प्रमोद भार्गव
छोटे पर्दे पर एक बार फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव के सिलसिले में सर्वेक्षणों की बाढ़ आई हुई है। आम आदमी पार्टी की ज्यादातर जनमत सर्वेक्षणों में बढ़त दिखाए जाने के कारण भाजपा नेताओं की भवें तन गईं हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की एक चुनावी सभा में नाराजी जताते हुए कह भी दिया,ये सर्वे बाजारू हैं,ढकोसला हैं। यह सही है कि सर्वे मोटी धन राशि खर्च करके कराए जाते हैं और टीवी चैनल टीआरपी बटोरने के लिए इन्हें मतदान के ठीक पहले तक दिखाते रहते हैं। लेकिन जो मोदी बाजार को बढ़ावा देने के लिए कमर कसे हुए हैं,उनके श्रीमुख से सर्वेक्षणों को बाजारु कहना सुहाता नहीं है ? क्योंकि बाजार तो है ही मायावी। तमाम भ्रमों का जाल रचकर ही वह जनमानस में अपनी पैठ बनाता है। अब यदि चैनल बाजार में अपनी साख बनाए रखने के लिए सर्वेक्षण का मायाजाल रच रहे हैं तो इस पर ऐतराज क्यों ? भाजपा और मोदी को सर्वेक्षणों को उसी सहजता से स्वीकारने की जरूरत है,जिन्हें उन्होंने उत्साह के साथ आम चुनाव में मंजूर किया था।
जनमत सर्वेक्षण,मसलन ‘ओपीनियन पोल‘ मतदान पूर्व मतदाता की मंशा टटोलने की कोशिश हैं। इसलिए इनको लेकर यह शंका वाजिब है कि ये ‘पेड ओपीनियन पोल‘ यानी शुल्क चुकाकर प्रयोजित कराए जा सकते हैं,क्योंकि ये प्रसारित व प्रकाषित होने के बाद अनिश्चय की स्थिति के मूड से गुजर रहे मतदाता का रूख बदलने का एक हद तक काम करते हैं। वैसे तो आजकल चुनावी सर्वे क्या कई समाचार माध्यम ही ऐसे लगने लगे है,,जिनकी प्रस्तुति में दल विशेष की पैरवी साफ झलकती है। गोया,जब समाचार का मूल स्रोत ही निष्पक्ष नहीं रह गया है तो बाजारवाद की होड़ में सर्वे एजेंसियों से निष्पक्षता और ईमानदारी की उम्मीद करना ही बेमानी है। देश में सभी भाषाओं के करीब 500 टीवी चैनल हैं और इनमें से ज्यादातर घाटे में चल रहे हैं। इस घाटापूर्ति के दो ही माध्यम हैं,सरकारी विज्ञापन और औद्योगिक घरानों की मेहरबानी। इन दो माध्यमों ने ही मीडिया को इकतरफा बनाने का काम किया है। इसलिए माया की महीमा तो कायम रहेगी ही।
बावजूद सर्वे की पद्धति या तकनीक जुदा हो सकती है,लेकिन सर्वे तथ्य नहीं पकड़ पा रहे अथवा मतदाता की मंशा नहीं भांप पा रहे, इसे सर्वथा नकारना गलत होगा। 70 विधानसभा सीटों वाली दिल्ली में 1 करोड़ 30 लाख मतदाता हैं। यहां सभी जातियों,धर्मों और आमदानी के निम्न से लेकर उच्च आय वर्ग तक जितने भी स्तर हैं,सभी श्रेणी के लोग निवास करते हैं। इस लिहाज से यहां के मतदाता का मन भांपना या उसकी इच्छा का एकदम अनुमान लगाना मुश्किल काम है। इसीलिए चैनलों पर जो सर्वे आए हैं,उनमें जबरदस्त अंतरविरोध है। इसी वजह से उन्हें अवैज्ञानिक व ढकोसला कहा जा रहा है।
आईबीएन-7 और डाटामाइनेरिया का सर्वे भाजपा को 36,आप को 27,और कांग्रेस को 7 सीटें दे रहा है। आजतक एवं सिसोरे का भाजपा को 19-20,आप को 38-46 और कांग्रेस को 4 सीटें दे रहा है। एबीपी और नीलसन का भाजपा को 29,आप को 25 और कांग्रेस को 6 सीटें दे रहा है। जीन्यूस और तालीम का भाजपा को 32 आप को 34 और कांग्रेस को 4 सीटें दे रहा है। द वीक और आईएमआरबी का भाजपा को 36,आप को 29 और कांग्रेस को 4 सीटें दे रहा है। इन पांचों सर्वेक्षणों में इतना विरोधाभास है कि वे किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। इतना जरूर है कि कांग्रेस को सबने 4 से 6 से सीटों के बीच समेट दिया है। क्षेत्रीय दल और बसपा व वामदलों का किसी सर्वे में उल्लेख नहीं है। इससे यह संदेश साफ है कि ये दल दिल्ली के चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में असफल रहे हैं,मसलन अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। लेकिन यही वह गूढ़ रहस्य है,जो आप की बढ़त की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है।
इसे ठीक से रेखांकित आजतक ने किया भी है। इसमें सर्वे का आधार आर्थिक पक्ष बनाया गया है। यानी बाजार और उपभोक्ता को रेखांकित करके यह सर्वे लीक से हटकर किया गया है। सर्वे में आर्थिक पहलू से जुड़े जितने भी बिंदुओं को लिया गया है,उनमें से एक को छोड़कर सभी में आप बढ़त पर है। आप जिस एक बिंदू पर पिछड़ रहा है,वह है अमीर और गरीब मतदाताओं की मंशा टटोलने का बिंदु। इसमें 47 फीसदी अमीर भाजपा के पक्ष में हैं,जबकि 36 प्रतिषत आप के पक्ष में हैं। यहां गौरतलब यह भी है कि दिल्ली में 58 फीसदी ऐसी आबादी है, जो निम्न और निम्न-मध्य आय वर्ग के दायरे में आती है। इसी में गरीब,दलित,झुग्गी-झोपड़ीवासी और मुस्लिम तबके के लोग आते हैं। सर्वे के अनुसार यह मतदाता इसलिए आप के पक्ष में जाता दिखाई दे रहा है,क्योंकि एक तो कांग्रेस से कोई उम्मीद नहीं रह गई है,नतीजतन उसका पारंपारिक वोट बैंक स्वाभाविक रूप से आप की तरफ खिसक रहा है। दूसरे धर्मातंरण के मुद्दे को लेकर जो मुस्लिम और ईसाई नरेंद्र मोदी के प्रति नरम रुख अपना रहे थे,उनका रुख अब बदल रहा है। तीसरे अरंविद केजरीवाल को झुग्गी-झोपड़ीवासी और अन्य गरीब तबका एक उद्धारक के रूप में देख रहा है,इसलिए उनका झुकाव आप की तरफ है। चौथे मोदी सरकार के आठ माह के कार्यकाल में जिस तरह से औद्योगिक जगत लाभ पहुंचाने के लिए नीतिगत फैसले लिए गए है,उससे निम्न व मध्यवर्ग का मतदाता कमोवेष निराष हुआ
इस आर्थिक सर्वे के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले गए हैं,उससे लगता है कि यह सर्वे चरणबद्ध, सुस्पष्ट,पारदर्षी और वैज्ञानिक है। लिहाजा इसे एकाएक न तो खारिज किया जा सकता है और न ही चलताऊ लहजे में बाजारु कहा जा सकता है ? हालांकि नरेंद्र मोदी की जिस तरह से नाराजी सामने आई है,उससे यह आशंका उत्पन्न होती है कि यदि परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं गए तो भविष्य में सर्वेक्षणों पर लगाम लगाई जा सकती है ? कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो कहा भी है कि सर्वे पर पाबंदी जरूरी है,जिससे मतदाता भ्रमित न हों। सर्वोच्च न्यायालय के महाधिक्ता गुलाम ई वाहनवती ने तो मनमोहन सिंह सरकार को निर्वाचन पूर्व सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह भी दी थी। तब भाजपा ने इस मत का तीखा प्रतिरोध करते हुए कहा था,सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाना संविधान की भावना के विरुद्ध है। क्योंकि तब ज्यादातर सर्वे भाजपा के पक्ष में थे। अलबत्ता अब जरूर वह हकीकत से मुंह चुराते दिख रही है।
ज्यादातर विकसित व लोकतांत्रिक देशों में चुनाव पूर्व जनमत का रुझान जानने के लिए कंपनियां सर्वेक्षण कराती हैं। इसलिए बाजार को बढ़ावा देने वाले नरेंद्र मोदी का यह कहना गलत है कि सर्वेक्षण ढकोसला है। इनका कोई आधार ही नहीं है। ये पूरी तरह अवैज्ञानिक हैं। अलबत्ता हमारे यहां सभी जनमत संग्रह नैतिक मानदण्डों पर इसलिए खरे नहीं उतरते,क्योंकि उनका क्रय-विक्रय होने लगा है। इस पेषे में कुछ बेईमानों ने दखल देकर,इसके भरोसे को तोड़ने का काम किया है। ताजा सर्वेक्षणों का भरोसा कितना सटीक बैठता है,इसके लिए 10 फरवरी को नतीजे आने तक धैर्य रखने की जरूरत है।
सब सर्वेक्षण ढकोसला हैं , तुके में किसी की घोषणा सच के आस पास होती है तो वह ही अपने आपको सटीक व सही बताने लगता है होता यह है कि एक चुनाव में किसी एक चैनल की भविष्वाणी सही हो जाती है टी दूसरी बार किसी अन्य की ,इसलिए इन पर विश्वास नहीं किया जा सकता लेकिन कोई भी दल इन पर रोक भी नहीं लगाना चाहता है,वैसे भी हमारे यहाँ के सर्वेक्षणों में निष्पक्षता नहीं बरती जाती है
आप सही है. कोई भी दल हो,भाजपा,कांग्रेस ,या आप यदि इन्हे अपनी पसंद का सर्वेक्षण दिखता है तो यह सही लगता है. जैसे २०१४ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज इन सर्वेक्षणों को रद्दी की टोकरी में फेंकने के लायक और अविश्व सनीय बताते थे। किन्तु लोकसभा के बाद बिहार,झारखण्ड,महाराष्ट्र के सर्वेक्षणों में ये थोड़े नरम पड़े और अब तो ये सर्वेक्षणों की सत्यता के बारे में या विश्वनीयता के बारे में तो आपत्ति नहीं उठाते किन्तु प्रतिबन्ध की मांग जरूर करते हैं. आप वाले लोकसभा चुनाव में यही करते थे। अब बारी है भाजपा कि. ये सब दल एक मानसिकता के हालांकि कई चेनेल राजनीतिक हस्तियों के होने से ये सर्वेक्षणों को प्रभावित करते हैं. जैसे अभी जो एक बूटपूर्व केंद्रीय मंत्री शारदा चिट फण्ड घोटाले में गिरफ्तार हुए हैं उनका एक चैनल है.दक्षिण भारत के तमिलनाडु के राजनीतिक परिवार के नेता जो २जी स्पेक्ट्रम में गिरफ्तार हुए थे ,उनका एक चैनल है ,एक बाबा ने शायद कोई चैनल या तो खरीद रखा है या उसके ज्यादा शेयर उनके पास है। वे आर्ट दिन सुबाह शाम अपने उत्पादों के विज्ञापन में दिखाई देते हैं. तो ये चैनल भी एकदम निरपेक्ष ,सही सत्य हों ऐसा नहीं। फिर भी इन पर प्रतिबंध नहीं होना चहियेंऒल कारन है मतदाता का अपरिपक्व होना. वो मतदाता ही क्या जो इन सर्वेक्षणों के मानसिक दवाब में आ जाये.?