एफडीआई के दूरगामी परिणाम बेहद घातक

बीपी गौतम

विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (एफडीआई) देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है, लेकिन आम आदमी एफडीआई के बारे में इतना सब होने के बाद भी कुछ ख़ास नहीं जानता। असलियत में एफडीआई को लेकर आज जो कुछ हो रहा है, उसकी नींव वर्ष 1991 में ही रख दी गई थी। विदेशी निवेश की नीतियों को उदार बनाने की दृष्टि से वर्ष 1991 में ही एफडीआई की नींव रखी गई थी, जिसका पूरा असर आम आदमी को आज दिखाई दे रहा है और अब जो हो रहा है, उसका असर ऐसे ही कई वर्षों बाद नज़र आएगा। अगर, सामने दुष्परिणाम आये, तो उस समय भारत के पास करने को कुछ नहीं होगा, क्योंकि विदेशी कंपनियों के पास संसद की मंजूरी क़ानून के रूप में पहले से ही होगी।

अब सवाल उठता है कि आने वाले समय में भारत के लिए एफडीआई के क्या नुकसान हो सकते हैं?, तो सीधा सा जवाब है कि लाभ में बेचने वाला ही होता है, खरीदने वाला कभी नहीं होता। विदेश से वस्तु के बदले वस्तु आती, तो भारत की जनता को बराबर का लाभ होता, लेकिन दुकान, दुकानदार और दुकान में बिकने वाला सामान सब विदेशी ही होगा। दुकानदार (संबंधित कंपनी) की मर्जी का ही होगा, तो भारतीयों की मेहनत की कमाई उसी की जेब में जायेगी। उस के पैसे का टर्न ओवर सही से होता रहेगा, तो भारतीय अर्थव्यवस्था दौड़ती नज़र आयेगी, लेकिन संबंधित कंपनी अपना टर्न ओवर कम या बंद कर देगी, तो भारतीय अर्थव्यवस्था उसी गति से ऊपर-नीचे होती रहेगी, मतलब भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी विदेशी कंपनीयां बनने जा रही हैं। जिस देश की अर्थव्यवस्था विदेशियों के हाथ में चली जायेगी, वो देश दिखने में भले ही खुशहाल नज़र आये, पर वास्तव में खोखला ही होगा।

विश्व की अर्थव्यवस्था वर्ष 2008 में चरमराई, तब भारत उतना ही प्रभावित हुआ, जितना भारत में निवेश कर चुकी विदेशी कंपनीयां प्रभावित हुई थीं, इससे सबक लेकर भारत सरकार को विदेशी निवेश और कम करना चाहिए था, लेकिन भारत सरकार ने 14 दिसंबर 2012 को खुदरा क्षेत्र में सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष निवेश की छूट प्रदान कर दी, इसके बाद 5 अक्टूबर 2012 को बीमा क्षेत्र में भी 49 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दे दी, जिसका दुष्परिणाम सामने आ ही गया है। अब विदेशी कंपनीयां कृषि, खनन, खुदरा व्यापार और अन्य विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सौ प्रतिशत तक प्रत्यक्ष निवेश कर सकती हैं। रीयल स्टेट, वायदा वस्तु निगम, केबल टीवी नेटवर्क, नागरिक उड्डयन और बिजली क्षेत्र में 49 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रावधान है। टीवी चैनल, सूचना प्रसारण और निजी बैंकिंग क्षेत्र में 74 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष निवेश किया जा सकता है। रक्षा और प्रिंट मीडिया क्षेत्र में 26 प्रतिशत तक, डीटीएच, एफएम, रेडियो और सार्वजनिक बैंकिंग क्षेत्र में 20 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश किया जा सकता है। विदेशी निवेश के लिए खोले जा रहे सभी क्षेत्र ऐसे हैं, जिनसे भारत के आम लोग सीधे प्रभावित होंगे, साथ ही कृषि और मीडिया क्षेत्र में विदेशी निवेश होने से देश पर अपरोक्ष रूप से विदेशी पूरी तरह हावी हो जायेंगे। विदेशी कंपनीयां पूरी तैयारी के साथ आ रही हैं, उनके पास पर्याप्त धन है, पर्याप्त संसाधन हैं, जिससे वह बाजार पर पूरी तरह छा जायेंगी, जबकि देश के व्यापारी जैसे-तैसे उत्पादन कर पाते हैं, उनके पास न पर्याप्त धन है और न ही पर्याप्त संसाधन। विदेशी गाँव-गाँव उत्पाद पहुंचाने में समर्थ हैं, उनके उत्पाद सामने होते हैं, तो ग्राहक उन्हें ही खरीदने को मजबूर भी हो जाता है और धीरे-धीरे देशी उत्पाद बाजार से पूरी तरह गायब ही हो जाते हैं। कई उत्पादों के साथ ऐसा हो भी चुका है, इसलिए भविष्य में भी ऐसा ही होने की संभावनाएं अधिक हैं।

इसके अलावा भारत में निवेश करने वाले प्रमुख देशों में मारिशस, सिंगापुर, अमेरिका, इंग्लैण्ड, नीदरलैंड, जापान, साईप्रस, जर्मनी, फ़्रांस और संयुक्त अरब अमीरात वगैरह से भारत को कुछ न कुछ लाभ फिर भी होगा, लेकिन पड़ोसी देश चीन भारत के बाजार में अधिकांशतः अपने उत्पाद ही उतारेगा, जिससे भारत को साफ़ तौर पर नुकसान ही है। सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए, तो चीन भारत का दुश्मन देश भी है, जो भारत का धन भारत के विरुद्ध ही उपयोग करेगा, ऐसे में भारत को ऐसी नीति बनानी चाहिए, जिससे चीन की आर्थिक स्थिति खराब हो, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी भारत चीन को आर्थिक रूप से संपन्न होने में मदद कर रहा है, जिसका दुष्परिणाम सीमा पर स्पष्ट पड़ेगा। कुल मिला कर आने वाले वर्षों में भारत की अर्थ व्यवस्था विदेशियों के हाथों में ही होगी, इसलिए भारत की दृष्टि से एफडीआई नुकसान देह ही है।

8 COMMENTS

  1. आज जब यह आलेख फेसबुक के सौजन्य से फिर सामने आ गया है,तो क्या मैं पूछ सकता हूँ की आज प्रवक्ता.कॉम या टिपण्णी कारों का इसके बारे में क्या विचार है?

  2. srkar ke eemandar hue bina na deshi aur na hi videshi vyapari koee jnta ki khal utare bina nhi rhega. aur government eemandar tb bnegi jb jnta eemandari se merrit pr adhik snkhya me vote krne jayegi aur sath hi right to recall qanoon ki mang poori karalegi.

  3. विभिन टिप्पणियों से यही जाहिर होता है कि हमलोग बहुत डरे हुए हैं।अगर इक्कीसवीं शताब्दी में भी हमलोग सतरहवीं शताब्दी की मानसिकता के साथ जी रहे हैं,तो इस मानसिकता का ईलाज किसी दवा या इलाज की पद्धति में नहीं है।अब तो शायद विदेशी कंपनियों के आने में कोई रूकावट भी नहीं है,अतः इसको झेलना ही पडेगा।मेरा दावा यह भी है कि आज चाहे बीजेपी कुछ भी कहे पर शासन में आने के बाद वह भी इन विदेशी कंपनियों को नहीं भगा पायेगा।यह अवश्य है कि केजरीवाल की पार्टी के घोषणा पत्र में साफ़ साफ़ कहा गया है कि इस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार केंद्र सरकार को है ही नहीं।यह तो हर इलाके की जनता तय करेगी किउसके इलाके में वालमार्ट आये या नहीं।

  4. .
    पॉलिटिक्स अमंग नेशंस —मॉर्गन थाउ, लिखित पुस्तक का भी ऐसा ही निष्कर्ष है.

    (१)साम्राज्यवादी सत्ताएं, आर्थिक,और सांस्कृतिक तरीकों से शोषण करती है.
    (२) “अंग्रेजी” का प्रचार सांस्कृतिक साम्राज्यवाद है, और “एफ डि आय” आर्थिक साम्राज्य वाद की अभिव्यक्ति है. परदेश प्रभावित नेतृत्व, तो देश को बेच कर खा जा सकता है|
    (३) ध्यान रहे. साम्राज्य वादी सत्ताएं दूसरे राष्ट्रों की संपत्ति भी आकर्षित ही करती है.

    ===>*यह पारदर्शक सत्य जब समझ आने लगता है, तब तक बड़ी देर हो जाती है.

    आपने नींद में मर जाने वालों की घटनाएं सूनी होंगी.
    सोते रहो मेरे बंधुओं,
    नींद में मरना कष्ट रहित होता है.
    ===> कुछ पढ़त मूर्खों को यह समझ में भी नहीं आता!

    इसे छद्म (छुपा) साम्राज्य वाद कहा जाता है.
    कुछ पॉलिटिक्स अमंग नेशंस पढो, यदि मस्तिष्क में आलू भरे नहीं होंगे, तो समझ में आ जाएगा.

    • डॉक्टर मधुसूदनआज जब नमो सरकार हाथ जोड़कर विदेशियों से भारत में पूँजी लगाने के लिए आग्रह कर रही है,तब भी आप यही कहेंगे?

  5. गौतम जी सबसे खतरनाक बात तो यह है कि विदेशी कम्पनियों द्वारा भारत के बाजार पर कब्जा हो जाने के बाद सामान की कीमत १-२ साल में इतनी अधिक बढ़ा दी जायेगी कि आम आदमी उसे खरीद नहीं सकेगा. मजबूरन करोड़ों लोग भूख से बिलखने, मरने को मजबूर हो जायेंगे. इन कंपनियों के अपने देश में इनके कारण हज़ारों- हज़ार परचून दुकानदार उजड़ चुके हैं. फिर भारत की तो बात ही क्या. उम्मीद है कि लोग धीरे-धीरे समझ रहे होंगे कि इस देश को बरबाद करने वाले हर पग के पीछे सोनिया सरकार ही है. अब तो हर सीमा का अतिक्रमण होता जा रहा है. पर भारत के लोगों का धैर्य अविश्वसनीय है. फिर भी हर बात की एक सीमा होती है. एक दिन तो यह अन्याय का राज्य जन रोष के सैलाब में तिनके की तरह बहता नज़र आयेगा. १८५७ तथा १९४७ इसी देश में हुआ था. जबकि निराशावादी लोग तब भी कहते थे कि कुछ नहीं हो सकता. पर हुआ और बहुत कुछ हुआ. आज भी ………………

  6. मैंने अपनी पहली टिप्पणी में एक प्रश्न पूछा था,पर मुझे उत्तर नहीं मिला.अब तो ऍफ़ डी आई लाने का विधेयक पारित हो चुका है,अतः गलत या सही इसे स्वीकारना तो पडेगा ही. इसके पहले मैंने एक लेख “नैतिक तकाजों से परे एफडीआई का मुद्दा” पर अपनी टिप्पणी दी थी .मैं समझता हूँ कि उसकी यहाँ पुनरावृति शायद यहाँ अप्रासंगिक न हो..
    “कहा जाता है कि उपभोक्ता सर्विपरी है,पर यहाँ हर तरह के विवाद तो हो रहें हैं,पर उन विवादों में उपभोक्ता कहीं नहीं है.आज आम उपभोक्ता की क्या हस्ती है?उसे आधे से अधिक दूध मिलावट के साथ मिलता है यह मिलावट केवल गंदे पानी का मिलावट नहीं है.दूध भी नकली बनाया जाता है.जीवन रक्षक दवाईयां नकली होती हैं.डीजल में केरोसीन की मिलावट तो आम बात है.मसाले में घोड़े की लीद,चाय में चमड़े का टूकडा, थोक बाजार पर चन्द लोगों का आधिपत्य.क्या बहस के दौरान किसी कभी ध्यान इस तरफ गया है? मैंने बार बार लिखा है कि हमारे ईमानदार छोटे व्यापारी का ओवरहेड इतना कम है कि उसकी प्रतिस्प्रधा में ये बड़े खुदरा व्यापारी टीक ही नहीं सकते.आफत है उन व्यापारियों की जो राजनेताओं और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के बल पर हर तरह की मिलावट और मुनाफाखोरी करके भी बाजार में कायम हैं. महात्मा गाँधी के समय के स्वदेशी आन्दोलन की दुहाई आज शोभा नहीं देता और न ईस्ट इंडिया कंपनी का उदाहरण ,क्योंकि आज की परिस्थिति और उस समय की परिस्थिति में जमीन आसमान का अंतर है.उस समय शायद टाटा को भी संरक्षण की आवश्यकता थी,जबकि आज उसने यूरोप के एक बड़े स्टील कंपनी के साथ लक्जरी कार निर्माण का अंगरेजी कारखाना भी खरीद लिया है.चूंकि उपभोक्ता की अपनी आवाज नहीं है,अतः सबका ध्यान संगठित व्यापारी वर्ग के घाटे पर है,क्योंकि आखिर पैसा तो वहीं से आता है. है.फिर जो जितना बड़ा बेईमान उतना ही बड़ा चढ़ावा.”

  7. केवल एक प्रश्न .क्या आप भारत के १९९१ के पहले के विकास से संतुष्ट थे?

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