग्रेस पार्टी ने मजाक उड़ाया , हिन्दुओ को तंग किया , हिन्दुओ को निरुत्साहित किया। हिन्दुओ की आवाज को कुंठित किया। कांग्रेस पार्टी के शाशन काल के दौरान हिन्दुओ को इतना नीचा दिखाया गया के समाजवादी लोग , मुस्लिम , ईशाई , कम्युनिस्ट और धरम निरपेक्ष लोग हिन्दुओ की दृष्टि में एक नीच और घटिया शब्द बन गया हैं यह लोग हिन्दुओ को एक नीच प्रकार का जानवर या नीच व्यक्ति समझते हैं। हिन्दुओ को ज़ोर देकर अपने अधिकारों का प्रयोग करके हिन्दुओ के सपूतो को जो योद्धा , कुशल प्रशासक , संत हो , उनका और उनके कार्या का प्रचार करना चाहिए।

    • माननीय मोहन जी,

      टिप्पणी के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करने के लिए आपको बहुत धन्यवाद । आपने अपनी टिप्पणी में एक महान् समस्या का वर्णन किया है । अन्तिम पङ्क्ति में समाधानरूपी कुछ विचार भी प्रकट किया है । मैं इस पर केवल यही कहूँगा, कि हमारा समाधान और हमारे कर्म “धर्म” पर या “हिन्दुधर्म” पर आधारित हों, ऐसा आवश्यक है । अन्यथा यदि जिस धर्म की रक्षा करने के लिए हम ही उसका उल्लङ्घन कर दें, तो इसे हमारा अज्ञान ही कहा जाएगा । जिस हिन्दुधर्म की हमें रक्षा करनी है, उसे अपने व्यवहार में लाने का प्रयास सर्वप्रथम अनिवार्य है ।

      सादरं,
      भवदीय मानव ।

      • “जिस हिन्दुधर्म की हमें रक्षा करनी है, उसे अपने व्यवहार में लाने का प्रयास सर्वप्रथम अनिवार्य है।”

        औपचारिकता को क्षण भर एक ओर रख मैं पहले नाम से संबोधित कर तुम्हें मानव कहूँगा क्योकि बार बार पढ़ते उपरोक्त कहे शब्दों ने अकस्मात् मेरे मन में तुम्हारे लिए आत्मीयता का भाव उत्पन्न कर दिया है। मानव, तुमने सहज एक ही वाक्य में जैसे हिन्दू धर्म की स्वतः-प्रवृत्त रक्षा का मन्त्र ही बना डाला है। बारीकी से देखें तो सामूहिक तौर से हिन्दुओं द्वारा हिन्दू धर्म को दैनिक व्यवहार में लाना स्वयं अपने में हिन्दू धर्म की रक्षा ही है। विस्तीर्णता से देखें तो ऐसे अन्तर्निहित धर्मनिरपेक्ष व्यवहार से प्रभावित सामान्य सामाजिक वातावरण में भारतीयों का आचरण हिंदुत्व का प्रतीक है।

        अभी तो विद्वान लेखकों/पाठकों की टिप्पणियों पर तुम्हारी प्रतिक्रिया देख पाया हूँ, समय मिलते प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत निबंधों को पढ़ तुम्हारे परिपक्व विचारों का आनंद लेने अवश्य लौटूँगा

        • आदर्णीय इंसान जी,

          भगवान् करें, जन जन में ऐसी आत्मीयता का भाव उत्पन्न हो !

          टिप्पणी के लिए धन्यवाद । पढ़ कर बहुत आनन्द आया ।

          “तुमने सहज एक ही वाक्य में जैसे हिन्दू धर्म की स्वतः-प्रवृत्त रक्षा का मन्त्र ही बना डाला है।”

          जी हाँ, आपने ठीक ही समझा, मेरे मत में ’केवल’ यही हिन्दुधर्म की रक्षा का मूल है । पर जहाँ तक सवाल यह वाक्य रचने का है, तो वह काम तो केवल हरि ही करते हैं । मेरा सौभाग्य है कि उन्होंने मेरे माध्यम से ऐसा किया !

          आशा है कि पूरा लेख पढ़ने का समय आपको मिलेगा ।

          भवदीय मानव ।

  3. सही सही बिन्दुओं को द्योतित करता हुआ आलेख।
    २रे भाग की प्रतीक्षा रहेगी।

    (१) स्वामी जी के प्रखर प्रभाव का ही फल है, कि, हम भारतीयों को इस अमरिका में आज भी आदर से देखा जाता है। यह बात वैसे पढे लिखे अमरिकनों से मुझे बार बार अनुभूत हुयी है।व्याख्यान के लिए आमंत्रित होता रहता हूँ।

    (२)अभी एक दशक पहले ही, एक महिला Eleanor Starr ने, “An unopened Gift” नामक पुस्तक प्रकाशित की है। उस के नाम का तात्पर्य है, कि अमरिका को विवेकानन्द जी एक भेंट देकर गए थे, पर अमरिका ने आज तक उस उपहार को किसी कोने में रख छोडा है। खोला तक नहीं। आवरण चढा यह उपहार कहीं कोने में पडा है।

    (3)१२२ वर्षों के पश्चात, आज तक जिस महान भारत पुत्र ने, यह चमत्कार किया, उसका स्मरण मात्र आपका दिन उज्ज्वल कर देता है।
    Thoughts Of Power नामक छोटी पुस्तिका का एक विचार आज भी मुझे उत्साह से भर देता है।
    (४)कहाँ १८९३ और कहाँ २०१५? यदि नरेंद्र-(विवेकानन्द) ना होते, तो मैं साहस से कहता हूँ, माधव सदाशिव गोलवलकर ना होते, आज का “नरेंद्र” ना होता।
    इतिहास में महापुरुषों की छाया शतकों तक पडती रहती है।
    हिन्दुत्व भी सनातन इसी लिए हैं, अन्य बिन्दु भी अच्छे उठाए,और बिकसाए हैं।

    मानव गर्ग जी, को लेखन हेतु बधाई।
    इसी प्रकार आगे बढकर लिखते रहें।

    शुभेच्छाएँ।
    डॉ. मधुसूदन

    • माननीय मधु जी,

      टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । “—————-” के विषय में जान कर अच्छा लगा । यह पुस्तक भारत में उपलब्ध नहीं है, परन्तु अमेरिका में मुझे मिल गई । मैंने क्रय करके अमेरिका में एक मित्र के घर भिजवा दी है । जब वह भारत आएगा, तब साथ लेता आएगा ।

      मोदी जी में मुझे भी स्वामी जी की झलक आती है । और इस अनुभूति से बड़ा हर्ष प्राप्त होता है । गोलवलकर जी के विषय में भी आपसे यह सुन कर अच्छा लगा ।

      स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अपने जीवन का आदर्श व व्यवहार बनाने की आवश्यकता है । भारत में भी ऐसा कर चुके ’हिन्दू’ अल्पसङ्ख्यक ही हैं ।

      भवदीय मानव ।

    • माननीय मधु जी,

      टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । “The Gift Unopened: A New American Revolution” के विषय में जान कर अच्छा लगा । यह पुस्तक भारत में उपलब्ध नहीं है, परन्तु अमेरिका में मुझे मिल गई । मैंने क्रय करके अमेरिका में एक मित्र के घर भिजवा दी है । जब वह भारत आएगा, तब साथ लेता आएगा ।

      मोदी जी में मुझे भी स्वामी जी की झलक आती है । और इस अनुभूति से बड़ा हर्ष प्राप्त होता है । गोलवलकर जी के विषय में भी आपसे यह सुन कर अच्छा लगा ।

      स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अपने जीवन का आदर्श व व्यवहार बनाने की आवश्यकता है । भारत में भी ऐसा कर चुके ’हिन्दू’ अल्पसङ्ख्यक ही हैं ।

      भवदीय मानव ।

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